अपनों से अपनी बात- गंगा अवतरण के त्रिवेणी संगम में परिणित होने का पुण्य पर्व

May 1981

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चिर पुरातन में मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक सभी चिन्तन एवं व्यवहार एक ही निर्धारण के अंतर्गत समाहित होते थे। उस निर्धारण का नाम था- धर्म। उन दिनों अनुशासन और निर्धारण एक ही तन्त्र के अंतर्गत होता था। पुरोहित और शासक या तो एक ही होते थे या दोनों मिल-जुलकर व्यवस्था बनाने और चलाने की संयुक्त जिम्मेदारी उठाते थे। उन दिनों स्वास्थ्य, शिक्षा, उपार्जन, परम्परा, सुरक्षा जैसे विभाग पृथक-पृथक नहीं थे। एक ही धर्म व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति और समाज की समस्त आवश्यकताओं और गतिविधियों का संचालन नियमन एक ही तन्त्र के अंतर्गत भली प्रकार होता रहता था। जीवन-क्रम सीधा-सादा था। आज जैसे विस्तृत और बिखरा कहाँ था, इसलिए एक निर्धारण के अंतर्गत सब कुछ चलते रहने में कोई कठिनाई भी नहीं होती थी।

आज की स्थिति भिन्न है। हर क्षेत्र का विस्तार हुआ है, फलतः सोचने और करने के प्रसंग भी क्रमशः बढ़ते चले गये हैं। अब धर्म और शासन को एक नहीं दो रूपों में विभाजित होकर रहना पड़ रहा है। दोनों मिल-जुलकर काम करें, इतना ही सम्भव है। उन्हें मिला-जुलाकर एक नहीं किया जा सकता। सत्य और अहिंसा के आधार पर दुष्टता से सुरक्षा का समाधान इन दिनों अति कठिन है। प्राचीन काल की परिस्थितियों में ही वे साथ-साथ निभ सकी होंगी। अध्यात्म और विज्ञान के क्षेत्र भी अब पृथक हो गये हैं। अध्यात्म विचारणाओं और भावनाओं की समस्याएँ सुलझाता है तो विज्ञान को शक्ति और सुविधा के क्षेत्र में अपने प्रयासों को सीमित रखना पड़ता है। दोनों के सहयोग की तो गुंजाइश है, पर उनका समन्वय तभी हो सकता है जब प्राचीन काल का सतयुग फिर यथावत् वापिस लौट आये।

शासन में कार्यपालिका और न्यायपालिका के सीमा क्षेत्रों का विभाजन हो गया है। इतना ही नहीं, कई-कई मिनिस्ट्री बनती हैं और प्रान्तों पंचायतों की अपनी-अपनी सीमाएँ निर्धारित होती हैं। यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी है। उसके दार्शनिक पक्ष को अध्यात्म और व्यवहार पक्ष को चरित्र कहा जाता है। अति पुरातन में यह विभाजन नहीं थे। तब ब्रह्मविद्या का तत्व चिन्तन और साधना उपक्रम के योग-तप भी आज की तरह विभाजित नहीं थे। इस विभाजन में विग्रह ढूंढ़ना व्यर्थ है। वस्तुतः क्षेत्र विस्तार होने पर खेत में क्यारियाँ बनाने की तरह व्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से इस प्रकार के विकेंद्रीकरण की आवश्यकता अनिवार्य होकर सामने आ खड़ी होती है। नये परिवार का आरम्भ करते समय पति-पत्नि दो ही होते हैं और छोटे बच्चे भी साथ-साथ लिपटे रहते हैं। पर जब कुटुम्ब बढ़ता है, बेटे-पोते वयस्क होते हैं, बन्धुओं और जामाताओं की अच्छी खासी भीड़ जमने लगती है, तो विशालकाय परिवारों का संयुक्त रहना सुविधा का नहीं, अव्यवस्था का कारण बनता है। तब उस समुदाय को छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित होना पड़ता है। इतने पर भी उनके बीच स्नेह, सौमनस्य बना रहता है। विस्तार के साथ विभाजन की नीति भी अपनानी पड़ती है। इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। शरीर के हर अवयव का काम पृथक् है, सभी की अपनी क्षमता और सीमा है। इतने पर भी वे अनुशासन के अंतर्गत मिल-जुलकर काम करते हैं। ऐसी दशा में वे विग्रह खड़े होते जिन्हें आपा-धापी उत्पन्न करती है। विभाजन और समन्वय से सुविधा ही रहती है कठिनाई बढ़ने की समस्या वहाँ आती है जहाँ संकीर्ण स्वार्थपरता पनपती है और स्वेच्छाचारिता को राह मिलती है।

लोकमानस को परिष्कृत करने के उद्देश्य को लेकर आज 45 वर्ष पूर्व छोटा-सा शुभारम्भ ‘अखण्ड-ज्योति’ के नाम से हुआ था। कार्य विस्तार के साथ-साथ उसे गायत्री तपोभूमि, युग-निर्माण योजना, शान्ति-कुंज, ब्रह्मवर्चस्, गायत्री नगर के रूप में विकसित करना पड़ा। इतने से भी काम नहीं चला तो अब 2400 प्रज्ञापीठों के सहारे उसे व्यापक बनाया जा रहा है। यह संख्या सिकुड़ने वाली नहीं है, क्रमशः विस्तार ही होता चलेगा। यह विग्रह या विभाजन नहीं विस्तृतीकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसे देखकर असमंजस व्यक्त करने का कोई कारण नहीं। वैभव वृद्धि की तरह इसे सराहा ही जाना चाहिए।

यहाँ विस्तार और विभाजन की चर्चा इस प्रसंग में की जा रही है कि अब से 45 वर्ष पूर्व ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका के माध्यम से जो दीपक जलाया गया था वह चिरकाल तक सामयिक आवश्यकता के अनुरूप अपना कार्य यथावत् सम्पन्न करता रहा। इतने पर भी नये-नये कमरे बन जाने पर एक दीपक की गरिमा को शत-शत नमन करते हुये भी नये दीपक जलाने की आवश्यकता पड़ेगी। छोटे बच्चे को भोजन वस्त्र और खिलौने देकर भली-भाँति संतुष्ट रखा जा सकता है, पर जब वह बढ़ता है तो शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाज संपर्क के कतिपय नये साधनों की माँग करता है। समय की माँग और परिजनों की मनःस्थिति दोनों का ही सामयिक एवं सराहनीय विकास हुआ है, तद्नुरूप नये-नये उपकरण जुटाने और नई-नई आवश्यकताओं की पूर्ति का ताना-बाना बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। किसी दिन उत्पन्न हुए बालक को गोदी में खिलाने भर से काम चल जाता था, पर अब तो उसके विवाह की, अलग कमरा बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। इस विभाजन में असमंजस जैसी कोई बात है नहीं। यह प्रसन्नता का ही अवसर है।

अब से 45 वर्ष पूर्व तत्कालीन आवश्यकता एवं परिस्थिति के अनुरूप अकेली ‘अखण्ड-ज्योति’ से ही भली प्रकार काम चल जाता था- चलता भी रहा है। पर अब बात वैसी नहीं है। मिशन अब बचपन से आगे निकल कर प्रौढ़ता की परिधि में जा पहुँचा है और उसे परामर्श से लेकर साधनों तक की इतनी अधिक आवश्यकता पड़ती है जितनी कि बचपन वाले दिनों में कभी सोची भी नहीं गई थी। अस्तु, मिशन का प्रतिपादन तन्त्र अब तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है। अनादि काल में अकेली गंगा ही स्वर्ग से धरती पर उतरी थी। पीछे यमुना और सरस्वती भी आईं और इसी प्रधान धारा में घुल जाने की नीति अपनाकर त्रिवेणी संगम की तरह प्रख्यात हुईं। अकेला गंगा स्नान भी यों अभी भी अपनी एकाकी गरिमा बनाये हुये है, पर त्रिवेणी संगम का महत्व तो और भी अधिक है।

इन दिनों मिशन की तीन पत्रिकाएँ निकल रही हैं। इन तीनों को अपने-अपने क्षेत्र का उत्तरदायित्व सम्भालने में निरत रहते देखा जा सकता है। ‘अखण्ड-ज्योति’ के अतिरिक्त अब दूसरी ‘‘युग निर्माण योजना मासिक’’ और तीसरी ‘‘प्रज्ञा अभियान मासिक’’ भी प्रकाशित होने लगी है। इन तीनों के तीन कार्य क्षेत्र विभाजित कर दिये गये हैं- 1. ‘अखण्ड-ज्योति’ मनुष्य में देवत्व के उदय का, विश्व मानव के भावनात्मक परिष्कार का, आत्मोत्कर्ष का ताना-बाना बुनती और तद्नुरूप प्रतिपादन प्रस्तुत करती रहेगी। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करने की यज्ञोपैथी जैसे अभिनव आविष्कारों से जन-साधारण को लाभान्वित करने की जिम्मेदारी इसी की है। ब्रह्मवर्चस् के अनुसंधान और पर्यवेक्षण का निष्कर्ष युग मनीषा तक पहुँचाने का भारी भरकम काम उसी का है। विश्वास किया जाना चाहिए कि अन्य पक्षों का भार दूसरी सहेलियों, प्रौढ़-पुत्रियों द्वारा सम्भाल लिए जाने के कारण वह अपने सीमित प्रयोजन को असीम तत्परता के साथ और भी अधिक तरह सम्पन्न कर सकेगी। दूसरी पत्रिका ‘‘युग निर्माण योजना’’ को धरती पर स्वर्ग का अवतरण की दिशा धारा, कार्य पद्धति एवं सम्भावना को सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया है। युग भौतिकता प्रधान है। हर समाधान के लिए भौतिक उपाय उपचारों की, साधनों-निर्धारणों की बात सोची जाती है। जितनी निर्भरता बढ़ रही है- उसमें अत्युत्साह और अतिवाद है फिर भी उस क्षेत्र को न तो महत्वहीन समझा जा सकता है और न उपेक्षित रखा जा सकता है। भौतिक प्रगति तो हो, पर उसका उपयोग विलास विग्रह के लिए न होकर सतयुगी स्वर्गीय परिस्थितियों के सम्वर्धन में नियोजित होने लगे तो पुरुषार्थ एवं कौशल को कृत-कृत्य होने का अवसर मिल सकता है। यह सब किस तरह सम्पन्न हो इसकी दूरदर्शिता और सदाशयता से भरा-पूरा निर्धारण युग निर्माण पत्रिका के पृष्ठों पर मिला करेगा।

इन दिनों प्रगति का सारा श्रेय या दोष शासन के कन्धों पर लद जाता है। जन-मानस अपने को असहाय जैसी स्थिति में अनुभव करता है। जो होना चाहिए उसके लिए सरकार का मुँह ताकता है। इस दयनीय स्थिति को प्रकारान्तर से भाव क्षेत्र की पराधीनता और व्यक्तित्व की प्रखरता के सम्मुख प्रस्तुत चुनौती कहा जा सकता है। व्यक्ति अपने आप में एक प्रखरता सम्पन्न ईकाई है। उसकी तुलना भौतिक सामर्थ्य से भरे-पूरे परमाणु से की जा सकती है। व्यक्ति की निजी क्षमता का सम्वर्धन और सुनियोजित यदि सम्भव हो सके तो वैयक्तिक एवं सामूहिक प्रगति के नये स्त्रोत खुल सकते हैं और शासन पर समस्याओं का लदा हुआ बोझ कुछ हल्का हो सकता है।

इसी प्रकार व्यक्ति और शासन के मध्य एक और तन्त्र विकसित होने की पूरी-पूरी गुंजाइश है- वह है सरकारी सेवा संगठनों का युग समस्याओं से निपटने के लिये महा प्रयास। सरकार अफसरों के सहारे, टैक्सों के सहारे जो सामर्थ्य उत्पन्न करती है। उसीसे मिलती-जुलती क्षमता जन भावना में, सदाशयता की पक्षधर सद्भावना उभारने और स्वेच्छा अनुदान से सृजनात्मक प्रयोजनों को अनुगामी बनाने का कार्य भली प्रकार सम्पन्न हो सकता है। युग निर्माण पत्रिका इस अविज्ञात अथवा उपेक्षित क्षेत्र को अपने हाथ में लेगी और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के भौतिक प्रयत्नों का व्यावहारिक प्रतिपादन प्रस्तुत करेगी।

पंचवर्षीय योजनाएँ, शासन तन्त्र ओर घोषित बजट के आधार पर बनती हैं। अब ऐसी नई पंचवर्षीय या एक वर्षीय योजनाएँ बननी और क्रियान्वित होनी चाहिए जो वैभव एवं पराक्रम की प्रस्तुत क्षमता को न केवल बढ़ाने का वरन् उसके सदुपयोग का ताना-बाना भी बुनती चले।

कहना न होगा कि ‘‘युग निर्माण योजना’’ के पृष्ठों पर प्रतिपादन अगले दिनों समय की इसी माँग को पूरा करने में अद्भुत एवं अभूतपूर्ण भूमिका सम्पन्न करेगा। उसके प्रस्तुतीकरण इतने पैने- इतने सही होंगे कि समाजवाद, प्रजातन्त्र, नागरिक-शास्त्र, समाज-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र आदि कि तरह सर्व साधारण के गले उतरेंगे। इतना ही नहीं वे इसलिए भी क्रियान्वित होंगे कि उज्ज्वल भविष्य का और कोई विकल्प है नहीं। ‘अखण्ड-ज्योति’ एवं ‘युग निर्माण योजना’ के सम्बन्ध में फिर एक बार इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि मिशन के दोनों संकल्पों को पूरा करने के लिए चिन्तन एवं व्यवहार का समग्र ढाँचा खड़ा करें और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए प्रतिभाओं को उभारने तथा साधन जुटाने का उत्तरदायित्व वहन करें। दोनों संकल्प सर्वविदित हैं (1) ‘‘मनुष्य में देवत्व का उदय’’ अर्थात् व्यक्तित्वों का आदर्शवादी निर्माण (2) ‘‘धरती पर स्वर्ग का अवतरण’’ अर्थात् क्षमताओं और सम्पदाओं का मात्र सत्प्रयोजनों के लिये नियोजन।

मनीषा ने अभी तक इस संदर्भ में गम्भीरतापूर्वक सोचा नहीं तो कोई मार्ग भी नहीं निकला। अब जबकि इस उपेक्षित पक्ष को उभारने, निखारने की बात हाथ में ली गई है तो इस अन्वेषण आविष्कारों के युग में उसका मार्ग भी निकल कर ही रहेगा। ‘अध्यात्म’ अर्थात् ‘देव विज्ञान’ अर्थात् ‘दैत्य’। दोनों के सहयोग से कभी समुद्र मंथन हुआ था और चौदह रत्न निकले थे। अखण्ड-ज्योति और युग निर्माण को दोनों पक्षों को नेतृत्व करने की बात कही गई है। वे बृहस्पति और शुक्राचार्य भूमिका को सृजनात्मक प्रयोजन के लिए नियोजित करेंगे तो फिर नया समुद्र मंथन होगा और व्यक्ति की श्रद्धा-सम्वेदना से लेकर समाज की प्रथा परम्परा के हर क्षेत्र में सतयुगी सम्भावनाओं का दर्शन होने में देर न लगेगी।

तीसरी पत्रिका है- ‘प्रज्ञा अभियान’। उसका विशय है इस पुण्य प्रयोजन में निरत युग-शिल्पी समुदाय का मार्ग-दर्शन। महाकाल की प्रबल प्रेरणाएँ ही कही जानी चाहिए कि नव-सृजन के लिए एक भाव-भरा सेवा सम्प्रदाय उबले दूध पर अनायास ही मलाई उभर पड़ने की तरह कार्य क्षेत्र में आ खड़ा हुआ है। अगले दिनों युग-निर्माण की व्यापक, समग्र एवं सफल भूमिका निभाने के लिये अनेकानेक प्रतिभाओं को कार्यरत होना पड़ेगा। किन्तु आरम्भ में अग्रगामी तो सदा से थोड़े ही व्यक्ति सामने आये हैं। मात्र निकृष्टता हो ही समर्थन नहीं मिलता। प्रखरता सम्पन्न सदाशयता भी अपने अनुयायी और सहयोगी उपार्जित करने में सफल होती है। बुद्ध का धर्मचक्र, प्रवर्त्तन और गाँधी का स्वतन्त्रता आन्दोलन इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रज्ञा अभियान की भावी भूमिका को भी इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। और इसी श्रेणी में गिना जा सकता है।

एक लाख के लगभग युग-शिल्पियों और चौबीस सौ के करीब प्रज्ञा संस्थानों के माध्यम से जिस नव-निर्माण की प्रक्रिया को इन दिनों सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में जुटाया गया है, वह एक बहुत बड़ा काम है। सामयिक परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के उतार-चढ़ावों का ध्यान रखते हुए इस आन्दोलन का संचालन एक अभूतपूर्व एवं अनभ्यस्त युद्ध कौशल है। इसकी रणनीति का निर्धारण ही नहीं, उसका सुनियोजित ढंग से क्रियान्वित होते रहना भी एक बड़ा काम है। इस सूत्र संचालन का कार्य भार प्रज्ञा पत्रिका के हाथों सुपुर्द किया जा रहा है। यह सरंजाम न जुटाया जाता तो अपने युग के इस अभूतपूर्व सृजन अभियान से भटकाव का निहित स्वार्थों द्वारा कब्जा जमा लेने का खतरा कभी भी प्रत्यक्ष हो सकता है और सारे किये कराये पर पानी फिर सकता है।

अखण्ड-ज्योति एवं युग-निर्माण की तरह तीसरी पत्रिका प्रज्ञा-अभियान की भी अपनी महत्ता है। इन तीनों के मिलने से सरस्वती, लक्ष्मी, काली जैसा त्रिवेणी संगम बनता है और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का सुनिश्चित द्वार खुलता है।

युग संधि के द्वितीय वर्ष में सन् 81 में तीनों पत्रिकाएँ नये निर्माण का उत्तरदायित्व वहन करने के लिए नये साहस के साथ खड़ी हो रही हैं। तीनों को मिलाकर ही उस युग शक्ति का प्रकटीकरण होता है। जिसे आरम्भ में गायत्री कहा गया था और आज उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से विश्व-व्यापी एवं विवाद रहित बनाया जा रहा है।

अखण्ड-ज्योति में ‘अपनों से अपनी बात’ स्तम्भ छपता था। अब उसका समय की आवश्यकता के अनुरूप विस्तार किया गया है और ‘प्रज्ञा-अभियान’ के नाम से स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित करते रहने का निश्चय किया गया है। उसके जनवरी, फरवरी, मार्च, अप्रैल, 1981 के अंकों में युग सन्धि के द्वितीय वर्ष में क्रियान्वित होने वाले ‘सप्त सूत्री कार्यक्रम’ की प्रधान रूप से चर्चा है। किन्तु मई से उसमें वह सामग्री चल पड़ेगी जिसे प्रज्ञा परिजनों के आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण के निमित्त किये गये मार्ग-दर्शन की तरह समझा जा सकता है।

प्रज्ञा-अभियान पत्रिका का वार्षिक चन्दा छः रुपये और युग-निर्माण पत्रिका का आठ रुपया है। दोनों ही हिन्दी मासिक हैं और युग-निर्माण योजना मथुरा के तत्वावधान में प्रकाशित होती हैं। अखण्ड-ज्योति परिजनों से अनुरोध है कि वे जिस प्रकार ‘अखण्ड-ज्योति’ के साथ आत्मीयता जोड़े रहे हैं, उसी प्रकार इन दिनों नये प्रकाशनों को भी अपनाने का प्रयत्न करें। यह चौदह रुपये की राशि और भी खर्च की जानी चाहिए। आयुष्य बढ़ने से- वैभव एवं उत्तरदायित्व के विस्तार से कुछ नया भार तो बढ़ता ही है। यह चौदह रुपये के भार विस्तार को समय की आवश्यकता समझें और जहाँ-तहाँ से कटौती कर उसको वहन करने का साहस करें।

जहाँ स्वयं तीनों पत्रिकाएँ मँगा सकना सम्भव न हो, वहाँ यह किया जाय कि अपने अन्य मित्रों को इनका सदस्य बना दिया जाय और परस्पर मिल-जुलकर तीनों को पढ़ने-पढ़ाने का उपक्रम बनाया जाय। तीनों परस्पर पूरक होने के कारण उन सभी को पढ़ना इन दिनों एक प्रकार से नितान्त आवश्यक है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि कोई प्रज्ञा परिजन एक पत्रिका को पढ़ कर सन्तोष न करें, वरन् अन्न, जल और वायु की तरह इन्हें अविच्छिन्न अंग मानने की तत्परता बरतें।


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