तनाव की रामबाण चिकित्सा योग साधना

May 1981

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अपच और कुपोषण के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों का इन दिनों जितना दौर है, उससे कही अधिक विपत्ति तनावजन्य रोगों की है। आरोग्य क्षेत्र भी अब क्रमशः दो विभागों में विभक्त होता जा रहा है। एक पिछड़ा दूसरा विकसित है। पिछड़े लोग जहाँ अभावजन्य कठिनाइयों से सम्बन्धित रोगों के शिकार होते हैं, वहाँ विकसित लोग शिक्षा एवं सम्पन्नता का दुरुपयोग करने के कारण मानसिक विक्षोभ से, तनाव से ग्रसित होते चले जाते हैं। नशेबाजी, विलासिता, आपा-धापी, शेखीखोरी और अनुदारता जैसी दुष्प्रवृत्तियां एक प्रकार से सरल जीवन के साथ विद्रोह है। उच्छृंखलता सो उच्छृंखलता। एक के बाद दूसरी का तारतम्य जुड़ा रहता है और पतनोन्मुखी आदतें न केवल व्यवहार पर वरन् चिन्तन पर भी आच्छादित होती चली जाती हैं। फलस्वरूप शरीर और मन दोनों की शक्तियों का अन्धाधुन्ध अपव्यय होता है और दोनों क्षेत्रों पर छाई रहने वाली उत्तेजना अन्ततः चित्र-विचित्र रोगों के रूप में फूटती है।

यह व्यथा विकसितों को- सम्पन्न एवं शिक्षितों को अधिक घेरती है। इस तरह पिछड़े लोग अपने ढंग से और प्रगतिशील अपने ढंग से ग्रसित होते चले जा रहे हैं। आर्थिक और बौद्धिक आधार पर पनपते हुए वर्ण भेद ने अब रुग्णता के क्षेत्र में भी अपनी विभाजन रेखा खींचनी आरम्भ कर दी है। ‘तनाव’ समृद्धों के हिस्से में आया है। दुर्भाग्य है उसकी शाखा, प्रशाखाएँ और जटिलताएँ अभावजन्य रोगों से कहीं अधिक हैं। इस प्रकार अपेक्षाकृत अधिक घाटे में तथाकथित समृद्ध लोगों को ही अधिक रहना पड़ रहा है।

जीवनयापन की विकृत शैली अपना कर ही इन दिनों नये किस्म की ऐसी व्यथाओं से घिरते जा रहे हैं जो न अभावजन्य हैं और न विषाणुओं का आक्रमण। पिछले दिनों वैज्ञानिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति उतनी नहीं थी, जितनी इन दिनों है। इतने पर भी पूर्वज हल्की-फुल्की जिन्दगी जीने के अभ्यस्त थे और चिन्ताओं, भ्रान्तियों से कुत्साओं-कुण्ठाओं से उतने नहीं घिरे रहते थे, जितने कि आज के तथाकथित ‘सभ्य’ मनुष्य। विकास की एक सीढ़ी यह भी मानी जा सकती है कि मनुष्य अनुदारता और उच्छृंखलता की दिशा में तेजी से बढ़ता, भागता चला जा रहा है। नई परिस्थितियों में नये किस्म के ऐसे रोग उत्पन्न हो रहे हैं, जिनका प्रस्तुत चिकित्सा ग्रन्थों में उल्लेख नहीं मिलता और चिकित्सकों को अनुमान के आधार पर इलाज का तीर-तुक्का बिठाना पड़ता है।

इन परिस्थितियों में तनावजन्य रोगों से निपटने के लिये योगाभ्यास की प्रक्रिया अधिक कारगर सिद्ध हो रही है। जो कार्य औषधि उपचार से नहीं बन पड़ रहा था वह इन प्रयोगों से सरलतापूर्वक होते देखा गया है। मानसोपचार की दृष्टि से ध्यान, धारण और प्रत्याहार की त्रिविधि प्रक्रिया बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है। यदि उस ओर अधिक ध्यान दिया जा सके और इस क्षेत्र में शोध प्रयासों को बढ़ाया जा सके तो ऐसे सूत्र हाथ लगने की पूरी सम्भावना है जो मानसिक तनाव का सामयिक उपचार ही न करे, वरन् उत्पन्न होने से पहले ही रोकथाम करने में कारगर सिद्ध हो सके। मानसिक तनाव को ध्यान द्वारा और शारीरिक तनाव को शवासन, प्राणाकर्षण जैसे कृत्य अभ्यासों से नियन्त्रित किया जा सकता है।

वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाये गये हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिर दर्द, चक्कर आना, आँखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। ऐसे लोग प्रायः रोगों की उत्पत्ति के लिए कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को कभी परिस्थितियों आदि को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व मन दोनों के लिए हानिकारक है।

स्नायुविक तनाव विशेषज्ञ डा. एडमण्ड जैकबसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता, अल्सर कोलाइटिस आदि सामान्यतः दिखाई देने वाले रोग प्रकारान्तर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्नायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिन्ता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप ही पैदा होते हैं।

न्यूयार्क के एक हृदय-रोग विशेषज्ञ ने बताया है कि दूसरों पर दोषारोपण करने वाले, अत्यधिक भावुक एवं जल्दबाजी करने वाले लोग तनाव के अधिक शिकार होते हैं। मनोवैज्ञानिकों एवं अध्यात्मवेत्ताओं का कहना है कि तनाव की अधिकता मनुष्य की विचारधारा के कारण होती है। निषेधात्मक, निराशावादी संशयात्मक चिन्तन, दृष्टिकोण आदमी में तनाव की सृष्टि करते हैं और तनाव से मुक्ति व्यक्ति स्वयं ही पा सकता है।

‘‘लाइफ एक्सटेंशन फाउण्डेशन’’ नामक संस्था के संचालकों ने पता लगाया है कि व्यक्तियों में निराशा, असफलता, हार की भावना, निर्णय करने में द्विधा की स्थिति एवं चिन्ता आदि ही तनाव को जन्म देती है, एक कम्पनी के मेडीकल डायरेक्टर ने एक बार देखा कि उच्च पद आसीन लोग उत्तेजना की स्थिति में हैं। एक दिन कम्पनी के प्रेसीडेन्ट ने आकर उनको थका थका-सा तनावग्रस्त देखा तो मेडीकल डायरेक्टर के सुझावानुसार उन्हें तनाव कम करने के लिए छुट्टियां लेकर विश्राम करने हेतु कहा गया। कुछ दिनों बाद जब वे लोग विश्राम करके आये तो परीक्षण करने पर पहले से अधिक शान्त, प्रसन्न पाये गये। खूब मन लगाकर काम करने लगे। कम समय में अधिक काम किया जाने लगा। अधिक जिम्मेदारीपूर्ण कार्य सरलता पूर्वक करने में सक्षम हो गये।

सामान्यतः घरों में तनाव का कारण पति-पत्नि का आपसी तालमेल न बैठ पाना होता है। पत्नियाँ, पतियों को उकसाती उत्तेजित करती हैं और पति-पत्नियों को रसोई आदि के कार्यों के लिए तंग करते हैं। परस्पर सन्तुलन न हो पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रान्त हो जाते हैं फलतः पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर में सामंजस्य बैठाया जाय। प्रेम-आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनन्द का उपवन बन सकता है जो जरा से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। रहन-सहन में नियमितता लाने से, परस्पर स्नेह सद्भाव से तनाव की बीमारी से मुक्ति मिल सकती है।

तनाव से मुक्त रहने के लिए सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि- अपनी क्षमता भर अच्छे से अच्छा काम करें। इसमें बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिद्ध नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियन्त्रित एवं दूर कर सकता है। दूसरों का मार्ग-दर्शन थोड़ा बहुत उपयोगी हो सकता है। स्वाध्याय के द्वारा यह सहज ही पता चल जाता है कि निरर्थक एवं महत्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमन्त्रित कर लिया गया। वस्तुतः वह झाड़ी के भूत की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिये दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत् निष्ठापूर्वक सद्कार्यो में नियोजित किये रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाय, भविष्य के भय से भयभीत न हुआ जाय, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाय, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाय। वर्तमान में सामने आये काम को पूरी तत्परता से सम्पन्न किया जाय। उसी के सम्बन्ध में सोचा जाय, आशावान रहा जाय। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।

ब्लड प्रेशर (हृदय रोग) दिल का दौरा अब मध्यम वर्ग के लोगों में भी पनप रहा है। इसका मूल कारण है कि लोगों अधिक आराम का जीवन जीना चाहते हैं, परिश्रम से बचना चाहते हैं। आमदनी से अधिक खर्चे बढ़ाकर अधिक से अधिक चिन्ताओं का घेरा, मकड़ी के जाल की तरह बुन लेते हैं।

मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात भय, चिन्ता जो अंतर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी प्रफुल्लता छिन जाती है।

इससे रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी-कभी फट भी जाती हैं, परिणाम मस्तिष्क में लक्वा भी हो जाता है। अधिक दुःख में रक्त का दौरा बढ़ भी जाता है। और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रन्थियाँ भी खाली हो जाती हैं और क्लोम रस मिलना बन्द हो जाता है। यह ग्रन्थि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बन्द कर देती है और क्लोम रस देना भी बन्द कर देती है। क्लोम रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने, शोक करने से भी हो जाता है।

कैन्सर रोग पर हुये अनुसन्धानों से यह प्रकाश में आया है कि जब व्यक्ति का आहार, आचरण एवं व्यवहार दूषित तत्वों से भर जाता है, उसका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, वह तम्बाकू, शराब आदि विषैली चीजों के चंगुल में अपने को फँसा लेता है तो इस रोग का आरम्भ हो जाता है।

अमेरिका के ‘मार्थ वेस्ट रिसर्च फाउण्डेशन’ के प्रमुख अनुसन्धानकर्ता डा. बेर्नानरिले ने अपने प्रयोगों से पता लगाया है कि मनुष्य के जीवन में भय, तनाव व अत्यधिक चिन्ता इस रोग के प्रमुख कारण हैं।

अमेरिका के ही एक अन्य रिसर्च केन्द्र ‘हीलिंग आर्टस् सेन्टर’ ने कैन्सर रोग का प्रमुख कारण मन माना है। असफलता, पराजय, निराशा भय, परेशानी, चिन्ता, असन्तोष, वासना आदि से ग्रसित व्यक्ति बहुत जल्दी ही इस रोग से आक्रान्त हो जाता है।

सन् 1950 में प्रसिद्ध मनोचिकित्सक श्री लारेन्स ली शान ने कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के सामान्य लक्षणों को बताया है। उन्होंने इसके कारण भावनात्मक असन्तोष, निराशा, असफलता, हार, अशान्ति आदि बताये हैं।

कैरोलीन वीड थॉम्स ने 1946 से 1964 तक 18 वर्षों में इस संदर्भ में किये गये प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला है कि जो लोग चिन्ता, क्रोध, भय और तनाव से त्रस्त रहते हैं एवं जीवन में भावनाओं एवं वासनाओं की सन्तुष्टि नहीं कर पाते, अधिकांश वे ही लोग इस रोग से ग्रस्त होते देखे गये हैं।

‘टेक्साज हैल्थ साइंस सेन्टर’ की यूनिवर्सिटी के डा. जैनी एक्टर वर्ग ने भी कैन्सर का मुख्य कारण मानसिक तनावों को ही बताया है। उन्होंने इस रोग से त्राण पाने के लिये सर्वोत्तम उपाय रोगी की आत्म-शक्ति का संवर्धन बताया है।

मैक्सिको के डाक्टर अरनेस्टो कन्ट्रैराख ने बताया है कि इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में आहार-विहार सम्बन्धी सुधार किया जाय, बुरी आदतों को ठीक किया जाय, प्रेम, सुख व शान्ति की वृद्धि की जाय तो कैन्सर से मुक्ति पायी जा सकती है। उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति को ‘लेट्राइल चिकित्सा-प्रणाली’ का नाम दिया।

‘सभ्य’ कहलाने वाले पश्चिमी राष्ट्रों में लोग टाइपरटेंशन, कैंसर, कारोनरी अथेरोस्कलेरौसिस आदि ऐसे रोगों की संख्या में दिन दूनी व रात चौगुनी की दर से हो रही वृद्धि चिन्ता का मुख्य विषय है। मोटापा, मधुमेह, पेप्टिक अल्सर, कोलाइटिस, आर्थराइटिस, दमा आदि ऐसे रोग हैं जिनका मूल कारण विकृत मानसिक स्थिति और उसका स्वरूप ही है। विश्व के सभी बड़े-बड़े चिकित्सा शास्त्री व मनोरोग विशेषज्ञ इस बात को मानने लगे हैं कि 75 प्रतिशत रोगों का मूल कारण उद्वेगजन्य मनःस्थिति ही है।

‘इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस’ वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के डा. के. एन. उडुपा ने उद्वेगजन्य रोगों के कारणों व उनके निदान पर गहन अध्ययन के पश्चात् इस प्रकार के रोगों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया है।

(1) शारीरिक अवस्था- जब किसी व्यक्ति को मनोरोग होता है तो उस दशा में उसके किसी अंग विशेष पर विशेष प्रकार की क्रियाशीलता देखी जा सकती है। इस दशा के लिये उसके वातावरण एवं उसकी पैतृक रूप से विरासत में प्राप्त गुण जिम्मेदार होते हैं। किसी में अक्ल की वृद्धि तो किसी के हृदय की धड़कन में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है। इस दशा का निर्धारण रक्त में कासकालायाइन्स एड्रेनलिन और नार एड्रेनलिन की वृद्धि की जाँचकर किया जा सकता है।

(2) मनोदशा- इस स्थिति में व्यक्ति के मन में एक तीव्र आघात होता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति के स्वभाव में उद्विग्नता व चिड़चिड़ापन आ जाता है। किसी भी प्रकार की बात उसके लिए उद्विग्नता का कारण बन जाती है। बार-बार नींद टूटना व शिहरन व कंपकंपी आदि प्रकार के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इस स्थिति की जानकारी उक्त में न्यूरोट्रांसमीटर एसेटिलक्लोरिन के स्तर की नापकर लगायी जा सकती है।

(3) शारीरिक अंगों की दशा- इस स्थिति में आते-आते रोगी के शारीरिक व मानसिक लक्षणों की सक्रियता तो कम होती जाती है किन्तु धीरे-धीरे सम्बन्धित अंगों में स्थायी रूप से उसका प्रभाव पड़ने लगता है जैसे दाह, कमजोरी आदि के साथ-साथ पेप्टिक अल्सर, कारोनरी इन्सफिसिशेनर्स, ब्राकियल, अस्थमा आदि रोगों के लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगते हैं।

डा. उडुपा ने इस सम्बन्ध में गहन अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि आसन प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान-धारणा व शिथिलीकरण के अभ्यास विशेष लाभकारी हुए हैं। जप और ध्यान का मनोरोगों को दूर करने में विशेष महत्व सिद्ध करते हुए पाश्चात्य वैज्ञानिक वुजत्ती और राइडरर ने अपने संयुक्त शोध प्रयासों से स्नायु प्रणाली के स्राव व न्यूरोट्रांसमीटर की जाँच के बाद यह सिद्ध कर दिया कि दो वर्ष से जप कर रहे 11 व्यक्तियों में मानसिक तनाव व तनावजनित रोग लगभग न्यून हो गये, जबकि 13 बिना जप कर रहे व्यक्तियों पर जब प्रयोग करके देखा गया तो पाया कि उनमें मानसिक तनाव व उससे उत्पन्न होने वाले रोगों में किसी प्रकार की कमी नहीं हुई थी।


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