सर्वतोमुखी प्रगति के दो आधार- अध्यात्म और विज्ञान

March 1977

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अध्यात्म और विज्ञान का युग्म है। एक के बिना दूसरे का निर्वाह नहीं। भोजन पकाने की विधि विदित न हो तो खाद्य सामग्री सामने रहने पर भी सामान की बर्बादी होती रहेगी, किन्तु पेट न भर सकेगा। इसी प्रकार पाक विद्या में निष्णात व्यक्ति भी पदार्थों के अभाव में अपने को असहाय अनुभव करेगा और भूखा मरेगा।

भौतिक जगत के हर क्षेत्र में ज्ञान और विज्ञान को साथ लेकर चलना पड़ता है। जानकारी और सामग्री का समन्वय ही गति चक्र को अग्रगामी बनाता है। आत्मिक जगत में भी यही तथ्य सुनिश्चित है। चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में कुशलता का समावेश हुए बिना परिष्कृत जीवन-क्रम का आधार बन ही नहीं सकता। प्रगति चाहे भौतिक हो, चाहे आत्मिक दोनों के ही लिए अपने-अपने स्तर के ज्ञान और विज्ञान की अनुभव और साधन की आवश्यकता रहेगी ही।

आत्मिक प्रगति के लिए भावनाओं में दिव्य संवेदनाओं और उच्चस्तरीय आस्थाओं को विकसित करना होता है। इसी को श्रद्धा और भक्ति कहते हैं। आदर्शवादी-अध्यात्मवादी उत्कृष्ट प्रतिपादनों के प्रति प्रगाढ़ आस्था परिपक्व करना यही अन्तर्जगत् का ज्ञान पक्ष है। इसे तत्त्व दर्शन एवं ब्रह्म ज्ञान कहते हैं। इसे उपलब्ध करने के लिए काम-काजी ‘अकल’ काम नहीं करती, वरन् ऋतम्भरा, प्रज्ञा का आश्रया लेना पड़ता है।

आत्मिक जगत का विज्ञान पक्ष है-आत्मबल-ब्रह्म तेज। संकल्प की प्रखरता और सघन आत्म-विश्वास के आधार पर विकसित प्रचण्ड साहसिकता से उस प्रसुप्त क्षमता को जागृत होने का अवसर मिलता है जिसे इस विश्व की सर्वोपरि सामर्थ्य और सम्पत्ति कहा जा सकता है। आत्मज्ञान और आत्म तेज के समन्वय से ही समग्र अध्यात्म बनता है। दोनों को साथ लेकर चलने से ही सर्वतोमुखी आत्मिक प्रगति का लाभ मिलता है।


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