अध्यात्म में नाभि को उतना ही महत्व दिया गया है, जितना वैज्ञानिक परमाणु में न्यूक्लियस को देते आये हैं अथवा सौर-मण्डल में सूर्य का माना जाता है। नाभि की महत्ता शरीर शास्त्रियों के लिए गौण को सकती है, पर आत्मविज्ञान का कथन है कि नाभिचक्र का चुम्बकत्व आजीवन बना रहता है। गर्भाशय में भ्रूण का पोषण माता के शरीर से होता है। बुलबुले की तरह अपना अस्तित्व प्रारम्भ करने वाला भ्रूण तेजी से बढ़ना प्रारम्भ करता है। निर्वाह एवं सतत् पोषण हेतु उसे जिस भण्डार की आवश्यकता है, वह अनुदान शिशु को माता के शरीर से अपनी नाभि के मुख से प्राप्त होता है। पका हुआ आहार माता के रक्त के माध्यम से वह निरन्तर प्राप्त कर अपनी विकास यात्रा प्रारम्भ रखता है। प्रसव के समय जिस नालरज्जु को काट कर माता व शिशु को अलग किया जाता है। यह नाल, जो बालक की नाभि से जुड़ी होती है, ही वह द्वार है जिससे माता के शरीर से आवश्यक रस द्रव्य बालक के शरीर में आता रहता है। नौ मास की पूरी अवधि में अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति वह नाभि मार्ग से ही करता है।
जन्मोपरान्त बालक रोता, हाथ-पैर चलाता है और रक्त संचार आरम्भ हो जाता है। हृदय से रक्त फेफड़ों में जा पहुंचता है व वे अपना काम आरंभ कर देते हैं। प्राण वायु को अपने रक्त में वातावरण से खींचकर स्वावलंबन का पहला चरण नवजात बालक पूरा करता है। अब माता के गर्भाशय में बैठे ‘प्लेसेंटा’ रूपी फेफड़ों की उसे आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ व बालक के बीच सम्बन्ध विच्छेद नाल को काट कर किया जाता है। नवजात शिशु की जीवनयात्रा अपने ढर्रे पर चलने लगती है। माता का सहयोग समाप्त होते ही उस केन्द्र की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है। स्थूल दृष्टि से चिकित्सकों की दृष्टि में इस केन्द्र की उपयोगिता एक सामान्य गड्ढे के रूप में ही रह जाती है। कुछ निरर्थक निष्क्रिय सूत्रों के माध्यम से (लिगामेण्टम टेरिस) नाभि लीवर से जुड़ी रहती है। शरीरगत विकास की दृष्टि से नाभि की भूमिका समाप्त तो हो जाती है, पर जब भी कभी लीवर पर दबाव पड़ता है, उसमें रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है, तब ये ही निष्क्रिय सूत्र जीवन्त हो जाते हैं व ‘केपट मेड्यूसि’ के रूप में फूली शिराओं के स्वरूप में दिखाई देते हैं।
यह सारी गाथा एक ही तथ्य का उद्घाटन करती है कि नाभि एक सक्रिय केन्द्र है जो अपनी उपयोगिता की अवधि में अपनी सामर्थ्य से भ्रूण के विकास में सहयोग देती है। बाद में वह निष्क्रिय नहीं हो जाती। जिस तरह मस्तिष्क का, सूक्ष्म शरीर का, केन्द्र आज्ञाचक्र माना गया है, स्थल शरीर का न्यूक्लियस नाभि है। इस केन्द्र का सशक्त होना स्वस्थ शरीर का चिन्ह है। इसी की क्षमता से समीपवर्ती अवयव प्राणवान बनते हैं। नाभि केन्द्र के क्रिस्टल में आदान-प्रदान की उभय-पक्षीय क्षमता विद्यमान है। वातावरण में व्याप्त ध्वनि तरंगों को ट्राँजिस्टर का क्रिस्टल ही पकड़ कर उन्हें श्रव्य ध्वनियों में परिवर्तित करता है। नाभि केन्द्र ब्राह्मी चेतना का न्यूक्लियस है। अनंत अन्तरिक्ष से आवश्यक शक्ति खींचना और उसे धारण कर शरीर के समस्त अंगों को प्रभावित करना अध्यात्म विज्ञान के अनुसार नाभि का ही कार्य है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से नाभि का भले ही वह महत्व न हो पर योग विज्ञान की दृष्टि से उसकी उपयोगिता आजीवन वैसी ही बनी रहती है, जैसी कि भ्रूणावधि में थी। नाभि चक्र के चुम्बकत्व को साधना योग द्वारा जागृत किया जा सके तो अपनी प्रखर आकर्षक क्षमता के सहारे वह इतना कुछ अदृश्य अनुदान प्राप्त कर सकने में सफल हो सकती है जो स्थूल पदार्थों की अपेक्षा कई गुना अधिक उपयोगी है।
शरीर शास्त्र की दृष्टि से नाभि के आस-पास नौ महत्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ (गैंग्लियान्स) हैं। ये आटोमेटिक नर्वस सिस्टम (स्वचालित स्नायु संस्थान) के वे केन्द्र हैं जो शरीरगत गतिविधियों, रक्त प्रवाह, पाचन में सहायक एन्जाइम्स अन्य रसों के स्राव का नियमन संचालन करते हैं। लम्बर सेक्रल एवं काक्सीजियल गैंग्लिया व इनके परस्पर सूत्रों के रूप में विद्यमान प्लेक्संसेज ही आमाशय- पाचन संस्थान, तिल्ली, गुर्दे, यकृत आदि महत्वपूर्ण अंगों का संचालन करते हैं। नये शरीर का निर्माण करने वाली प्रजनन प्रणाली (गोनेड्स) अपनी अद्भुत क्षमताओं सहित इन्हीं केन्द्रों के नियन्त्रण में काम करती हैं। इन सबकी फलश्रुति के रूप में दृश्य हाड़-माँस का पुतला यह शरीर अन्नमय कोष की अधीनता में तो है, पर स्वयं कोष नहीं है। देह तो नष्ट हो जाती है, पर अन्नमय कोष सूक्ष्म रूप में इच्छाओं, तृष्णाओं के रूप में जिन्दा रहता है।
मनुष्य के प्राण-शरीर में तीन नाड़ियां प्रमुख हैं, जिनके माध्यम से प्राण प्रवाहित होता है। ये हैं इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना। इड़ा- पैरासिम्पेथेटिक सिस्टम शामक संस्थान का प्रतिनिधित्व करती है। यह मनुष्य का शान्त, अन्तर्मुखी एवं मनोगत पक्ष हुआ। पिंगला- सिम्पैथेटिक सिस्टम अर्थात् उत्तेजक संस्थान की प्रतिनिधि है। यह जीव का सक्रिय, बहिर्मुखी एवं शरीरगत पक्ष है। दोनों के परस्पर सन्तुलन, सामंजस्य से ही सारी गतिविधियाँ क्रमबद्ध रूप से चलती हैं। पाचन प्रक्रिया के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता शरीर को होती है, वह दोनों नाडियों के प्राण प्रवाह से बनती है। नाभि के पीछे स्थित सोलर फ्लेक्सस वह केन्द्र बिन्दु है, जहाँ से सारी प्रमुख धाराएँ विभिन्न अंगों को जाती हैं। एक प्रकार से इसे जंक्शन स्टेशन की उपमा दी जा सकती है, जहाँ से अनेकों रेलवे लाइन विभिन्न दिशाओं में जाती हैं। सारे शरीर में स्फूर्ति इसी केन्द्र की सशक्तता पर निर्भर है। जिस भी व्यक्ति ने इस केन्द्र को साध लिया अर्थात् अन्नमयकोश की साधना कर ली, उसकी इन्द्रियाँ काबू में रहती हैं एवं नियत निर्धारित क्रम में अपनी सुव्यवस्था, कौशल का परिचय देती है। ऐसे व्यक्ति सामान्य मनुष्य की तुलना में कई गुने परिणाम में उत्कृष्ट कार्य कर सकने में सफल होते हैं।
रावण किसी शस्त्र से मर नहीं सकता था क्योंकि उसकी नाभि में अमृत का कुण्ड था। उसे सुखाये बिना यह असुर वध सम्भव नहीं है। यह भेद राम को विभीषण ने बताया। राम ने वह कुण्ड सुखा कर रावण मारा। इससे प्रकट है कि शरीर की स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए नाभि चक्र के माध्यम से कितनी बड़ी सफलता प्राप्त की जा सकती है। अध्यात्म रामायण में यह प्रसंग इस प्रकार आता है-
नाभि देशेऽमृतं तस्य कुण्डलाकार संस्थितम्। तच्छोषयान अस्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो भवेत्॥ विभीषण वचः श्रुत्वा रामः शीघ्र पराक्रसः। पावकास्त्रण संयोज्य नाभिं विव्याध राक्षसः॥ -अध्यात्म रामायण
यह विभीषण की उक्ति है- संकेत है कि रावण की नाभि में कुण्डलाकार स्थित अमृत को अग्निबाण से सुखा दें, तभी उसकी मृत्यु होगी, तब राम ने बड़ी फुर्ती से अपने पावकास्त्र से रावण की नाभि को बेध डाला।
यह अमृतत्व पतनोन्मुख करके फुलझड़ी की तरह जलाकर तनिक-सा विनोद भी खरीदा जा सकता है। उसे मधुमक्खी की तरह संचित करके अपना श्रेय और दूसरों का सुख बढ़ाया जा सकता है। प्रजनन संयत्र के इर्द-गिर्द अनेकानेक क्षमताओं के दिव्य केन्द्र बिखरे हुये हैं। इनमें शरीर शास्त्री कुछ हारमोन ग्रन्थि स्रावों तथा उत्तेजना परक विद्युत प्रवाहों के सम्बन्ध में ही थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इतने से भी वे मानते हैं कि मस्तिष्क के बाद अवयवों की दृष्टि से हृदय और स्फुरण की दृष्टि से काम संस्थान की महत्ता है। आत्म-विद्या के अनुसार नाभिचक्र प्राण सत्ता का, साहसिक पराक्रमशीलता का एवं प्रतिभा का केन्द्र माना गया है। इस स्थान की ध्यान साधना करते हुये इस प्राण-शक्ति को निग्रहित और दिशा नियोजित किया जाता है। फलतः उसके सत्परिणाम भी ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं।