शत्रुता जब हार गयी

May 1981

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कटक में उन दिनों जोरों से हैजा फैला हुआ था। उड़िया बाजार में इसका सबसे अधिक जोर था। हैजा जैसे रोग से ग्रस्त व्यक्ति की देखभाल करने में उसके सम्बन्धी कतराते थे। कहीं यह रोग उन्हें भी न लग जाए, इस डर से वे रोगी को अपने भाग्य पर छोड़ देते थे पर इतनी मात्र सतर्कता से यह रोग कहाँ पीछा छोड़ने वाला था। बीसियों लोगों को बुरी तरह मरते देख कुछ किशोर बच्चों का हृदय पसीजा और उन्होंने रोगियों की देखभाल के लिये दल बनाये। ये दल रोग पीड़ित इलाकों में जाते, वहाँ सफाई वगैरा का प्रबन्ध करते तथा बीमारों को दवा आदि बाँटते। इन किशोरों के अग्रणी नेता थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस। वे भी उन दिनों इसी आयु के थे।

उनके नेतृत्व में सेवा दल के सदस्य रोग पीड़ितों की देखभाल करने उन्हें दवादारू और पथ्य बाँटते तथा घर-घर में कुशल समाचार पूछते। लेकिन यह काम उसी मोहल्ले में रहने वाले एक गुण्डे को अच्छा नहीं लगा। नाम था उसका हैदर खाँ। उसे मालूम हुआ कि सेवा दल के सदस्य किशोर बाबू पाड़ा के रहने वाले हैं और उस मोहल्ले में अधिकाँशतः वकील रहते हैं, जिनके कारण उसे कई बार जेल जाना पड़ा था। इसीलिये वह बाबू पाड़ा में रहने वालों को अपना दुश्मन समझने लगता था और इन किशोरों को भी शत्रुता के भाव से देखता था।

हैदर खाँ ने मोहल्ले वालों को भड़काना शुरू किया कि ये सब धनियों के लड़के हैं और इन्हें अपने मोहल्ले में नहीं आने देना चाहिए। उड़िया बाजार के लोग हैदर खाँ के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे इसलिये उन्होंने उसकी यह बात अनुचित होते हुये भी मान लेने में ही भलाई समझी और सेवा दल के सदस्यों से कोई सहायता लेने से इनकार करने लगे। दल के स्वयं सेवकों को भी यह बात पता लगी और वे मोहल्ले वालों की बात का बुरा न मानकर अपना काम चुपचाप करते रहे।

संयोग की बात। हैदर द्वारा लड़कों को धमकाये जाने के दिन से मुश्किल एक सप्ताह भी नहीं बीता कि उसी के लड़के को हैजा हो गया। वह डाक्टर की तलाश में इधर से उधर न जाने कहाँ-कहाँ भटका, परन्तु सभी डॉक्टर किसी न किसी रोगी की चिकित्सा में व्यस्त थे।

निराश होकर जब वह वापिस अपने घर आया तो उसने देखा कि वे ही लड़के जिनको उसने पाँच-सात दिन पहले इस मोहल्ले में आने से डाँटा था, उसके घर की सफाई में लगे हुये हैं। एक किशोर उसके पुत्र द्वारा की हुई उल्टी साफ कर रहा है और दूसरा उसे दवा दे रहा था।

यह दृश्य देखकर हैदर स्तब्ध खड़ा रह गया। उसके भीतर का गुण्डापन पिघलने लगा और आँखों की राह बहने की वाला था, कि बोला- ‘यह क्या लड़को?’ मैंने तो तुम्हें कुछ दिन पहले डाँटा था। तुम्हें उसका बुरा नहीं लगा। तुम डरे नहीं? तुमने सोचा नहीं कि मैं तुम्हारा शत्रु हूँ और तुम्हें फूटी आँख भी देखना पसन्द नहीं करता?’

सुभाष बाबू जो हैदर के बेटे को दवा दे रहे थे, बोले- ‘इन सब बातों पर सोचने का हमें समय ही नहीं मिला। हम तो अपने भाई की सेवा में लगे हैं। देखते नहीं हो यह कितनी पीड़ा भोग रहा है? ये सवाल पूछने के बजाय बेहतर है कि हमारी मदद करो।’

हैदर को आशा भी नहीं थी कि उसे यह उत्तर मिलेगा। वह तो समझ रहा था कि लड़कों को पता नहीं है कि यह मेरा घर है और वे भूल से यहाँ चले आये हैं। पर यह तो अब पता चला कि उन्होंने उसकी बातों को जरा भी गम्भीरता से नहीं लिया था, उसका हृदय पश्चाताप से भर उठा और वह बोला, ‘मुझे माफ करना बच्चो!’

हैदर का लड़का सुभाष बाबू के दल की परिचर्या से थोड़े ही समय में स्वस्थ हो गया और कहना नहीं होगा कि हैदर की जीवन दिशा ही बदल गई।


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