विश्व विख्यात ज्योतिर्विद् और खगोल शास्त्री एरिग्मै बड़ी ही दुर्दिन भरी स्थितियों में पले और बड़े हुये थे। बचपन में उन्हें स्कूल जाने का अवसर बहुत कम ही मिला। स्कूल की अपेक्षा मेहनत मजदूरी कर उन्हें अपने और अपने परिवार के गुजारे के लिए अधिक समय देना पड़ा और बाद में तो इसे ही प्राथमिकता देनी पड़ी। परन्तु उनके मन में आगे बढ़ने और बड़ा आदमी बनने की आकाँक्षा दबी हुई थी। किशोरावस्था में उन्हें सुझाई नहीं देता था कि वे किस प्रकार अपनी योग्यता बढ़ाने के लिये प्रयत्न करें? उस समय वे एक पुरानी किताबें बेचने वाले एक पुस्तक विक्रेता के यहाँ पुरानी और फटी हुई पुस्तकों की मरम्मत का काम किया करते थे। एक दिन वे किसी पुरानी किताब पर जिल्द चढ़ा रहे थे कि पास में रखी हुई रद्दी कागजों की ढेरी पर उन्हें हाथ से लिखा हुआ एक कागज का टुकड़ा दिखाई दिया। बरबस ही वे उसे उठाकर पढ़ने लगे। वह कागज एक पत्र की नकल था, जो डी. एलम्बर्ट नामक व्यक्ति ने अपने किसी मित्र को लिखा था। उस कागज पर लिखा हुआ था, ‘‘आगे बढ़ो श्रीमान्! आगे बढ़ो! जैसे-जैसे आगे बढोगे, तुम्हारी कठिनाईयाँ अपने आप दूर होती जायेंगी और तुम देखोगे कि उन कठिनाइयों के बीच में से ही प्रकाश उदित हुआ है, जिसने उत्तरोत्तर तुम्हारा मार्ग आलोकित कर दिया है।’’
जिस युवक को वह पत्र लिखा गया था, उसने पता नहीं कितनी प्रेरणा ग्रहण की परन्तु एरिग्मै के लिए यह पंक्तियाँ मार्ग-दर्शक बन गईं। उन्होंने यह काम करते हुए ही अपने प्रिय विषय की पुस्तकें पढ़ना आरम्भ किया। दुकान पर मरम्मत के लिये जितनी पुस्तकें आती थीं, उन्हें भी एरिग्मै उलट-पुलट लेते और इस स्वाध्याय क्रम से उन्होंने इतना लाभ उठाया कि आगे चलकर वे विश्व ख्याति स्तर के ज्योतिर्विद्, खगोलवेत्ता और विविध विषयों के विद्वान बन गये।
संसार में जितने भी व्यक्ति सफल हुए हैं, अपने-अपने क्षेत्र में प्रगति के कीर्तिमान स्थापित कर सके हैं, उनमें से अधिकाँश ने अपना जीव साधारण परिस्थितियों में ही आरम्भ किया था। यद्यपि दुनिया में दोनों ही तरह के लोग होते हैं। कितने ही अच्छी स्थिति में देखे जाते हैं और कितने ही बुरी तथा दीन-हीन स्थिति में, विषम परिस्थितियों में अपना जीव ज्यों-त्यों कर व्यतीत करते देखे जाते हैं। दीन-हीन और दयनीय स्थिति में जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति जब अपने से ऊँची और अच्छी स्थिति के लोगों की ओर देखते हैं तो कुढ़कर रह जाते हैं कि भगवान का यह कैसा न्याय है? एक व्यक्ति तो इतना ऊँचा सम्पन्न या विद्वान जबकि उसके समान ही मैंने भी जन्म लिया है, मैं भी मनुष्य हूँ, मेरे भी दो हाथ, दो पाँव और दो-दो आँख, कान हैं। फिर भी मेरी और सामने वाले की स्थिति में न पाया जाने योग्य अन्तर।
यह कुढ़न इस संतोष या संताप के बिन्दु पर आकर समाप्त होती है कि हमारा भाग्य ही ऐसा है। ऐसा हमारी किस्मत में ही नहीं है। कदाचित हमारे भाग्य में भी ऐसी ही परिस्थितियाँ होतीं तो हम इससे भी अधिक और अच्छा कुछ कर दिखाते। इस प्रकार निराशा से संतप्त व्यक्ति अपनी दुर्दशा का सारा दोष परिस्थितियों या भाग्य पर मढ़कर चुपचाप मन मसोस कर रह जाते हैं।
वस्तुस्थिति कुछ और ही होती है। जिन परिस्थितियों को अपनी दुर्दशा या दीनता के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है उनमें से अधिकाँश अपनी ही उत्पन्न की हुई होती हैं। जिन लोगों को आज ऊँची स्थिति में देखा जा रहा है, यदि उन्हें विरासत के रूप में कुछ मिला न हो तो, वे भी कभी उन्हीं की तरह साधारण और दीनहीन स्थिति में थे और किसी को विरासत के रूप में कुछ मिला भी है तो जिनसे विरासत में मिला है, उन्होंने भी कष्टप्रद, बुरे और कठिन दिन देखे थे। उन परिस्थितियों में उन्होंने अपने पुरुषार्थ को तराशा है, प्रतिभा को निखारा है तथा प्रयासों की आग में अपने आपको तपाया है।
इस तरह के अगणित उदाहरण हैं, जिनमें साधारण स्थिति के व्यक्तियों ने परिश्रम, पुरुषार्थ, एकाग्रता, मनोयोग और निष्ठा के बल पर उन्नति के चरम शिखरों पर पहुँचाया। फोर्ड कम्पनी इस समय संसार में मोटर बनाने वाली सबसे बड़ी और सर्वाधिक विख्यात कम्पनी है। इस कम्पनी के संस्थापक थे- हेनरीफोर्ड। फोर्ड के कारखाने में बनी कारें सबसे ज्यादा मजबूत और टिकाऊ समझी जाती हैं और फोर्ड परिवार की गणना विश्व के सर्वाधिक सम्पन्न परिवारों में की जाती है। इस कम्पनी या उद्योग के संस्थापक हेनरी फोर्ड का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जिसमें प्रत्येक सदस्य को जीविका के लिये श्रम करना पड़ता था। उनके पिता एक छोटे से किसान थे। फोर्ड इसलिये अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके थे क्योंकि उनका परिवार उन्हें स्कूल, कालेज भेजने का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं था।
किन्तु प्रयत्न, लगन और परिश्रम के बल पर उन परिस्थितियों में भी फोर्ड ने अपना व्यक्तित्व स्वयं निर्मित किया और असफलता की कई मंजिलें तय करते हुये सफलता के शिखर पर पहुँचे। जिनके कारखाने में छोटे से छोटा मजदूर भी साठ रुपये प्रतिदिन से कम नहीं कमाता, उस कारखाने के संस्थापक को इतना पारिश्रमिक प्राप्त करने के लिये महीने भर खपना पड़ता था। फोर्ड ने अपना प्रारम्भिक जीवन जिन परिस्थितियों में गुजारा उसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। उन परिस्थितियों के रहते हुये सफलता के शिखर पर पहुँचने का रहस्य उनकी लगन और निष्ठा को ही समझा जा सकता है।
मजदूरी करते हुए ही फोर्ड ने किशोरावस्था में संकल्प किया था कि वे कार बनाने का कारखाना खोलेंगे। उस समय यदि वे अपने लक्ष्य के बारे में किसी को बताते भी तो वह उन्हें शेखचिल्ली से अधिक महत्व नहीं देता। यहाँ तक कि उनके माता-पिता ने भी उन्हें सनकी और पागल कहा। किन्तु फोर्ड अपने स्वप्न को साकार करने के लिए अपने ढंग से काम करते रहे। वे दिन में मजदूरी करते और रात को एक मोटर कम्पनी में काम सीखने के लिये जाया करते। कबाड़ी के सामान से आखिर उन्होंने एक दिन कार का डिजाइन तैयार कर लिया और वह कार कुछ दूर तक चली। यह दुनिया की पहली कार थी। इसके बाद तो सफलता ने जैसे अपना द्वार उनके लिए खोल दिया और वे एक-एक सीढ़ियां पार करते हुए मंजिल तक पहुँच गये। किन्तु इन वर्षों में उन्हें जितना कठिन परिश्रम और पुरुषार्थ करना पड़ा उतना श्रम अपने ध्येय के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित व्यक्ति ही कर सकता है।
सुई से लेकर रेल के इंजिन तक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तुओं के निर्माता उद्योग समूह टाटा के संस्थापक जमशेद जी टाटा के सम्पन्न जीवन के संबंध में तो प्रायः सभी लोग जानते हैं, परन्तु यह जानने वालों की संख्या कम ही है कि उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसकी जीविका का आधार पुरोहिताई ही था। नबसारी में जन्मे और वहीं पले जमशेद जी को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक जातीय बंधु का सहयोग लेना पड़ा था। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसी छत वाले कमरे रहे जिसकी छत थोड़ी-सी भी बूंदा-बांदी होने पर टपकने लगती थी। शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने अपनी व्यवहार कुशलता के बल पर ऐसे साथियों की टीम तैयार की ,जिनके सहयोग से वे स्वयं का कारोबार चलाने योग्य साधन जुटा सके।
सर्वप्रथम उन्होंने एक कपड़े का कारखाना खोला और इस प्रकार उद्योग जगत में प्रवेश किया। परिश्रम दृढता तथा व्यवहार कुशलता के बल पर उन्होंने अपने कई साथी सहयोगी बनाये और उद्योगपति के रूप में प्रतिष्ठित हो सके। लोग अक्सर किसी का सहयोग नहीं होने की बात करते। स्मरण रखा जाना चाहिए कि सहयोग न तो घर बैठे मिलता है और न ही अनायास। उसके लिए व्यक्ति को उद्यमी होने के साथ-साथ व्यवहार कुशल भी होना चाहिए, तभी वाँछित सहयोग मिल पाता है और अभीष्ट परिस्थितियों का निर्माण होता है, जिसके आधार पर आगे बढ़ना संभव होता है।
परिस्थितियाँ कितनी ही विषम और प्रतिकूल क्यों न हों, यदि व्यक्ति अपने कार्य को मनोयोग और तन्मयता के साथ पूरा करते रहे तो वह उन्हीं परिस्थितियों में आगे बढ़ता रह सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में यों कितने ही राष्ट्रपति हुए हैं, परन्तु अब्राहम लिंकन का नाम जितने आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है, वाशिंगटन को छोड़कर शायद ही किसी और राष्ट्रपति का लिया जाता हो। अब्राहम लिंकन के पिता कुल्हाड़े और बन्दूक के सहारे अपना जीवनयापन करते थे। कुल्हाड़े से वे लकड़ियां काटते और बंदूक से जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करते थे। अब्राहम लिंकन के पिता अपने बच्चों को पढ़ाने-सिखाने योग्य सुविधा साधन भले ही न जुटा पाये हों, पर उन्होंने काम चलाऊ अक्षर ज्ञान और पढ़ने की अभिरुचि अवश्य जगा दी थी। यही कारण था कि लौपपोस्ट के उजाले में खाना पकाते समय चूल्हे में जलाई जाने वाली आग की रोशनी में वे पुस्तकें पढ़ा करते, क्योंकि दिया-बत्ती का प्रबंध भी मुश्किल से हो पाता था और ऐसी परिस्थितियों में पढ़े-लिखे लिंकन जीवन में बारबार असफल होने पर भी हिम्मत न हारे तथा अमेरिका के राष्ट्रपति बनने में सफल हुए।
अमेरिका में दूसरे दर्जे का जीवन बिताने वाली गोरे लोगों की दासता के चक्र में पिसने वाली मूल जाति नीग्रो में जन्म लेने वाले कॉर्बर को भी अपने जीवन में क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े थे? वे ऐसे परिवार में जन्मे थे, जिसका सारा जीवन ही उसके स्वामी के इशारों पर कठ पुतली की तरह नाचता था। यहाँ तक कि उन लोगों को अपने बच्चों की व्याह-शादी भी अपने मालिक की मर्जी के अनुसार करनी पड़ती थी। क्योंकि बच्चे उनकी सन्तान नहीं, उनके मालिक की संपत्ति होती थे। फिर भी आज्ञाकारिता, नियम-निष्ठा और विश्वास के बल पर जार्ज कॉर्बर ने अपने मालिक को प्रसन्न कर उससे कुछ सुविधाएँ हस्तगत कर लीं और उनका उपयोग अपने विकास में करने लगे। भविष्य के प्रति आशावान् और वर्तमान के प्रति उत्साहपूर्ण तथा जागरूक रहते हुये उन्होंने अपने जीवन को इस प्रकार सँवारा कि सफलता के उस शिखर पर जा पहुँचे, जिसके कारण कि उन्हें वैज्ञानिक ऋषि कहा जाने लगा।
शिक्षा और विद्वत्ता के सम्बन्ध में तो लोग बहुधा ही परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं, सोचते हैं कि यदि अच्छे घर में जन्म न हो, पढ़ने-लिखने ही सुविधाएँ न मिले, उपयुक्त परिस्थितियाँ यदि उपलब्ध न हों तब तो आदमी कुछ कर ही नहीं सकता। जबकि सच्चाई यह है कि अन्य क्षेत्रों में परिस्थितियां भले ही कुछ सहायता कर जाएँ, विद्या और ज्ञान के सम्बन्ध में तो उनका जरा भी वश नहीं चलता। अनुकूल परिस्थितियाँ होते हुये भी कई धनवानों के बच्चे अनपढ़ और गंवार रह जाते हैं तथा परिस्थितियां व साधन न होते हुए भी कितने ही गरीब बच्चे विद्वान और ज्ञानी बन जाते हैं। कालिदास, सूरदास, तुलसीदास से लेकर प्रेमचंद्र, शरतचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, निराला, रत्नाकर आदि कितने ही विद्वान साहित्यकार हुये हैं जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत कम अच्छी रही है या दुर्दशाग्रस्त ही रही है। फिर भी उन्होंने निजी प्रयासों और तप साधनाओं के बल पर जगत को कुछ दे पाने में सफलता प्राप्त की।
सफलता और उत्कर्ष आन्तरिक उपलब्धि है जबकि अच्छी स्थिति और अनुकूल परिस्थितियाँ बाहरी साधन, ठीक उसी प्रकार जैसे अन्न भण्डार के मालिक का आहार की दृष्टि से स्वस्थ और पोषक अन्न ग्रहण कर पाना कोई आवश्यक नहीं है। यदि पेट की कोई बीमारी हो तो मनों अनाज भरा होने पर भी पाव भर रोटी हजम कर पाना मुश्किल है। और जिसे खुलकर भूख लगती है उसे उद्यम करने के लिये उठ खड़ा होना ही पड़ेगा। आन्तरिक विशेषताओं को, मनःस्थिति और क्षमताओं को यदि उपयुक्त दिशा में मोड़ा तथा जगाया जाय तो लाख परिस्थितियाँ बाधक हों, सूरमा योद्धाओं की तरह विजय के गढ़ पर सफलता के ध्वज लहराने का अवसर आकर ही रहेगा, मिल कर ही रहेगा।