धर्म का अंधविश्वासों से क्या सम्बन्ध?

May 1981

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धर्म जीवन की एक परम आवश्यकता है, जीवन सार्थकता की परम साधना है। ‘यतोऽभ्युत्थानः निःश्रेयस् कशवुमैन’ के अनुसार जिससे इहलोक में उन्नति और परलोक में भी कल्याण सधे वह धर्म है। इस व्याख्या या परिभाषा के अनुसार धर्म प्रथा परम्पराओं में नहीं है, वह उन गुणों के धारण करने में है जो आत्मिक और पारलौकिक जीवन में कल्याणकर सिद्ध हों। इस स्तर का धर्म जीवन-जीने की एक कला कहा जा सकता है और उसे मनुष्य के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक समझा जा सकता है। जितना सम्मानास्पद और आवश्यक यह वास्तविक धर्म है उतना ही घृणित और हेय है- धार्मिक अन्धविश्वास। अन्न जब भोजन बनकर थाली में आता है तब वह आदरणीय होता है और उपयोगी भी। पर जब वही पेट में पहुँचने के बाद सड़े हुए मल के रूप में बाहर निकलता है तो घृणित दुर्गन्ध युक्त और अस्पर्श्य बन जाता है। धर्म के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। उसे मनुष्य जाति का प्राण कहना चाहिए। पर जब वह अज्ञान के आवरण में लपेटा हुआ और धर्म व्यवसायियों द्वारा विकृत किया हुआ होता है तो उसे अन्धविश्वास कहा जाता है।

इस धार्मिक अंधविश्वासों ने लोगों का जितना अहित किया है, उतना धर्म ने भी कभी नहीं किया। उदाहरण के लिए प्राचीन काल में धर्म के नाम पर प्रचलित अन्ध परम्पराओं ने नर-बलि की प्रथा प्रचलित की और उस मूढ़ता की बलिवेदी पर असंख्यों मनुष्यों का रक्त बहा तथा क्रन्दन से आकाश गूँजा, फिर भी निष्ठुर धर्म भीरुता नहीं पिघली और वह अनर्थ हजारों वर्षों तक चलता रहा। उस धर्मानुष्ठान को करने वाले अपने को धर्मात्मा कहते रहे और आश्चर्य की बात तो यह कि जनता भी उनके कार्यों में आँख-मूँदकर सहयोग देती रही। कौन विचारशील व्यक्ति इन प्रथा-परम्पराओं को, जिनमें निष्ठुरता ही भरी हुई- धर्म कहेगा? हालाँकि सभ्यता के साथ-साथ नर-बलि घटती चली गई। अब उसके विरुद्ध कानून भी बन गये हैं और सभ्य समाज में उसके विरुद्ध वातावरण भी है, विचारशील लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, पर उसी का छोटा रूप पशु-बलि के रूप में अभी भी विद्यमान है और समझदार कहे जाने वाले विभिन्न धर्मों के तथाकथित धर्मपरायण लोग भी उसे निष्ठुरतापूर्वक अपनाये हुए हैं। उस कुकृत्य को करते हुए उन्हें न लज्जा आती है, न संकोच का ही अनुभव होता है।

इस तरह की निष्ठुर क्रूरता के कितने ही अवशेष यत्र-तत्र विद्यमान मिलते हैं जो धार्मिक अन्धविश्वासों की क्रूर कथा कहते हैं। उदाहरण के लिए मैक्सिको के नेशनल म्यूजियम में एक सात फीट ऊँचा गोलाकार पत्थर रखा हुआ है। इसे संसार का सबसे अधिक खूनी पत्थर कहा जाता है। यह पाषाण प्राचीन अजटेक्स राज्य के आदिवासियों की परम्परागत बलिवेदी रहा है, अजटेक्स निवासी धार्मिक मान्यताओं वाले भोले-भाले लोग थे। उनका विश्वास था कि मानव बलि चढ़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं और संसार की भलाई करते हैं। यदि उन्हें यह उपहार न दिया जाए जो रुष्ट होकर दैवी प्रकोप उपस्थित करते हैं। इस विश्वास के आधार पर समय-समय पर वे अपने ही लोगों को पकड़ कर बलि पर चढ़ा देते थे। कोई पूजा गृह बनता था या राज्याभिषेक होता था तब तो बलि की मात्रा प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाती है। पिछली संख्याओं से अधिक संख्या बढ़ाना ही उत्साह का प्रतीक माना जाता था। बलि की प्रथा भी बड़ी वीभत्स थी। सिर काटने की अपेक्षाकृत कम कष्ट कर पद्धति वे नहीं अपनाते थे, वरन् छाती चीर कर हृदय निकालना और उस कलेजे को देवता के सम्मुख प्रस्तुत करना यही अधिक कष्टकारक तरीका वे अपनी धर्म-भावना को चरितार्थ करने का उत्तम प्रमाण मानते थे। टियोकाली (स्पेन) के समीप ही एक वन्य प्रदेश में अजटेक्स जाति का एक देवालय था। स्पेन निवासियों ने इस क्षेत्र की खोज की तो मायन योलोक के इर्द-गिर्द 1 लाख 36 हजार नर मुंड इधर-उधर बिखरे हुए पाये गये। यह बलिदान किये गये निरीह मनुष्यों की खोपड़ियां थीं और उन्हें इस विपत्ति में फँसा देने वाला एकमात्र कारण था अंधविश्वास, जिसे वहाँ के निवासी एक गहरी धर्म श्रद्धा के रूप में अपनाते थे।

अमेरिका में युद्ध-देव के मन्दिर का विवरण ढेरों पत्रिकाओं में अनेकों बार प्रकाशित किया जा चुका है और इसके सम्बन्ध में अनेक पुस्तक भी लिखी गई हैं। यह मन्दिर कोलम्बस के अमेरिका पहुँचने के दो सौ वर्ष पूर्व बनाया गया था। इसके लिए कई वर्षों से लोगों को पकड़-पकड़ कर इकट्ठा किया जाता था और उनकी बलि दी जाती थी। यह नर-बलि सामूहिक रूप से दी जाती थी। सामूहिक बलि के समय एक उत्सव का आयोजन किया जाता था। इकट्ठे किये गये लोगों की संख्या प्रतिष्ठापना के समय हजारों की संख्या में पहुँच गई थी। देव प्रतिष्ठा के समय उन बलि-मानवों का झुँड-जुलूस के रूप में निकाला गया। उनका जुलूस दो मील लम्बा था। यह धीरे-धीरे आगे बढ़ता था। कई पुजारी इन बलि मानवों का हृदय चीरने के लिए नियुक्त थे, जो थोड़ी-थोड़ी देर बाद यह पुण्य कार्य सम्पन्न करते थे। इस प्रकार अहिर्निश चार दिन में कितने ही वध-कर्ताओं द्वारा यह अनुष्ठान पूरा हो पाया और बहता हुआ रक्त उस पवित्र मन्दिर के पत्थर पीसने के काम में लाया गया।

प्रशान्त महासागर के फातुहिवा द्वीप में मिले खण्डहरों और वहाँ से प्राप्त अवशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकले हैं कि उस द्वीप में पहले कभी साधन सम्पन्न वैभवशाली लोगों का समुदाय रहता था। ये लोग लुप्त कैसे हो गए? इस तथ्य के अनुसंधान की भी एक रोमाँचक गाथा है। फ्राँस के पुरातत्व विज्ञानी डा. फ्रांसिस ने इस लुप्त जाति के लोगों के इतिहास की कड़ियाँ मिलाई हैं। उन्हें जब इस जाति के सम्बन्ध में पता चला तो खोज करते हुए उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि इस द्वीप में रहने वाले लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में स्वर्ण संग्रह किया गया था, जो इसी द्वीप के खण्डहरों में कहीं जमा है। डा. फ्रांसिस वहाँ पहुँच गए और उन्होंने जो कुछ खोज निकाला वह अद्भुत था। द्वीप में मिले खण्डहर, तहखाने, बुर्जियां अपने निर्माताओं और स्वामियों के समुन्नत होने का प्रमाण दे रहे थे।

यहाँ प्राकृतिक साधन भी जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त थे। इतना सब होने पर भी यह पता नहीं चल रहा था कि वह जाति लुप्त कैसे हो गई? इस प्रश्न का समाधान डा. फ्रांसिस को और अधिक खोजने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था। उस द्वीप के पाड नामक एक वनवासी व्यक्ति को लेकर फ्रांसिस उस सघन वन में गए। उपलब्ध प्राचीन सभ्यता के चिह्न और अवशेषों ने उन्हें इस निष्कर्ष पर तो पहुँचाया कि यहाँ कोई साधन सम्पन्न और बुद्धिमान लोग रह रहे हैं, पर वे समाप्त कैसे हो गए? यही प्रश्न समझने वाला था। इतिहास का यह पृष्ठ बहुत परिश्रम के बाद ही खुला।

फ्राँसिस ने उस प्रदेश में भ्रमण करते हुए उस क्षेत्र में नर-बलि की प्रचलित प्रथा के ढेरों प्रमाण पाये जो सर्वत्र बिखरे पड़े थे। वट वृक्षों जैसी जटाओं वाले पेड़ों पर नर-मुँड इस तरह फँसे पड़े थे, मानो वे उन्हीं में फले हो। अस्थि कंकाल जहाँ-तहाँ छितरे पड़े थे। ऐसे पत्थर पाये गए जिनमें मनुष्य का सिर फँसाकर उन्हें कुल्हाड़ी से काटा जाता था। वीभत्सता की कथा कहने वाले ये प्रमाण इतने अधिक थे कि एक शब्द में उसे किसी समय का नर-बलि क्षेत्र कहना भी अत्युक्ति न होगा। गहन पर्यवेक्षण और अनुसंधान करने के बाद फ्राँसिस इस नतीजे पर पहुँचे कि यहाँ कोई प्रगतिशील जाति रही है। यदि ऐसा न रहा होता तो वास्तुकला के गहन ज्ञान से सम्बन्धित मजबूत भवन बनाना और उनके साधन जुटाना सम्भव ही नहीं होता। जो उपकरण वहाँ मिले वे भी बौद्धिक प्रगति और समृद्धि की साक्षी देते थे। पर लगता है कि धार्मिक अन्धविश्वास यह मान्यता उनके मन में जम गई थी।

अन्धविश्वास से प्रेरित इसी श्रद्धा में उन लोगों को मनुष्यघाती बना दिया और उनमें से जिसके चंगुल में जो फँस जाता वह उसे पकड़ कर बलि चढ़ा देता और अपनी समृद्धि तथा उन्नति की आशा करता। सम्भव है इसमें प्रतिशोध की भावना भी जमी हो और उनमें देव अनुग्रह की लालसा के साथ नर-बलि की मात्रा को अति की सीमा में पहुँचा दिया हो। हो सकता है पुरोहितों ने इस प्रक्रिया को प्रचलित किया है और वे सब इस नरबलि की प्रथा में निमग्न होकर अपना अस्तित्व ही खो बैठे हों। फ्राँसिस ने इस शोध में अपने साथ रहे आदिवासी पाड से सुनी प्रचलित दन्त-कथाओं के आधार पर बताया कि इस लुप्त जाति के लोग समय-समय पर बड़े-बड़े धार्मिक समारोह आयोजित करते थे। इन समारोहों में दूर-दूर से लोग सम्मिलित होने के लिए आते और इकट्ठे होते थे। मशालें जलाई जाती थीं, नगाड़े बजते थे उन्हीं अवसरों पर शंख और सींगों से बनी तुरही का प्रयोग होता था। इसके बाद चलता था मद्यपान और नर-बलि का वीभत्स दौर। रक्त की धाराएँ बह जातीं, घायलों और मृतकों को देव कृपा का पात्र समझा जाता था। और ये धर्मानुष्ठान इतने बढ़े कि यह समुन्नत जाति इसी जंजाल में फँसकर अपना अस्तित्व गँवा बैठी। उनके चिह्न अवशेष मात्र बाकी रह गये।

अफ्रीका में भी धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण हुए नर-संहार की अगणित घटनाओं के प्रमाण मिले हैं। वहाँ की धर्म पुरोहित महिलाएँ डाकिन देवियों को प्रसन्न करने के नाम पर भूतकाल में अगणित मनुष्यों के प्राण हरण करती रही हैं। कभी-कभी तो इन दिनों वहाँ इस तरह की घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं। कुछ दिन पूर्व तगांनिका (अफ्रीका) की राजधानी दारे सलाम के उच्च न्यायालय में तीन डायनों के विरुद्ध अभियोग चला। उससे वहाँ प्रचलित इस अघोर विद्या के सम्बन्ध में कई नई बातें प्रकाश में आईं। जिन तीन डायनों के विरुद्ध अदालत में मुकदमा चला उनके नाम थे नेआमसेनी, जामाल्टा और जापिवू।

ये तीनों महिलाएँ मुकदमें की कार्यवाई के दौरान रंग-बिरंगी जादुई चादरें, जिसे वहाँ की भाषा में कांगा कहते हैं, ओढ़े बैठी रहीं। उनका विश्वास था कि उसे पहन लेने पर उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पुलिस अधिकारी ने उन पर नृशंस हत्याओं के अभियोग लगाए। जब उनके विरुद्ध लगाये गये आरोप अदालत में पढ़कर सुनाये तो वे सुनकर मुस्करा भर दीं, मानो उन्हें कोई प्रशंसनीय काम करने का श्रेय दिया जा रहा हो। अदालत ने इन तीनों डायनों को चौदह वर्ष की सजा दी। न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा कि इस क्षेत्र में फैला हुआ अन्धविश्वास एक प्रकार से डाकिनी आतंक का पृष्ठ पोषण ही कर रहा है। जिस लड़की की बलि दी गई थी, उसके पिता तक ने डाकिनी के विरुद्ध गवाही नहीं दी। उसे डर था कि उससे कुपित होकर डाकिनी उसे या उसके परिवार के अन्य लोगों को क्षति पहुँचायेगी। लोग इन नृशंस स्त्रियों के कुकृत्यों की चर्चा तक करने से डरते हैं। ऐसी दशा में सबूत के अभाव में उन्हें प्राणदण्ड जैसी सजा कैसे दी जाए? जबकि ये आये दिन इसी प्रकार की हत्यायें और क्रूर कर्म करते रहने की अपराधी हैं।

नरबलि या पशुबलि तो उन अन्धविश्वासों का एक छोटा-सा हिस्सा मात्र है, जो धर्म की आड़ में पलते और बढ़ते रहते हैं। अपने देश में भी मध्यकाल में नरबलि का धुंआधार प्रचलन था। आजकल भी समाचार पत्रों में आये दिन देवी को प्रसन्न रखने के लिए इस तरह की घटनाओं के समाचार छपते रहते हैं। इसके अतिरिक्त टोना-टोटका, जन्तर-मन्तर आदि के नाम पर कितने लोग छले जाते हैं? इसकी न तो गणना की जा सकती है और न ही हिसाब लगाया जा सकता है। विचार किया जाना चाहिए कि जो धर्म व्यक्तिगत जीवन को सुखी समुन्नत बनाता है, आत्मिक उत्कर्ष का आधार तैयार करता है तथा सामाजिक सुव्यवस्था कायम करता है, वह इन हत्याओं, जघन्य कृत्यों की प्रेरणा किस प्रकार देता है। निश्चित ही उसका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म को जीवित रहना चाहिए और उसका समर्थन पोषण करना चाहिए, पर धर्म के नाम पर प्रचलित इन अन्धविश्वासों का जितनी जल्दी हो सके उन्मूलन ही करना चाहिए, जिसने सदा से मनुष्य को कलंकित किया है और उसे पतन के गर्त में गिराया है।


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