सच्चिदानन्द स्वरूप-अन्तरात्मा

May 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परमात्मा को सच्चिदानन्द स्वरूप कहा गया है। विराट का ही एक अंश होने से जीवात्मा भी उन्हीं गुणों से सुशोभित है। सत्, चित्, आनन्द ये तीनों मिलकर कारण शरीर का ढाँचा बनाते हैं। सत् अर्थात् शाश्वत, अजर, अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्च स्तरीय आदर्शों आस्थाओं से युक्त। आनन्द अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त अन्तःकरण। आशा, उत्साह, सन्तोष के परस्पर समन्वय पर आधारित जीवन क्रम। आत्मा का सहज स्वभाव है ऊँचा उठना, अपने विराट स्वरूप की स्वयं को प्रतिमूर्ति बनाने के लिए इन्हीं गुणों से स्वयं को समृद्ध करना तथा अंततः समस्त आवरणों को हटाते हुये अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करना। परिष्कृत जीवात्मा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आध्यात्मिक पुरुषार्थ करती है एवं जीव-ब्रह्म सम्मिलन से निसृत परमानन्द की स्थिति को प्राप्त करती है।

इस आत्म-गरिमा से अपरिचित मनुष्य भटकता है। यह विस्मृति अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती है। इन्हें ही माया का आवरण, मनुष्य का विभ्रम कहा जा सकता है। ये ही रोग शोकों के रूप में अंततः बाहर प्रकट होते हैं।

सच्चिदानन्द का पहला चरण है सत्। ‘सत्’ मनुष्य को जीवन के क्षणभंगुर होने का बोध कराता है। हम अजर अमर अविकारी हैं। पंचतत्त्वों से बनी इस काया के बिखर जाने पर भी हमारी सत्ता बनी ही रहेगी। यह बोध बना रहे तो भटकाव से बचा रहा जा सकता है। पर कायिक इन्द्रियों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि वह बहिर्जगत को देखती और जड़-पदार्थों के प्रति सहज ही आकर्षित हो जाती है। सत् की अनुभूति व्यक्ति को यह विचार करने पर विवश करती है कि यह शरीर मरणधर्मा है। परन्तु आत्मा कभी नष्ट नहीं होती है। वह तो एक सतत प्रवाह है। आत्मा का स्वास्थ्य ही मनुष्य की सारी सफलताओं का प्राण है। यह तभी सम्भव है, जब मानव अपने वर्तमान जीवन को श्रेष्ठ, उदार तथा उदात्त भावनाओं से युक्त करने का प्रयास करता है।

सत् में आस्था रखने वाला व्यक्ति सृष्टि को चलाने वाली बुद्धिमान, उद्देश्य पूर्ण व्यवस्था में दृढ़ विश्वास रखता है। वह जानता है कि विधि-विधानों, नियमों के अनुरूप चलाने वाली इस सृष्टि की व्यवस्था में किसी तरह की अनुशासन हीनता, अनियन्त्रण, अदूरदर्शिता का स्थान नहीं है। कर्मफल से पूर्णतः अवगत यह व्यक्ति अपनी समस्त गतिविधियों का निर्धारण सुघढ़ता पूर्वक करता है। वह जानता है कि आत्मा कभी नहीं बदलती। बदलता है तो यह चोला है। फिर उसके लिये व्यर्थ मोह क्यों करना अनावश्यक संग्रह एवं उपभोगों में स्वयं को लीन करना इस सृष्टि के मुकुटमणि मानव के लिये कतई शोभनीय नहीं है। ऐसा चिन्तन प्रखर होने पर स्वयं को ऊँचा उठा हुआ पाता है। आत्मिक प्रगति के विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ अपने लक्ष्य तक जा पहुँचता है।

आत्मा की दूसरी विशेषता है ‘चित्’। उच्चस्तरीय आस्थाओं, मान्यताओं एवं आदर्शों से युक्त व्यक्ति ‘चित’ परायण कहलाता है। चित् अर्थात् स्वयं के विषय में उत्कृष्टता पूर्ण मान्यता, अपने लक्ष्य के प्रति चेतनता, सजगता। ये वे निष्ठाएँ हैं, जो मनुष्य की जीवनयात्रा की रूप रेखा बनाती हैं। देवतत्व में आस्था, आदर्शवादी उत्कृष्टता में अटूट विश्वास, सुपर सत्ता के प्रति समर्पणभाव ‘चित्’ के परिष्कृत स्वरूप हैं।

‘चित’ एक गुण है जो परिष्कृत स्वरूप में व्यक्ति को महामानव बना देता है। पर जब यही विकृति की ओर अग्रसर हो जाता है, तो अनेकानेक समस्याओं, मानसिक असंतुलनों एवं शारीरिक संतापों को जन्म देता है। आदर्शवादिता से निष्ठा हटते ही पतन तेजी से होता है। दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण स्वयं के विषय में मान्यताएँ गरिमायुक्त नहीं रहतीं। श्रेष्ठ चिन्तन का अभाव एवं उत्कृष्टता के प्रति अनास्था अन्ततः उद्दंडता को जन्म देती है। विकृत चिन्तन से सद्विचारों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सिद्धांतों के प्रति, अपनी दिव्यताओं के प्रति अनास्था मनुष्य को एकांगी स्वार्थी एवं अहंकारी बनाती है।

आवेश तथा जल्दबाजी के कारण व्यक्ति को जो भौतिक दृष्टि से हानि होती है, वह अविज्ञात नहीं है। परन्तु वह व्यक्ति स्वयं इस तथ्य से अनजान बना रहता है कि यह उद्धत आचरण उलट कर उस पर ही हमला करेगा। मानसिक तनाव और उससे होने वाली समस्त मनोशारीरिक व्याधियाँ ऐसे व्यक्तियों को होती हैं, जो स्वयं उच्छृंखल हैं, उसके अंग, अवयव, ऊतक भी क्योंकर किसी का कहा मानेंगे। आवेश, क्रोध से होने वाला स्राव समस्त शरीर संस्थाओं के परस्पर संतुलन को गड़बड़ा देता है। इसके विपरीत स्वयं की गरिमा व महत्ता में चित् की विशिष्टता में, आदर्शों के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति आत्मिक दृष्टि से तो सम्पन्न होता है ही, मानसिक संतुलन व सम-स्वरता तथा शरीरगत सुव्यवस्था भी उसकी एक बहुमूल्य अर्जित संपत्ति है?

सच्चिदानन्द आत्मा का तीसरा और अन्तिम पक्ष है ‘आनन्द’। इसके बिना आत्मा की परिपूर्ण व्याख्या सम्भव नहीं। जीवात्मा का लक्ष्य ही आनन्द है। इसे परिष्कृत भाषा में कहा गया है ‘‘रसो वै सः’’ -वह परमात्मा रस से आनन्द से परिपूर्ण है। इस रस को प्राप्त करने के लिये विभिन्न मार्गों से साधक पुरुषार्थ करता है एवं सन्तोष का आनंद लेता है। इस रस का अन्तरंग पक्ष है भाव-संवेदनाओं से लबालब अंतःकरण। करुणा, दया, सेवा भावना, भक्ति-भाव रस के परिष्कृत स्वरूप हैं। जब इनका विकास सहज स्वाभाविक रूप से होता है, तो ये व्यक्ति को भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठाते हैं। ऐसे महामानव विश्व मानवता की सेवार्थ अपने जीवन की आहुति दे देते हैं। इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला आनन्द क्षणिक है, ऐसी मान्यता रखने वाले ये महापुरुष अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग उच्च उद्देश्यों की ओर नियोजित करने में करते हैं।

चेतना पर काया, काम, क्रोध, लोभ, मोह-मत्सर के जो आवरण पड़े हैं, उनके कारण जीव इस उद्गम स्त्रोत तक नहीं पहुँच पाता। प्यास निरन्तर बनी रहती है। कस्तूरी अपनी नाभि में लिये हिरन जिस प्रकार सुगन्ध की खोज में चारों ओर मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव आनन्द की खोज में विविध योजनाएँ बनाता, कल्पना करता एवं अथक प्रयत्न करता है। यह पुरुषार्थ असफल, असमाधान कारक ही होता है। अन्तःकरण की गहन परतों में छिपे आनन्द के स्त्रोत की खोज बाह्य जगत में चलने के कारण भटकाव, थकान, अशांति, निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता।

आनन्द की मिठास और भी गहन है। इसकी विकृति वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में बाहर परिलक्षित होती है। आनन्द की प्रतिच्छाया होने के कारण वासना आकर्षक एवं लुभावनी लगती है। विषयों के सेवन में मन लगने लगता है तो व्यक्ति विलासी, प्रमादी, आलसी होता चला जाता है। जिह्वा का असंयम, कामेन्द्रियों का उपभोग, संग्रह का लोभ अनेकानेक मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों को जन्म देता है।

विषयों के सेवन में जब इतनी तृप्ति और तुष्टि मनुष्य को मिलती है तो उसके मूल स्त्रोत में कितनी मिठास होगी, इसकी कल्पना मात्र से ही हृदय पुलकित हो उठता है। भगवान रसमय है। इस रस को आत्म-सत्ता के रूप में ईश्वर ने मनुष्य हो धरोहर बनाकर दिया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। इसे अन्तःकरण के उल्लास, सन्तोष, शान्ति जैसी दिव्य संवेदनाओं के रूप में अनुभव किया जाता है। भक्तिरस की धाराएँ ऐसे ही अंतःकरण में बहती हैं। ये ही कभी मीरा, कभी चैतन्य एवं कभी रामकृष्ण परमहंस जैसी विभूतियों के रूप में प्रकट होती हैं। सुपरसत्ता- परब्रह्म से मिलन संयोग की स्थिति ऐसी ही जागृति पर आती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118