“अकथ-कथा”

May 1981

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(मंगल विजय)

लिखी है दास्तां दिल में, सुनाई जा नहीं सकती। दर्द की दास्तां, बेलोच गाई जा नहीं सकती॥

बहुत चाहा सुना दूँ, दास्ताने-दर्द मजलिस में। मगर दिल पड़ गया है, बेतहाशा आज मुश्किल में। जवां पर दास्ताने-दर्द लाई जा नहीं सकती ॥

दिया है जिसने जानो-जिस्म हँसकर इस जमाने को। पिया गम जिन्दगी भर ही, जमाने को हँसाने को। कहानी प्यार की उसके भुलाई जा नहीं सकती॥

कलेजा चीर कर जिसने पिलाया दूध बचपन को। सुखों से वास्ता छोड़ा, सहा हर एक अड़चन को। उठाई वह मुसीबत, जो उठाई जा नहीं सकती॥

दिया मृदु-प्यार का आश्रय, थकी हारी जवानी को। बनाया जीव का नगमा, हारती हर कहानी को। कहानी त्याग की उसके, झुठाई जा नहीं सकती॥

हुआ पुरुषार्थ बूढ़ा तो बनी उसका सहारा वह। न कर पाई बुरे दिन में बुढ़ापे से किनारा वह। जमाने में मिसाल उसकी, बताई जा नहीं सकती॥

वही ममता मयी नारी, अनूठे-प्रेम की प्रतिमा। दहकते नरक को जन्नत बनो की सहज गरिमा। उन्हीं एहसान की दौलत चुराई जा नहीं सकती॥

उसी के साथ हमने जब्रकी इन्ताह कर दी है। उसी की जिन्दगी हमने बनाकर नरक धर दी है। कि यूं नारित्व की गरिमा भुलाई जा नहीं सकती॥

हमें उपकार का बदला नहीं ऐसे चुकाना है। हमें नारित्व की गरिमा, समाहित कर बढ़ाना है। सुधा को धार तो विषकी पिलाई जा नहीं सकती॥

अगर हम ही नहीं मातृत्व का सम्मान कर पाये। अगर हम ही नहीं मातृत्व का उत्थान कर पाये। बिना उसके मनुजता, फिर उठाई जा नहीं सकती ॥

*समाप्त*


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