सुल्तान महमूद गजनवी अपनी सभा में विद्वानों का बहुत आदर करता था। शेख अब्दुल हसन फरकान एक प्रसिद्ध भगवद् भक्त थे, वे हमेशा ईश्वर के कार्य में तल्लीन रहते थे। समय पर रूखा-सूखा जो भी उन्हें प्राप्त होता उसे भगवान का प्रसाद मानकर बड़े प्रेम से खाते थे। इनकी प्रसिद्धि सुनकर सुल्तान एक बार दर्शनार्थ इनके यहाँ गए और भेंट में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ फकीर के चरण कमलों में रख दीं।
शेख फरकान ने सुल्तान के आतिथ्य में रूखी-सूखी रोटी प्रसाद रूप में भेंट की, लेकिन वह रोटी इतनी कड़ी तथा बेस्वाद थीं कि सुल्तान के गले तथा दाँतों ने अति कठिनता के पश्चात् उदर में पहुँचायी।
यह सब देख शेख फरकान सुल्तान से बोले- ‘जिस प्रकार मेरी दी हुई खाद्य वस्तु तुम्हारे गले से नहीं उतर रही है, उसी प्रकार तुम्हारी दी हुई वस्तु को मैं कैसे पचा सकता हूँ? अतः ‘सुल्तान! ये अपनी स्वर्ण-मुद्राएं वापस ले जाओ। ये मेरे कुछ भी काम की नहीं हैं।’ शेख फरकान के यह वचन सुनकर सुल्तान की आंखें नीची हो गईं और उनकी आँखों से टपाटप आँसू टपकने लगे। फिर सुल्तान चुपचाप उठा और वापस जाने के लिए शेख फरकान से इजाजत चाही। इस पर शेख खड़े हो गए। यह देश सुल्तान को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने विनम्र होकर पूछा- ‘जब मैं आया था तो आप अपनी जगह से हिले तक नहीं और जब मैं जाने को तैयार हुआ तो आप मेरे सम्मान में उठकर खड़े हो गए।’ इसका क्या कारण है? शेख अब्दुल फरकान सुल्तान गजनवी का यह प्रश्न सुनकर पहले तो मुस्कराये, इसके बाद अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले- ‘सुनो सुल्तान! जब तुम आए तो तुम्हारे हाथ में स्वर्ण मुद्राओं की थैली थी, सिर पर अहंकार का भूत सवार था। लेकिन अब जब कि तुम जा रहे हो तो वह भूत तुम्हारे सिर से उतर चुका है। इसलिए अब तुम आदर के योग्य हो गए हो।