स्वस्थ मन-स्वस्थ शरीर

May 1981

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प्लेटो ने कहा था कि- ‘‘आत्मोपचार की अवहेलना करके शरीर के उपचार का कभी प्रयास नहीं किया जाना चाहिये।’’ स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनेक शब्दों की उत्पत्ति चिकित्सा और अध्यात्म दोनों ही से हुई है। अंग्रेजों में इसे ‘हैल्थ’ कहते हैं जो ग्रीक शब्द ‘हील्थ’ का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है पूर्णता, समग्रता, अक्षुणता। इसी हील्थ शब्द से अँग्रेजी का ‘होली’ शब्द निकला है अर्थात् पवित्रता। होली व्यक्ति ने केवल पवित्र होता है वरन् वह ‘होल’ अर्थात् पूर्ण पुरुष होता है। इस सबका आशय यह है कि अध्यात्मवादी एवं पवित्र आदमी वही है जो पूर्ण है और पूर्ण वही है जो समग्र रूप से स्वस्थ है। इस प्रकार स्वास्थ्य और अध्यात्म एक-दूसरे के साझीदार हैं, न केवल साझीदार अपितु एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं।

ईसाई धर्म में प्रारम्भिक दिनों में चर्च ही अस्पताल हुआ करते थे, जहाँ आत्मा, मन व शरीर तीनों ही का उपचार हुआ करते था। जिसकी आत्मा शुद्ध है, निष्पाप है उसका मन एवं शरीर कैसे विकृत, चिन्तन तथा असन्तुलन की ओर बढ़ सकता है। ‘प्रायश्चित प्रक्रिया’ (कन्फेशन) के रूप में यह चर्च संस्था चिकित्सा का कार्य करती रही। मध्यकाल में बहिरंग पर ही दृष्टि केन्द्रित हो जाने से पंक्तियों को ही सुधारने, सँवारने का कार्य चला, जड़ पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। शारीरिक सुख एवं भौतिक सम्पदा समृद्धि ही सब कुछ है- इसी पर जोर दिया जाता रहा। रोगों का बाहुल्य हुआ एवं समृद्धि के अपरिमित साधनों के बावजूद मानसिक अशान्ति एवं शरीरगत व्याधियाँ बढ़ती चली गयीं। पिछले दिनों इस भूल को पाश्चात्य जगत के कुछ विद्वानों ने अनुभव किया है। अब वहाँ पेस्टर (पादरी), साइकेट्रिस्ट (मनःचिकित्सक) एवं फिजिशियन (कायचिकित्सक) की सम्मिलित टीम द्वारा रोग निदान एवं उपचार की प्रक्रिया पूरी की जाती है।

ऐसे ही एक पादरी नार्मन विन्सेंट पील न केवल ईसाई जगत में अपितु विचारकों एवं चिकित्सकों के मध्य भी अपने जीवनदर्शन सम्बन्धी क्रान्तिकारी विचारों के कारण जाने जाते हैं। जीवन के साधारण व्यावहारिक प्रश्नों को वे अधिक महत्व देते हैं, अन्य सामान्य ईसाई धर्मगुरुओं की तरह उनकी उपेक्षा नहीं करते। स्वास्थ्य रक्षा के संबंध में उनके विचार उतने ही ज्वलन्त एवं प्रखर हैं। वे कहते हैं ‘मेडीकेट’ एवं ‘मेडीटेट’ दोनों शब्दों का एक ही उद्गम है। ‘मेडीटेट’ का अर्थ है- दवा करना एवं ‘मेडीकेट’ का अर्थ है- ध्यान करना। रोगमुक्ति तभी सम्भव है जब हम ध्यान करें। यह ध्यान चाहे अपने स्वयं के चिन्तन के विषय में हो, चाहें अपने पिछले कर्मों के विषय में अथवा विधेयात्मक भविष्य की रूपरेखा बनाने के रूप में।

बाइबिल के ‘एक्सोडस’ ग्रन्थ में लिखा है- ‘‘यदि हम उस परमपिता के निर्देशानुसार चलेंगे, प्राकृतिक जीवन जियेंगे एवं कभी निषेधात्मक दृष्टि से विचार नहीं करेंगे तो रोग हमारे पास भी नहीं फटकेगा।’’

वे कहते हैं कि हममें कितने हैं जो भौतिक शरीर के स्वामी बनने का प्रयास करते हैं। सही रूप में इस शरीर का, भगवान के अनुदान का यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति उपयोग करे तो वह क्या नहीं कर सकता? ब्रैंक रिची नामक अपने मित्र के जीवन से सम्बन्धित एक घटना श्री पील बताते हैं। वह बेस-बॉल का प्रसिद्ध खिलाड़ी था, पर अपने उस हाथ को अधिक महत्व देता था, जिससे वह खेलता था। इसके लिए उसने 75 हजार का बीमा भी करा रखा था। उसका कहना था कि ‘‘दैनिक प्रैक्टिस के लिये नहीं, किसी बड़े खेल के लिये मैंने अपने हाथ को सुरक्षित रखा है लेकिन उस ‘बड़े खेल’ का कभी मौका ही नहीं आया। उपयोग न करने से वह अपने क्रीड़ा-कौशल को ही भूल गया। प्रयुक्त होने पर ही शरीर की एवं मन की कार्यक्षमता बढ़ती है। यदि इन्हें समुचित रूप में, ईश्वर के निर्देशानुसार उपयोग करने का प्रयास किया जाय तो हर व्यक्ति गतिशील, उत्साहयुक्त एवं उल्लासमय जीवन व्यतीत कर सकता है। इसके लिये प्राथमिक आवश्यकता बताते हुये श्री नार्मन विन्सेन्ट पील कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन में स्वस्थ विचारों को स्थान देना चाहिये। मन के कुविचार ही शरीर में प्रवाहित होकर उसे रोग युक्त कर देते हैं। न्यू-आटलिस के एक अस्पताल में एक सर्वेक्षण में 500 में ये 383 रोग (77 प्रतिशत) शारीरिक जाँच के बाद स्वस्थ पाये गये, पर जब उनसे गहराई से प्रश्न किये गये तो उनके अस्वास्थ्यकर निषेधात्मक विचार ही रोगों का कारण थे। प्रतिदिन अपने मन को गन्दे विचारों से मुक्त करने का नियमित प्रयास करने के आध्यात्मिक निर्देश पाकर वे सभी स्वस्थ होकर चले गये। सद्भाव एवं सत्चिंतन ही सद्कर्म तथा स्वस्थ शरीर को जन्म देते हैं, यह एक अनुभूत अकाट्य सत्य है।

एक महिला गम्भीर रूप से बीमार हो उपचारार्थ अस्पताल में भरती थी। अपने दुःख, कष्टों के लिये वह भाग्य एवं भगवान को निरन्तर कोसती रहती थी। सारे उपचार व्यर्थ जा रहे थे। इसी बीच किसी शुभ चिन्तक रिश्तेदार ने उसे एक पुस्तक लाकर दी- जिसमें आशावादी चिन्तन को महत्ता दी गयी थी। किताब का शीर्षक था “बेटर हेल्थ थ्रू पॉजेटिव थिंकिंग’’ (विधेयात्मक चिन्तन से उत्तम स्वास्थ्य)। उसे पढ़ते ही उसका चिंतन आमूलचूल बदल गया। चिंता एवं निराशा को मन से निकाल फेंका, उसने मन में अच्छे विचारों को जगह देने का संकल्प लिया।

निराशावादी चिन्तन वस्तुतः बहुत ही खतरनाक होता है। यह वैसे प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर नहीं होता, इसीलिये इसकी गम्भीर भयावहता तब तक समझ नहीं आती जब तक कि वह शारीरगत व्याधि का रूप न ले ले। डा. शिंडलर नामक एक विख्यात चिकित्सक जो विस्कांसिन (अमेरिका) में अध्यात्म चिकित्सा करते थे- कहा करते थे अधिकांश लोगों की बीमारी का कारण सी, डी, टी होता है। पूछने पर वे व्याख्या करते हुये बताते कि- ‘सी’ अर्थात् केयर (चिन्ता) ‘डी’ अर्थात् डिफिकल्टीज (कठिनाईयाँ) और ‘टी’ अर्थात् ट्रबल्स (कष्ट) इन तीनों की परिणिति मानसिक निराशा में होती है। कोई इंजेक्शन, औषधि उपचार ऐसे रोगी को स्वस्थ नहीं कर सकता। उनकी सलाह मात्र यही थी कि ‘‘प्रति-दिन कम से कम दस मिनट तो प्रसन्न रहो और देखो तुम कैसे स्वस्थ होते चले जाते हो।’’

जेम गिल्बर्ट एक प्रसिद्ध अंग्रेज टेनिस खिलाड़ी थी। उसकी मृत्यु बड़े दुःखद ढंग से हुई। जब वह छोटी थी, उसकी माँ दन्त चिकित्सक के पास अपना दाँत निकलवाने गयी। जैसे ही वे दन्त चिकित्सक की कुर्सी पर बैठी, हृदयाघात, जो कि मात्र एक संयोग था, के कारण वहीं प्राण खो बैठीं। इस घटना ने गिल्बर्ट को काफी भयभीत कर दिया। यह तस्वीर आगामी तीस वर्षों तक उसके मस्तिष्क पटल पर छाई रही। दाँत के कष्ट ने उसे कई बार परेशान किया पर अचेतन में घुसे भय ने उसे चिकित्सक के पास जाने से रोक दिया। एक बार जब कष्ट असहनीय हो गया, तो उसे जबर्दस्ती चिकित्सा हेतु ले जाया गया। जैसे ही वह दन्त चिकित्सक की कुर्सी पर बैठी, उसके सामने फिर वहीं दृश्य घूम गया और तुरन्त उसकी मृत्यु हो गयी। यह उदाहरण बताता है कि चिन्ता, डर एवं निराशा किस प्रकार स्थूल शरीर को इस सीमा तक प्रभावित करते हैं।

जीवनी शक्ति को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना एवं उसका दैनंदिन जीवन में अभ्यास करना स्वस्थ रहने के लिये बहुत आवश्यक है। हम जो भी कुछ कहते हैं, वही हमारे विचारों में होता है और जो कुछ विचारों में होता है, वह निश्चित ही जीवन के क्रिया-कलापों में रूपांतरित होता है। बीमारी तभी हम पर हावी होती है जब जीवनी शक्ति क्षय होती चली जाती है। ईश्वर की स्वास्थ्यदायक शक्ति हर समय हर व्यक्ति, जीवधारी के शरीर, मन व आत्मा को अनुप्राणित करती रहती है। जितने भी व्यक्ति दीर्घकाल तक जिये हैं, जीवन जीने की विधा के कारण ही स्वस्थ रह पाये हैं। यदि इस सूत्र का अनुसरण किया जा सके तो हर क्षण, हर पल उल्लासपूर्ण रीति से लिया जा सकता है।


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