तात! अपनी विवशता में किन शब्दों में व्यक्त करूं- विदूरथ ने गहन निःश्वास छोड़ते हुये बताना प्रारम्भ किया- जब भी अपराह्न होता है मेरे अंतःकरण में एक विलक्षण आकर्षक पैदा होता है। ऐसा प्रतीत होता है नीलाचल उपत्यिका का वह अश्वत्थ वृक्ष मुझे अपने पास बुला रहा है। उसके चिरचंचल पत्तों की ध्वनि, उसकी शीतल छाया और उसकी विशालता में न जाने ऐसा क्या है जो मुझे बारम्बार आकर्षित करता है और मैं अपने आपको रोक नहीं पाता। ओह आर्य! मुझे क्षमा करें, गुरुकुल की मर्यादा का उल्लंघन मुझसे न हो इसका फिर प्रयास करूंगा। आज क्षमा करें।
यह क्षमा याचना आज नई नहीं थी, विदूरथ को प्रवेश लिये हुये लम्बी अवधि बीत गई। वह इस वर्ष आचार्य पद प्राप्त करने को है। उसका अध्ययन अत्यन्त प्रगाढ़ है। उसकी वाणी विनति और स्नेह-आश्रम के आबाल वृद्ध उस पर स्नेह रखते हैं। साधना के क्षेत्र में उसकी गति की सभी चर्चा करते हैं किन्तु उसे न जाने क्या मोह है जो वह दिन ढलने की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही आश्रम का परित्याग कर देता है, दूर तक चला जाता है। अश्वत्थ वृक्ष तक पहुँचना, वहाँ घण्टों ध्यान मग्न बैठे रहना उसका दैनन्दिन क्रम हो गया है। सांध्य आरती में उसने कभी भाग लिया हो यह देखने में नहीं आया। सहपाठी अनेक बार महर्षि कौटिल्य को इस तथ्य से अवगत करा चुके हैं। महर्षि की तीक्ष्ण दृष्टि विदूरथ पर रही है पर आज तक उन्होंने कुछ कहा नहीं। आज न जाने क्यों विदूरथ को उन्होंने सामुख्य के लिये बुला लिया है। विदूरथ ने अपनी बात अंतःकरण से व्यक्त भी कर दी।
गुरुदेव! इस बीच भावनाओं में खोये रहे। विदूरथ ने अपनी बात समाप्त की। महर्षि ने एक वत्सल दृष्टि विदूरथ पर डाली। विदूरथ ने दृष्टि नीचे झुकाई फिर सिर ऊपर उठाया किन्तु यह क्या? विदूरथ ने देखा महर्षि के मुख मण्डल पर एक श्वेत पिच्छिका झलक रही है, उसका एक-एक कण अनिर्वचनीय दिव्यता से ओत-प्रोत। मानो आज विशाल नभ-मण्डल अपने समस्त देदीप्यमान तारकों सहित महर्षि के आनन में उतर आया है। विदूरथ की चेतना विमोहित हो चली और निमिष मात्र में ही उस पिच्छिका में अन्तर्धान हो गई। अब वे एक दूसरे लोक में थे, स्वप्नवत् किन्तु समस्त ज्ञान और चेतना से परिपूर्ण।
विदूरथ ने देखा अपना वही परम प्रिय अश्वत्थ वृक्ष, उसकी वहीं चंचलता, तनिक-सी बयारि बही और पत्ते नृत्य कर उठे, चैत्र मास की सन्ध्या जैसी शीतलता, नूतन पल्लवों की मोहकता सब कुछ परम मनोहर, परम मनोहर।
किन्तु विदूरथ! की मानवी काया- नहीं नहीं यह तो एक शुक की देह है। शुक के रूप में विदूरथ अपनी प्रिया शुकी के साथ। विगत जीवन के सारे दृश्य एक-एक कर उभर रहे हैं। ओह मैं विदूरथ एक दिन इसी अश्वत्थ के कोटर में नन्हे से शुक के रूप में जन्मा, मेरे माता-पिता ने कितने स्नेह से मुझे दाने चुगाये थे, उड़ना सिखाया था और बड़ा होकर मैंने स्वयं एक सुन्दर शुकी को अपना जीवन साथी चुन लिया था बड़े आनन्द का जीवन, कितना उल्लास कितनी उन्मुक्तता।
किन्तु एक दिन मेरे सामने ही एक बाज ने प्रेयसी शुकी पर आक्रमण कर दिया, मैं असहाय, कुछ कर न सका- अपनी ही भार्या को अपनी आँखों के सामने गँवाकर जीवन का यथार्थ मेरे सम्मुख प्रकट हुआ। वियोग का वह एकाकी जीवन, कितनी पीड़ा से परिपूर्ण था। ऐसे में ही अपनी देह का एक दिन परित्याग कर उत्तर पाण्डेय के एक नगर में एक श्रेष्ठ परिवार में मैंने नया जीवन धारण किया। विदूरथ मेरा नाम है और अब मैं अविद्या के परिमार्जन के लिये महर्षि कौटिल्य के तपोवन में हूँ।
बालक विदूरथ की तन्द्रा टूट गई। अब वहाँ कोई पिच्छिका नहीं थी। महर्षि की तेजस्वी मुद्रा। अधरों में हल्की मुस्कान मानो वे कह रहे हों साधक! तूने समझ लिया क्या, पिछले जन्मों के संस्कार कितने प्रचण्ड वेग से मन को आकर्षित करते और श्रेयस् में बाधा उत्पन्न करते हैं।
विदूरथ की आंखें भर आईं, हृदय उमड़ उठा। वे कुछ बोले नहीं, गुरुदेव को प्रणाम किया और सांध्य प्रार्थना के लिए चल पड़े। आज उन्हें परम संतोष था, योगियों जैसा आत्म-संतोष। मन को बार-बार विपरीत दिशा में चलाने का तप क्यों करना पड़ता है यह उन्होंने आज जान लिया।