साहस एवं पुरुषार्थ की परिणति

May 1981

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अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की विशेषता यह है कि अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट नहीं रह सकता। मनुष्येत्तर जीव प्रकृति प्रेरणाओं के अनुरूप ढर्रे का जीवनयापन करते हुये प्रायः वैसे ही बने रहे जैसा कि आदिम युग में थे। दूसरी ओर मनुष्य ने असामान्य गति से प्रगति की है। बुद्धि, साहस, पुरुषार्थ के बलबूते उसने पर्वतों के शिखरों को भी रौंदा और अन्तरिक्ष में छलाँग लगायी है। खोज के प्रति अभिरुचि, अनवरत जिज्ञासा का अवलम्बन एवं साहस का सम्बल पाकर प्रगति क्रम आगे ही बढ़ता गया है। फलतः उसने दुस्साहस भरे ऐसे काम कर डाले जो कभी असम्भव एवं दुस्तर समझे जाते रहे होंगे।

‘एडवेंचर’ युक्त खोजों का इतिहास यों ही सम्भव न हुआ। वह अपने साथ साहस एवं बलिदान की रोमाँचक दास्तान जोड़े हुये है। पृथ्वी का सर्वाधिक रहस्यमय क्षेत्र उत्तरी ध्रुव कभी उतना ही अविज्ञात था जितना कि आज चेतन जगत एवं उसकी चमत्कारी सामर्थ्य। किन्तु दुस्साहसियों ने अपनी जान को जोखिम में डालकर भी वहाँ तक पहुँचने एवं खोज निकालने का बीड़ा उठाया। फलतः उत्तरी ध्रुव के विषय में रहस्यमय जानकारियाँ मिल पायीं। खोजियों को कितने कष्ट झेलने पड़े, कितनों को प्राण गँवाने पड़े, यह खोज के इतिहास को पढ़ने पर पता चलता है।

सर्वप्रथम डेनमार्क निवासी ‘वीनस बेकिंग’ ने ध्रुव प्रदेशों की खोज का संकल्प लिया। सन् 1725 में उन्होंने रशिया के आर-पार पैदल की यात्रा की। यह यात्रा 5 हजार मील लम्बी थी। बेकिंग अपने छोटे से जहाज के सहारे प्रशान्त महासागर से साइबेरिया और अलास्का होकर ‘जलडमस’ मध्य को पार कर गया। उसके नाम पर ही इस छोटे से द्वीप का नाम जलडमस मध्य बेकिंग पड़ा है। अलास्का ध्रुव प्रदेश की खोज के फलस्वरूप अमेरिकी खण्ड पर सोने से भरा विशाल प्रदेश रशिया को मिला, जिसे बाद में अमेरिका ने खरीद लिया। बेकिंग ने अलास्का एवं साइबेरिया से उत्तर पूर्व किनारे के ध्रुव प्रदेश में अपनी खोज जारी रखी। सन् 1741 में तीसरी यात्रा में उनका जहाज बर्फ की चट्टानों के बीच दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उन्हें दम तोड़ना पड़ा।

ब्रिटेन के एडवर्ड पेरी ने 1816 में उत्तरी ध्रुव तक पहुँचने का निश्चय किया किन्तु बर्फ के पहाड़ों एवं बर्फीली हवाओं के कारण उन्हें अपना निश्चय बदलना पड़ा। ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ समय बाद घोषणा हुई कि जो भी व्यक्ति उत्तर में 89 अंश तक पहुँच कर समुद्री मार्ग खोज निकालेगा उसे पाँच हजार पौण्ड का पारितोषिक दिया जायेगा। उन्नीसवीं सदी के पूर्व इंजन से चलने वाले जहाजों की सुविधा न थी। इसके निर्माण से ब्रिटिश सरकार को आशा बँधी। लकड़ी से बने एवं पालों के सहारे चलने वाले अधिकाँश जहाज बर्फ की चट्टानों से युक्त दुर्गम मार्ग एवं तूफानों के थपेड़ों से टकराकर नष्ट हो जाते थे। मोटर इंजन के आविष्कार से इस कठिनाई का हल निकला। ब्रिटिश नौ सेना के ‘एरवस’ एवं ‘टेटर’ नामक दो जहाज आधुनिक यंत्रों से सुसज्जित होकर सर फ्रेंकलिन के नेतृत्व में उत्तरी ध्रुव की खोज मे चल पड़े। इस जहाज का वजन साढ़े तीन हजार टन था तथा उन सारी सुविधाओं से युक्त था जो यात्रा के लिये आवश्यक थीं। 129 कुशल नाविकों से युक्त जहाज की भव्य विदाई ब्रिटिश नागरिकों ने की।

फ्रेंकलिन को इसके पूर्व दो उत्तरी यात्राओं का अनुभव भी प्राप्त था। किन्तु नियत को प्रकृति के इस दुर्गम प्रदेश पर छेड़छाड़ करना संभवतः स्वीकार नहीं था। विशालकाय जहाज बर्फ के बीच फँस गया। नाविकों सहित फ्रैंकलिन को पहला जाड़ा बर्फ की कैद में ही व्यतीत करना पड़ा। पोषक आहार के अभाव में अनेकों नाविक ‘स्कर्वी’ नामक रोग से मरने लगे। दूसरे जाड़े में फ्रेंकलिन को भी अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। तीसरी ठंड आने तक 106 नाविक जीवित थे किन्तु दोनों जहाजों के बर्फ के बीच दबकर पिस जाने से उनका जीवन भी मौत के झूले में झूल रहा था। खुराक समाप्त हो गई और मछली आदि के शिकार के लिये कोई साधन न था। फलस्वरूप नाविकों के समक्ष अनजान हिमाच्छित प्रदेश में यात्रा करने के अतिरिक्त कोई मार्ग अब शेष न रहा। किन्तु रक्त को भी जमा देने वाली ठण्ड एवं भोजन के अभाव के कारण सभी नाविकों ने दम तोड़ दिया। ब्रिटिश सरकार ने इनकी टोह लेने के लिये एक दूसरा दल ‘जान राई’ के नेतृत्व में भेजा जिन्हें तीस नाविकों के शव बर्फ में जमे हुये मिले।

सन् 1879 में अमेरिका कप्तान ‘द लांग’ तीन नाव छः बर्फ गाड़ियां, 23 कुत्ते एवं 33 प्रशिक्षित नाविकों को लेकर उत्तरी ध्रुव की खोज में चल पड़े। साइबेरिया से होकर वे गुजर रहे थे इतने में बर्फ का तैरता हुआ विशाल पर्वत उनके साथियों को विरुद्ध दिशा में नाव सहित बहा ले गया। फलतः एक नाव साइबेरिया के दूसरे किनारे पर जा पहुँची। दूसरी रसद सहित डूब गई। तीसरी में ‘द लांग’ अपने कुछ साथियों सहित साइबेरिया की ‘लेना’ नदी में जा पहुँचे। सभी हिमदंश रोग से पीड़ित हो गये और अन्ततः मौत की गोद में जा पहुँचे। दूसरे खोजी दल को ‘द लांग’ की लिखी 140 दिनों की प्रवास डायरी प्राप्त हुई जो आगे यात्रा करने वालों के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध हुई।

असफलता एवं सफलता की कड़ियां परस्पर एक दूसरे से आबद्ध हैं। असफलताएँ भी अपने साथ कितने ही अनुभव एवं प्रेरणाएँ छिपाये रहती हैं तथा दूसरों को मार्गदर्शन देने में सक्षम होती हैं। ध्रुव प्रदेशों तक पहुँचने में ये दुस्साहसी असफल तो रहे किन्तु उनका त्याग, बलिदान से भरा पुरुषार्थ निरर्थक नहीं गया। दूसरे खोजियों के लिए उनके अनुभव वरदान सिद्ध हुए तथा पथ-प्रदर्शन में समर्थ रहे। कैप्टन द लांग की प्राप्त डायरी नार्वे के डा. नानसन की सफलता का कारण बनी। डायरी में वर्णित अनुभवों से डा. नानसन ने निष्कर्ष निकाला कि उत्तरी ध्रुव के आसपास बर्फ की पट्टी है। अतएव ऐसे जहाजों का निर्माण किया जाना चाहिए जो बर्फ जमने पर उसके बीच पिस जाने के स्थान पर सुरक्षित ऊपर उठकर सतह पर आ जाय। जिस प्रकार साइबेरिया के किनारे से लकड़ी के लट्ठे प्रवाह के साथ बहकर ग्रीनलैण्ड के किनारे पहुँचते हैं, उसी प्रकार जहाज भी उतरी ध्रुव पर क्यों नहीं पहुँच सकते, इन विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने ‘फ्राम’ नाम एक ऐसे जहाज का निर्माण कराया, जो उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और जहाज को बर्फ पर फिसलने के लिये स्वतन्त्र छोड़ दिया। पौने दो वर्ष बाद जहाज 78 अंश उत्तर अक्षाँश के पास जा पहुँचा। ‘नानसन’ ने अब उत्तरी ध्रुव के लिये पैदल यात्रा करना अधिक उपयुक्त समझा। अपने साथी ‘शालमार जोहानसन’ को लेकर वह चल पड़ा। यह बहुत ही दुस्साहस भरा कदम था। मार्च 1895 में यह यात्रा आरम्भ हुई तथा 8 अप्रैल को 86 उत्तर अक्षांश 14 मिनट तक जाकर एक ऐतिहासिक कीर्तिमान स्थापित करते हुये समाप्त हुई। अब गर्मी के कारण बर्फ पिघलनी आरंभ हो गई। पानी पर तैरते, बर्फ से होकर वापस लौटा जा सकता था किन्तु देरी हो जाने के कारण बर्फ के अभाव में लौटना कठिन था। फलस्वरूप जाड़े की राह देखने तक फ्रान्ज जोसेफलैंड नामक टापू पर पत्थर की झोपड़ी में समय व्यतीत करना पड़ा। आठ माह व्यतीत करने के बाद पुनः वे वापस लौटे। ‘नानसन’ उत्तरी ध्रुव से मात्र 224 समुद्री मील दूर रहे। इस प्रकार इनकी यात्रा एवं अनुभवों ने आगे का मार्ग प्रशस्त किया।

ऐतिहासिक सफलताओं में किसी व्यक्ति विशेष का एकाँगी पुरुषार्थ काम नहीं करता। उनमें अनेकों का योगदान होता है। सफलता का श्रेय भले की किसी को मिले उपयोग भले ही कोई करे, किन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वे महान उपलब्धियाँ अनेकों के सहयोग से ही सम्भव हो सकीं।

पिछले खोजियों का पुरुषार्थ निरर्थक गया, यह नहीं कहा जा सकता। एक के अनुभव ने दूसरे का मार्ग-दर्शन किया तथा आगे बढ़ाया। उत्तरी ध्रुव की खोज का अन्तिम श्रेय पाया अमेरिका के रावर्ट पियरी एवं उनके निग्रो साथ मेथ्यु हेनसन एवं दो एस्किमो ने। पियरी ने लगभग अपना सम्पूर्ण जीवन ही उत्तरी ध्रुव की खोज में लगा दिया। पिछले खोजियों की असफलताओं का अध्ययन बारीकी से पियरी ने किया। लोहे से विनिर्मित जहाज छः साथियों, 177 एस्किमो एवं 133 कुत्तों के साथ वह जुलाई 1908 को दुस्साहसी अभियान पर चल पड़ा। 1 अप्रैल 1909 को वह उत्तरी ध्रुव से मात्र 133 मील दूर था। अन्य साथियों को वही छोड़कर वह एक साथी हेनसन तथा चार अनुभवी एस्किमो को लेकर आगे बढ़ा। प्रकृति ने भी इस दुस्साहसी का साथ दिया। मौसम अनुकूल था। 6 अप्रैल 1909 को वह प्रातः ध्रुव से मात्र 3 मिनट के अंतर पर अर्थात् 89 अक्षाँश 57 मिनट पर जा पहुँचा। उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। 23 सौ वर्ष पूर्व से ध्रुव प्रदेश की जो खोज आरम्भ हुई थी उसका अंतिम श्रेय उसे मिला।

दुःसाहस भरी दो यात्राऐं एवं तद्नुरूप सफलताएं इस तथ्य की ओर इंगित करती हैं कि मानवी साहस एवं पुरुषार्थ के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। छोटे-मोटे अवरोधों के समक्ष सिर झुका लेने एवं अपने लक्ष्य को छोड़ बैठने वालों के लिए ये प्रसंग प्रेरणा देते तथा बताते हैं कि- “परिस्थितियों के समक्ष कभी हार न मानो लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपना प्रयास जारी रखो।”

दक्षिणी ध्रुव की खोज का इतिहास उत्तरी ध्रुव की तुलना में और भी अधिक रोमाँचक एवं दुस्साहस से भरा हुआ है। दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचना तो और भी अधिक कठिन था। अठारहवीं सदी के सातवें दशक में ब्रिटेन का जेम्स कुक दक्षिणी ध्रुव की खोज करते 70 अक्षाँश दक्षिण तक जा पहुँचा। यह स्थान लक्ष्य से 150 मील दूर था किन्तु बर्फ के विशालकाय शिखरों के कारण ‘जेम्स’ आगे नहीं बढ़ सका, बर्फ के तूफानों में ही उसे दम तोड़ना पड़ा। सन् 1901 में जर्मन के कमाण्डर रावर्ट स्काट अर्नेस्ट हेनरी शेकलटन नामक एक आयरिश युवक को साथ लेकर दक्षिणी ध्रुव की ओर चला किन्तु आपसी मतभेद हो जाने के कारण दोनों को दो दलों में विभक्त होना पड़ा। शेकलटन अपने दस्ते को साथ लिये दक्षिणी ध्रुव की 100 मील दूर तक पहुँच गया। किन्तु 11 हजार 6 सौ फुट ऊपर तथा शून्य से 56 अंश नीचे भयंकर ठंड के कारण आगे बढ़ना सम्भव न हो सका। इस बीच बचा हुआ भोजन भी समाप्त हो चला था। फलस्वरूप उसने वापस लौटना अधिक उपयुक्त समझा। उसके द्वारा प्राप्त की गई जानकारियों से प्रो. डेविड के नेतृत्व में एक खोजी दल दक्षिण चुम्बकीय ध्रुव तक जा पहुँचा।

दूसरी ओर शेकलन के साथ दक्षिणी ध्रुव की खोज पर निकला स्काट अपने अभियान में लगा रहा। ध्रुव से 150 मील दूरी पर स्काट चार के अतिरिक्त अन्य साथियों को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ा। बर्फ गाड़ी खींचने में अत्याधिक श्रम लगने एवं समुचित पोषण के अभाव के कारण बीमार पड़ गये, तथा मृत्यु के ग्रास बन गये।

इन्हीं दिनों नार्वे का आमुंडसन नामक नाविक जो कभी ‘नानसन’ के साथ उत्तरी ध्रुव की यात्रा कर चुका था, उसने दक्षिणी ध्रुव के खोज का संकल्प लिया। उसके विगत अनुभव काम आये। अपने दल के साथ वह 14 दिसम्बर 1911 को दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचने में सफल रहा और ‘नार्वे’ का झण्डा फहरा दिया। इसके बाद तो वहाँ आना-जाना सुगम हो गया।

इन दुर्गम प्रदेशों की कठिन यात्राएँ जहाँ मानवी साहस एवं पुरुषार्थ की असाधारण महिमा का प्रतिपादन करती हैं, वहीं दूसरी ओर इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। जड़ प्रकृति की तुलना में चेतन सूक्ष्म जगत कहीं अधिक ‘एडवेंचरस्’ रहस्यमय, शक्ति-सामर्थ्य से युक्त है। जितना पुरुषार्थ एवं दुस्साहस प्रकृति के ‘एडवेंचर’ को खोजने एवं जानने में किया जाता है उतना ही यदि चेतन जगत के लिये भी किया जा सके तो इतना कुछ जाना एवं प्राप्त किया जा सकता है, जिसे करतलगत कर और कुछ जानने एवं पाने की आवश्यकता नहीं रह जाती।


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