बुद्धिमान ही नहीं संवेदनशील भी बनें

May 1981

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भौतिक उपलब्धियाँ कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हों वे तब तक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकतीं जब तक उनमें सृजनात्मक प्रवृत्तियां न जुड़ी हों। ध्वंस में प्रयुक्त होने वाले साधन तो सामूहिक विनाश के कारण बनते हैं। आग भोजन पकाने, मशीनें चलाने तथा अन्यान्य कार्यों में प्रयुक्त होती हैं? सृजन की दिशा में उसका प्रयोग मानव मात्र के लिये उपयोगी बनता है। ध्वंस में प्रयुक्त हो तो वही आग कुछ ही क्षणों में दावानल का स्वरूप ग्रहण करके अगाध संपत्ति को नष्ट कर डालती है। रचनात्मक कार्यों में आने वाली एक वस्तु उपयोगी बन जाती है। वही ध्वंस में प्रयोग होने पर विनाश का दृश्य उपस्थित करती है।

मानवी व्यक्तित्व का विश्लेषण करने पर उसमें दोनों ही प्रवृत्तियां पायी जाती हैं। बुद्धि का योगदान तो इन दोनों में ही होता है, किन्तु एक के साथ सम्वेदनाओं का गुट जुड़े होने से रचनात्मक बनकर मानव मात्र के लिये उपयोगी बनती है। वहीं दूसरी प्रखर होते हुये भी सम्वेदनाओं से रहित होने के कारण स्वार्थी, संकीर्ण बनकर संकट ही खड़ा करती है।

महत्व उपलब्धियों का नहीं उनके साथ जुड़े उद्देश्यों का है। आदर्शों एवं सिद्धांतों के लिये प्रयुक्त होने वाले साधन ही मानवी विकास के आधार बनते। भले ही वे अल्प क्यों न हों, किन्तु महत्व उनका ही है जो सदुद्देश्य के लिये प्रयुक्त हों। सही अर्थों में वे ही सामाजिक विकास कारण होते हैं। बढ़े हुये साधन व्यक्ति विशेष के लिये उपयोगी हो सकते हैं। किन्तु आदर्शों के अभाव में तो संकट ही खड़ा करते हैं। समीक्षा की जाय तो बुद्धि का सही उपयोग जिस कारण बन पड़ता है- वह है मानवी सम्वेदना। उससे जुड़कर बुद्धि सृजनात्मक प्रवृत्तियां अपनाती तथा सबके लिए उपयोगी बनती हैं। साधनों का प्रयोग श्रेष्ठ कार्यों के लिए तभी हो पाता है। व्यक्ति तथा समाज का उत्थान-पतन इसी आधार पर निर्भर करता है।

बुद्धि के अनुदान भौतिक उपलब्धियों के रूप में सर्वत्र परिलक्षित हो रहे हैं। प्रकृति के एक से बढ़कर एक रहस्य इसके द्वारा खोले जा रहे हैं। वैज्ञानिक शोधों में इसकी ही प्रखरता दिखायी पड़ती है। बहिरंग जगत की सम्पन्नताएँ इसी के द्वारा बढ़ी हैं। किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि मनुष्य बुद्धि एवं साधनों की दृष्टि से कितना भी विकसित क्यों न हो गया हो, मानवी गुणों की दृष्टि से उसका पतन ही हुआ है। इसका एक ही कारण है- जिस आधार पर व्यक्तित्व की श्रेष्ठता विनिर्मित होती है, उसकी उपेक्षा करना। दिव्य सम्वेदनाओं से रहित होने पर तो पशु प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहन मिलाता है। निरंकुश बुद्धि स्वार्थी, संकीर्ण बनकर सामाजिक विग्रह खड़ा करती है।

उद्देश्य के अनुरूप मनुष्य की विचारणा चलती तथा उसकी पूर्ति के लिए अनेकों जाल-जंजाल खड़े करती है। मानवी आदर्श यदि भौतिक साधनों की प्राप्ति तक ही सिमट कर रह गया है तो स्पष्ट है कि उसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य नीति, अनीति पर ध्यान दिये बिना वह मार्ग अपनायेगा जो उसकी गरिमा के अनुकूल नहीं है। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ेगी। अधिक संग्रह करने की होड़ चल पड़ेगी। मानवोचित्त आदर्शों से समाज विमुख हो जायेगा। स्पष्ट है कि इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाने पर परस्पर असहिष्णुता, ईर्ष्या की भावना को ही पोषण मिलेगा। पशु प्रवृत्तियां पनपने तथा नर पशुओं की संख्या ही बढ़ती जायेगी।

इसे समय का अभिशाप ही कहा जाना चाहिए कि बुद्धि ने भौतिक उपलब्धियों को ही अपना आदर्श माना। उसे पाने के लिये अपनी सारी सामर्थ्य झौंक दी। प्रयत्न करने पर सफलता का मिलना असंदिग्ध है। सम्पन्नताएँ अनुगामी हुईं, किन्तु इतने मात्र से मनुष्य सन्तुष्ट न हो सका। अधिक प्राप्त करने एवं संग्रह की ललक बनी रही। प्रकृति के सीमित साधनों को यदि एक मनुष्य की झोली में डाल दिया जाय तो भी उसकी असीम तृष्णा की पूर्ति सम्भव नहीं है। अपूर्तिनीय तृष्णा की पूर्ति के लिये बुद्धि ने वह मार्ग अपनाया जो समस्त मानव जाति के लिए हानिकारक है।

अस्त्र-शस्त्रों एवं अन्याय विनाशकारी यन्त्रों के निर्माण में बात सुरक्षा की होती तो समझ में भी आती। किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा इन विनाशकारी यंत्रों पर नहीं टिकी है। उसके लिये तो सामान्य अस्त्र, शस्त्र एवं कुशल सैनिक भी पर्याप्त होते हैं। उनके शौर्य, पराक्रम के विकास से ही राष्ट्र को बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रखा जा सकता है। विनाशकारी बमों तथा अन्याय विस्फोटक यन्त्रों में तो बुद्धि की कुटिलता ही झाँकती दिखाई देती है।

समाज में जैसा भी आदर्श होगा, उसके अनुरूप ही प्रवृत्तियां पनपेंगी एवं गतिविधियाँ चल पड़ेंगी। आदर्श विलासिता और सम्पन्नता को बनाया गया। फलस्वरूप संसार उसी ओर चल पड़ा। श्रेष्ठ आदर्शों एवं सिद्धांतों के अभाव में गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश नहीं रहा। कारणों की गहराई में जाने पर एक ही तथ्य का पता लगता है वह है- बुद्धि द्वारा मानवी सम्वेदना की उपेक्षा की जाना। बुद्धि की निरंकुशता इसी कारण बढ़ी। संकीर्णताओं को प्रोत्साहन मिला। ध्वंसात्मक गतिविधियाँ अपनाकर व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करने का सिलसिला चल पड़ा।

बुद्धि का महत्व एवं उसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। किन्तु यह तभी बन पड़ती है जब उसके साथ सम्वेदनाओं का संयोग हो। बुद्धि की उच्चतम स्थिति को ‘प्रज्ञा’ के नाम से विभूषित किया गया है। सघन सम्वेदनाओं के साथ जुड़कर ही वह इस उच्चतम स्थिति तक पहुँचती है। सृजनात्मक प्रवृत्तियों को इसी के द्वारा प्रोत्साहन मिलता है। साँस्कृतिक विकास की सारी सम्भावनाएँ इसी पर आधारित हैं। बुद्धि की प्रखरता एवं उससे मिलने वाले भौतिक अनुदानों का सही उपयोग विकसित भाव-सम्वेदनाओं द्वारा ही सम्भव हो पाता है।

महापुरुषों द्वारा छेड़े जाने वाले अभियानों में इस तत्व को विकसित करने का ही महान लक्ष्य अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है। वे इस तथ्य से परिचित होते हैं कि इसको उभारे बिना मनुष्य को श्रेष्ठता की ओर नहीं मोड़ा जा सकता। वे साधनों के विकास की उपेक्षा तो नहीं करते किन्तु उनको अधिक प्रधानता भी नहीं देते। उनकी सामर्थ्य मानवोचित्त गुणों के विकास के लिये ही प्रयुक्त होती है। साधना एवं अन्य आध्यात्मिक उपचारों के पीछे भी इसी उद्देश्य की पूर्ति ही निहित होती है।

आदर्शवादी भाव-सम्पन्नता से ही भौतिक उपलब्धियाँ भी मानव मात्र के लिये उपयोगी बन सकती हैं। बुद्धि की प्रखरता भावनाओं की उदात्तता से जुड़कर ही सर्वतोमुखी विकास का आधार प्रस्तुत कर सकती है। इस तथ्य को हृदयंगम कर उसे विकसित करने के लिए हर सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए।


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