संसार के प्रायः सभी देशों में ऐसी प्रथा परम्पराएँ प्रचलित हैं, जिनका कोई कारण या लाभ समझ सकना अति कठिन है फिर भी वे अपने-अपने क्षेत्रों में मुद्दतों से चली आती हैं और उन्हें अशिक्षित ही नहीं शिक्षित भी चाहे-अनचाहे पूरा करते हैं। जो उन्हें निरर्थक मानते हैं वे भी उनका निर्वाह अभ्यस्त ढर्रे को तोड़ने का साहस न कर पाने की वजह से करते हैं और साथियों के विरोध का झंझट सिर पर न लेने के कारण उस चिन्ह पूजा को अन्य लोगों की तरह ही पूरा करते हैं।
मनुष्य के जीवन में जन्म, विवाह तथा मृत्यू ये तीन प्रमुख घटनाएँ होती हैं। अतः अन्ध-विश्वास भी प्रायः इन्हीं तीन घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इण्डोनेशिया में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि मंगलवार को पैदा हुआ बच्चा अभागा, अपराधी, बेईमान अथवा अविश्वसनीय बनता है। परन्तु पश्चिमी देशों में इसके विपरीत मंगलवार को पैदा होने वाला सबसे गुणी होता है ऐसी मान्यता है।
इन्डोनेशिया में जन्म अथवा मृत्यु से सम्बन्धित और भी अनेक अन्धविश्वास प्रचलित हैं। जैसे शुरू के दिनों में बच्चों को भूतों की नजर से बचाया जाता है। उसके बिछावन के नीचे नारियल के खाल में अण्डा मिला चावल तथा लाल मिर्च भर कर रख दी जाती है ताकि प्रेतात्माएँ उस पर बुरा असर न डाल सकें। प्रेतात्मा को धोखा देने के लिए पत्थर पर पेंट से आँख, कान, नाक आदि चित्रित करके बच्चे के बिछावन पर लिटा दिया जाता है ताकि वे भ्रमित होकर उसी पर हमले करें।
स्वप्न में अपनी मौत या जलता हुआ घर देखना कोरिया के लोग शुभ भविष्य की पूर्व सूचना मानते हैं। पश्चिम योरोप में तिलचट्टे दुर्भाग्य सूचक और जापान तथा कोरिया में सौभाग्य सूचक माने जाते हैं। अफ्रीकी देशों में लोग पूर्णचन्द्र को प्रेतात्माओं का सहभागी मानते और उन्हें देखने से बचना चाहते हैं। परन्तु चीनियों और कोरियाइयों के लिए यह हर्ष का दिन होता है।
आस्ट्रेलिया की आदिम जातियों में कुछ विचित्र प्रकार की परम्पराएँ प्रचलित हैं। वे विशेष अवसरों पर अपने क्षेत्र के पशु-पक्षियों की नकल उतारते हैं। ऐसे परिधान पहनते हैं जिससे उनकी आकृति उन प्राणियों जैसी दृष्टिगोचर होने लगे। अभ्यास करके वे उन्हीं की बोली बोलने का भी प्रयत्न करते हैं। उनमें से जो लोग इसके अभ्यस्त होते हैं उन्हें सम्मान और पुजापा दोनों ही मिलते हैं। इस प्रचलन के पीछे उनकी मान्यता है कि उनके मृत पूर्वज इस अभिनय से प्रसन्न होते और आशीर्वाद देते हैं।
किशोरों को वयस्कों के अधिकार पाने के अवसर पर बिरादरी के सामने गरम किये हुए पत्थरों पर लुढ़कने की परीक्षा में पास होना पड़ता है। जो डरते हैं या असफल रहते हैं उन्हें बड़ी आयु हो जाने पर भी बच्चों की पंक्ति में ही बैठना पड़ता है। पूर्वजों के प्रतिनिधि वे सर्प देवता को मानते हैं। उनकी आकृति पीठ पर बना कर नाचते, कूदते, पूजा परिचर्या पूरी करते हैं। औरत मरने पर मर्द उसके बाल काट कर एक साल तक जाँघ पर बाँधे रहता है और मृत पुरुष के दाँत औरत को एक थैली में बन्द करके गले से लटकाये रहने होते हैं। बीमारी को वे भूतों का प्रकोप मानते हैं और उपचारकर्ता रोगी को दाँत से काट-काटकर अच्छा होने का विश्वास दिलाते हैं। मृत्यु के बाद मनुष्य प्रेतात्मा बनता है और घर से लोगों से भोजन पाने की अपेक्षा करता है। इस मान्यता के अनुसार वे निकटवर्ती जलाशय में मृतक के निमित्त जब तब आहार बहाने की प्रथा पूरी करते हैं।
ढर्रे एवं प्रचलन के सामने सिर झुकाते रहने और उनका बोझ ढोने से समय की बर्बादी के अतिरिक्त मानसिक दुर्बलता भी बढ़ती है। मनुष्य स्वतन्त्र चिन्तन एवं औचित्य का अवलम्बन कर सकने में असमर्थ बनता है।