आनंदमयकोश का अमृत कलश

March 1977

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आनंदमयकोश जीवात्मा पर चढ़ा अंतिम आवरण है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय के उपरांत इसी एक की साधना करनी शेष रह जाती है। इस आवरण के हटते की आत्मा को परमात्मा रूप में परिष्कृत होने का अवसर मिल जाता है। तब उसकी स्थिति वैसी हो जाती है जैसी कि वेदांत में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ तत्त्वमसि, सोहमस्मि, सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् आदि उद्घोषों के अंतर्गत प्रतिपादित की गई है।

शिर, विवर को दो दिव्य सत्ताओं का निवास दुर्ग माना गया है। उसका चेतन-अचेतन मनःसंस्थान मनोमयकोश कहलाता है। इसका सूत्र-संचालन भ्रू-मध्य भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र से होता है। दूसरा चेतना का सर्वोच्च आनंदमयकोश है। मस्तिष्क में जानकारियों और आदतों का समन्वय है, इसलिए उसे इंद्रिय वर्ग में गिना जाता और भौतिक तत्त्वों से घिरा माना जाता है। तात्त्विक विवेचना में मन को ग्यारहवीं इंद्रिय माना गया है। इंद्रियाँ अपने-अपने छोटे क्षेत्रों को सँभालती हैं। मन उन पर मानीटर जैसा अनुशासन बनाए रखने में सहायता करता है। यों है उसकी भी गणना छात्र वर्ग में ही। मनोमयकोश की साधना से इसी मस्तिष्कीय क्षमता की मनोविज्ञान और परा मनोविज्ञान क्षमताओं की चर्चा-विवेचना होती है। आनंदमयकोश की स्थिति भिन्न है उसमें जीव और ब्रह्म के मिलने का संपर्क साधने वाले अति उच्चस्तरीय सूत्र हैं। शरीर क्षेत्र में ईश्वर का निवास कहाँ है ? इसका उत्तर साधारणतया समूची सत्ता में सव्याँस कहा जा सकता है, पर यदि उसका अन्य कोशों जैसा प्रवेश द्वार या केंद्र संस्थान पूछना हो तो उसे ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रारचक्र कहना पड़ेगा।

ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। परमाणु के मध्य भाग को ‘नाभिक’ या ‘न्यूक्लियस’ कहते हैं। अणु सत्ता का उद्गम केन्द्र वही है। शेष भाग में तो उसका सहायक संरक्षक सरंजाम भरा पड़ा है। जीवाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों तक में यह न्यूक्लियस ही सारे भाग और शक्ति स्रोत होता है। मस्तिष्कीय राश्ट्र की राजधानी इस मध्य केन्द्र ब्रह्मरंध्र में है। ब्रह्मसत्ता का अवतरण इसी स्थान पर होता है। वायुयान हवाई अड्डे पर ही उतरते हैं। मन संस्थान का सारा नियन्त्रण संचालन मस्तिष्कीय विद्युत के माध्यम से होता है। यह विद्युत संकेत नाड़ी संस्थान द्वारा विभिन्न अंगों तक भेजे जाते हैं। यह विलग-विलग केन्द्र भी परस्पर जुड़े हुए हैं। उनमें भी परस्पर आदान-प्रदान होता है। जैसे आँख के सामने स्वादिष्ट वस्तु आई तो आँख का नियन्त्रक केन्द्र तुरन्त जीभ के केन्द्र को सूचना दे देता है। और वह जीभ ‘लार’ प्रवाहित करने लगती है।

मस्तिष्कीय संचार सूत्रों का भी एक मध्य केन्द्र है। वही से अगणित धारा प्रवाह उठते हैं और उनके द्वारा अनेक विद्युत उन्मेष सक्रिय होते देखे जाते हैं। उन्हीं के द्वारा विभिन्न महत्त्वपूर्ण मस्तिष्कीय केन्द्रों को उत्तेजना मिलती है। सक्रियता इसी उत्तेजना से उत्पन्न होती है।

यदि मस्तिष्क की इस प्रक्रिया को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो मस्तिष्क के मध्य भाग से सहस्रों विद्युत स्पन्दन सतत् प्रस्फुटित होते दीख सकते हैं। इसी को अलंकारिक रूप से सहस्र धारों वाले चक्र अथवा सहस्र पंखुड़ियों वाले कमल के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

स्थूल विज्ञान चूँकि स्थूल की सीमा में ही सारे हल खोजना चाहता है इसलिए उसकी गति यहाँ आकर रुक जाती है। मस्तिष्क के मध्य से यह विद्युत स्पन्दन कैसे उत्पन्न होते ? कैसे इन्हें बढ़ाया या नियन्त्रित किया जा सकता है, यह सब वर्तमान वैज्ञानिकों के लिए रहस्य ही है। फिर भी उन्होंने इन विद्युत उन्मेषों को ‘रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम’ ‘स्पैसिफिक थैलैमिक प्रोजैक्शन सिस्टम’ डिफ्यूज थैलैमिक प्रोजैक्शन सिस्टम जैसे नाम दिये है। यह भी स्वीकार किया है के इन स्पन्दनों को इच्छानुकूल नियन्त्रित किया जा सके तो उसके प्रभाव से मस्तिष्क के किसी भी नियन्त्रण केन्द्र को इच्छानुरूप सक्रियता अथवा शिथिलता की स्थिति में लाना तथा असम्भव जैसी उपलब्धियों को भी सम्भव बनाया जा सकता है।

योग विज्ञान सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में विशिष्ट साधनाओं को आवश्यक मानता है। उसके जागरण का अर्थ केवल उसकी तीक्ष्णता तथा सक्रियता को बढ़ा देना नहीं है, उसे व्यवस्थित, सुनियंत्रित तथा सुनियोजित भी करना आवश्यक है। वर्तमान वैज्ञानिक उसके विधेयात्मक पक्ष को भले ही न समझ सके हो किन्तु निषेधात्मक पक्ष का अध्ययन रोगों के अंतर्गत अवश्य कर सके हैं। हिस्टीरिया तथा इपीलिप्सी जैसे विभिन्न प्रकार के रोगों की तह में मस्तिष्कीय विद्युत का ही खेल पाया जाता है। जब कोई भाग अस्वाभाविक अथवा अवांछनीय रूप से विद्युत स्पन्दन छोड़ने लगता है तो वह किन्हीं केन्द्रों की स्वाभाविक संचार व्यवस्था में व्यतिक्रम ला देते हैं। उसी के फलस्वरूप तरह-तरह के मानसिक तथा शारीरिक रोग पैदा हो जाते हैं। कहाँ क्या गड़बड़ी है ? इसका अन्दाज वैज्ञानिक लोग ई॰ ई॰ जी॰ नामक यन्त्र द्वारा विभिन्न स्थानों पर मिलने वाले विद्युतीय कंपनों को नाप कर ही लगाते हैं। इससे भी निषेधात्मक पक्ष में ही सही यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि इन विद्युतीय धाराओं द्वारा असाधारण शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ- प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करना कराना सम्भव है।

मनःसंस्थान के केन्द्र बिन्दु विद्युतीय भाण्डागार को अध्यात्म की भाषा में सहस्रार चक्र या सहस्र दल कमल कहा गया है उस तक पहुँच मानसिक उपचारों की नहीं है किन्तु योग विद्या के अंतर्गत ध्यान धारणा द्वारा उसे अभीष्ट दिशा में मोड़ा, सुधारा एवं अभ्यस्त किया जा सकता है। इस प्रकार व्यक्तित्व के सर्वोच्च शक्ति केन्द्र पर अधिकार प्राप्त करके मनुष्य अभीष्ट आत्म निर्माण में सफल हो सकता है। कहना न होगा कि यह आत्म-विजय अपने लिए तो विश्व विजय के समान ही लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

ब्रह्मरंध्र की रासायनिक संरचना को देखते हुए उसे कमल पुष्प की आकृति से मिलता-जुलता देखा जाता है। शरीर शास्त्र के अनुसार भी उस स्थान पर एक अणु गुच्छक पाया जाता है। सूक्ष्म दृष्टि से -सूक्ष्म शरीर में उसकी स्थिति और भी अधिक स्पष्ट होती है। वहाँ कमल पुष्प की आकृति में प्रायः हजार या हजारों पंखुड़ियाँ बिखरी दीखती है, साथ ही प्रकाश-ज्योति का आभास भी होता है। इस स्थान में उठने वाली भाव सम्वेदना को कमल पुष्प और ज्ञान प्रखरता को प्रकाश-ज्योति नाम दिया गया है। इस स्थिति का चित्रण कमल पुष्प के दीपक में जलने वाली प्रकाश-ज्योति के रूप में किया गया है। इस ब्राह्मी स्थिति की प्रतीक प्रतिमा अखण्ड-ज्योति के रूप में की गई है। निरन्तर जलने वाला घृत दीप इस ब्रह्मरंध्र का ब्रह्मलोक का प्रतीक प्रतिनिधि मानकर पूजा उपचार में प्रतिष्ठापित किया जाता है।

देव सम्प्रदायों ने इस केन्द्र का चित्रण अपने-अपने ढंग से किया है। विष्णु उपासकों को ब्रह्मलोक व्याख्या में विस्तृत क्षीर सागर-सहस्र फन वाले शेषनाग की शैया उस पर भगवान विष्णु का शयन का वर्णन है। क्षीर सागर मस्तिष्क गडडड में विद्यमान् मज्जा पदार्थ -ग्रेमैटर है। सहस्रार कमल सहस्रार चक्र है। उस पर अवस्थित ब्रह्म चेतना भगवान विष्णु है। साधारणतया यह सारा ब्रह्म चेतना भगवान विष्णु है। साधारणतया यह सारा क्षेत्र प्रसुप्त स्थिति में निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसलिए विष्णु भगवान सोते हुए दर्शायें गये हैं। शिव भक्तों ने इसी ब्रह्मरंध्र को शिवलोक कहा है। मानसरोवर मध्य में कैलाश, उस पर समाधिस्थ शिव-गले में महासर्प यह चित्रण में प्रकारान्तर से विष्णु व्याख्या के समतुल्य ही है। ग्रेमैटर, मानसरोवर, सहस्रार-कैलाश प्रकाश ज्योति शिव। शिर पर चन्द्र-प्रकाश किरणें। गले में सर्प-शेषनाग शिव के मस्तिष्क के गंगा का उद्गम -ब्रह्मज्ञान का अवतरण । विष्णु के चरणों में से गंगा निकलती है शिव के मस्तक में से। दोनों ही स्थिति में उस केन्द्र को दिव्य ज्ञान का गोमुख कहा जा सकता है।

गुरु भक्तों ने सहस्रार कमल पर गुरु तत्त्व की स्थापना करके अपनी व्यान आवश्यकता के अनुरूप प्रतीक प्रतिष्ठा की है। शक्ति उपासक इसी सहस्रार कमल को अपनी-अपनी इष्ट देवियों के साथ जोड़ते हैं। लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान् है। ब्रह्म जी की भाँति ही गायत्री भी कमलासन पर विराजती है। सरस्वती, दुर्गा आदि अन्य देवियों में से किसी के हाथ में ,किसी के गले में कमल पुष्प जोड़ने की चेष्टा की गई है।

सहस्रार चक्र कनपटियों की सीध में भ्रूमध्य भाग के पीछे मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में माना गया है। तन्त्र ग्रन्थों में इसे ‘महाविवर’ की संज्ञा दी गई है। यही लययोग का ब्रह्मरंध्र है। निराकार उपासना में इसे दशम द्वार माना गया है। नौ द्वार तो इन्द्रिय छिद्र हैं ही। उन्हें दो नथुने, दो कान, दो आँखें , एक मुख , दो मल-मूत्र छिद्र इस प्रकार उनकी गणना सर्वविदित है। दसवाँ द्वार यह ब्रह्मरंध्र है, इसी झरोखे में होकर आत्मा और परमात्मा की मिलन झाँकी -प्रणय केलि एवं समर्पण पाणिग्रहण का सरस शृंगारिक वर्णन मिलता है। योगी लोग इसी केन्द्र में प्राण को अवस्थित करके ब्रह्माण्ड का विचरण एवं नियन्त्रण करने जैसी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। शरीर त्याग के समय प्राण इस दशम द्वार से निकलें तो प्राणी की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त हुआ समझा जाता है।

सहस्रार की स्थिति का वर्णन अनेक ग्रंथों में हुआ है। उनका स्वरूप और विवरण प्रायः एक दूसरे से मिलता-जुलता ही है। उल्लेख इस प्रकार मिलते हैं -

स्व मूर्धनि सहस्रार पंकजा सीन मव्ययम्। शुद्ध स्फटिक संकाशं शरच्चन्द्र निभाननम्-शक्ति बीज

अपनी मूर्धा में सहस्रार कमल के मध्य शुद्ध स्फटिक वत् शरतचन्द्र जैसे प्रकाश का ध्यान करना चाहिए।

ब्रह्मजयोतिर्वसुधा मा ब्रह्मास्थानीय उच्यते। ततो यः पावको नाम्ना यः सडिडडयोग उच्यते-मत्स्य पुराण

ब्रह्म -ज्योति अग्नि ब्रह्मरंध्र स्थान में निवास करती है। यह साधकों को पवित्र करने वाली हैं । यही योगाग्नि है।

सहस्र दल पंकजा सकल शीतरस्मि प्रभा। वराभय कराम्बुजा वितुल गन्ध पुश्पामबराम्-विश्वामित्र कल्प

गायत्री महाशक्ति का चित्रण सहस्र दल-कमल पर विराजमान् हाथ में कमल, गले में कमलमाला धारण किये हुए रूप का ध्यान करने का विश्वामित्र कल्प में निर्देश है।

सहस्र दल मध्यस्थ मन्तरात्मान मुत्तपम्। तस्योपरि नादविन्दोर्मध्ये सिहासनो ज्वलम्। तास्मिन् निज गुरुं नित्य शुद्ध बुद्ध अवस्थितम्। -कंकाल भगवती तन्त्र

सहस्र दल-कमल में स्थिति अन्तरात्मा के ऊपर नाद विद के बीच में नित्य शुद्ध-शुद्ध सद्गुरु (शिव) अवस्थित है।

शिरः पद्ये महादेव स्तथैव परमोगुरुः । तत्समो नास्ति देवेशि पूज्यो हि भुवनत्रये । -निर्वाण तन्त्र

शिर पद्य (सहस्रार कमल) में परम गुरु महान् देव अवस्थित है। उसके समान तीनों लोकों में और कोई पूज्य नहीं।

शिरःपद्ये शुक्लं दश शत दले केसर गते। ततः त्रीण कल्पे परम शिव रुपं निभगुरुम्-निर्वाण तन्त्र

सहस्र दल शिर पद्य के बीच शिव रूप परम गुरु का निवास है।

अत ऊर्ध्व दिव्य रुपं सहस्रारं सरोरुहम्। ब्रह्माण्डारव्यस्य देहस्य बाह्ये तिश्ठति मुक्तिदम्। कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिश्ठति-शिव संहिता

(तालु के) ऊपरी भाग रूपी सरोवर में दिव्य स्वरूप वाला सहस्रार है, यह इस ब्रह्माण्ड रूपी देह के बाहर विद्यमान् रहता है। इसी सहस्रार स्थान का नाम कैलाश है। महेश यहीं निवास करते हैं

शिरः कपाल विवरे ध्यायेद् दुग्ध महोदधिम्ः। तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्ये चन्द्र विचित्त येत्-शिव संहिता

शिर के कपाल विवर में क्षीर सागर भरा हुआ है। उस पर सहस्रार कमल चन्द्रमा की तरह प्रकाशवान होने का ध्यान करें।

श्रुति में इस परम पुरुष को ‘सहस्र शीर्शा पुरुष' कहा गया है। उसे ‘सहस्र आँख, पाँव, भुजा वाला बताया गया है। परब्रह्म को सहस्र संख्या के साथ सम्बन्धित किया है। यह सहस्रार चक्र की ओर ही अंगुल निर्देश है-

र्येन देवाः पवित्रेण आत्मानं पुनते सदा। तेन सहस्रं धारेण पावमान्यः पुनन्तु मा॥

प्राण-शक्ति की जिस पवित्रता से देवगण अपनी आत्मा को सदा पवित्र करते रहते हैं, वही पावमान प्राण हजार धाराओं से मुझे शुद्ध करे।

अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्धज्छतं ते प्राणः सहस्रं व्याना। त्वं साहस्रस्य राय ईशिशे तस्मैं ते विधेम-वाजाय स्वाहा-वा-य॰ 17।7

हे सहस्र नेत्र वाले अग्ने ! तेरे सैकड़ा प्राण, सैकड़ों उदान और सहस्र व्यान हैं। सहस्रों धनों पर तेरा प्रभुत्व है। इसलिए शक्ति के लिए हम तेरी प्रशंसा करते हैं।

पुरुशो वै सहस्रस्य प्रतिमा-शत 7।5।2।17

यह पुरुष सहस्र (चक्र) की प्रतिमा है। सहस्रार साधना का प्रतिफल उस आत्म-ज्ञान की-ब्रह्मबोध की उपलब्धि बताया है जिसे प्राप्त करने के उपरान्त समस्त साँसारिक क्लेशों से छुटकारा मिलता है और अंतःक्षेत्र के भव-बन्धनों से मुक्ति मिलती है। मोक्ष की प्राप्ति, ब्रह्म प्राप्ति, दिव्य समाधि, जीवन-मुक्ति जैसी परम सिद्धि इस सहस्रार महाकेन्द्र से ही उपलब्ध होती है । यथा -

स्थाने परं हंस निवास भूते कैलाशनाम्नी ह निविश्टचेताः । योगी हृतव्याधिरधः कृताधिर्वायुश्चिरं जीवति मृत्युमुक्तः ॥ -शिव सं0 5।189

अर्थ- इस कैलाश नामक स्थान में परमहंस का निवास है जो साधक सहस्र दल कमल में मन को स्थिर करता है, उसकी सकल व्याधि नाश हो जाती है और मृत्यु से छूट कर अमर हो जाता है।

आनन्दमय कोश का तात्पर्य है -आनन्द का भण्डार ।

सहस्रार कमल उसका केन्द्र संस्थान है। इसे अमृत कलश भी कहते हैं। यह जागृत स्थिति में हो तो उससे अपने को आनन्दित रखने वाला और दूसरों में पुलकन उत्पन्न करने वाला प्रवाह निसृत होता रहेगा। यह ज्ञानमय है। आत्म-बोध एवं तत्त्वबोध की ज्ञान धारा जीवन के हर क्षेत्र का सिंचन करती और उसे हरितमा, शोभा , सुषमा युक्त बनाती हैं । इस आनन्द को आत्म-विस्तार को सरसता के रूप में अनुभव किया जाता है। परमेश्वर की विवेचना ‘रसो वै सः के रूप में की गई है। यह ‘रस’ इन्द्रिय उत्तेजना से मिलने वाले उन्माद जैसा नहीं, वरन् ‘प्रेम’ जैसा सौम्य एवं सात्विक है। इसे भक्ति-रस भी कहा जा सकता है। व्यवहार में इसे आत्म-भाव का विस्तार कह सकते हैं। दया, करुणा, ममता, उदारता, सेवा आदि सुकुमार सम्वेदनाएँ इसी आत्म-विस्तार वृत्ति के सहारे उठती, उमंगती और पनपती है। इस सरसता को अध्यात्म शास्त्रों से सोम-रस के नाम से पुकारा गया है। देवताओं को अमृत पान यही है। इसका रसा -स्वादन ब्रह्मानन्द कहलाता है। इसी विशेषता के कारण परमात्मा को ‘सच्चिदानन्द’ कहा जाता है।

सहस्रार कमल में परिपूर्ण अमृत कलश से उपलब्ध होने वाले सुधारस, सोमरस की चर्चा इस प्रकार मिलती है-

तन्निर्गतामृतरसै रभिशिच्य गात्र-मार्गेण तेन विलयं पुनरण्यं वाप्ता । येशा हृदि स्फुरति जातु न ते भवेयु-र्म्मातर्महेश्वर कुटुम्बिनि गर्भभाजः-तन्त्र सार

हे माता ! तुम सहस्र दल कमल से निकलते हुए सुधारस से देह को अभिषिक्त करती हुई सुशुम्ना के मार्ग में जाकर लीन हो जाती हो। जिस मनुष्य के हृदय पद्य में तुम्हारा उदय नहीं होता, वह मनुष्य बारम्बार गर्भ धारण का दुःख उठाता है

व्योम पंकजानिश्यन्द सुधापानरतो भवेत्। मद्यपानमिदः प्रोक्तमितरे मद्यपायिनः॥

ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रार कमल से जो रस टपकता है वही मद्य-पान है । नया पीने वाले तो शराबी मात्र हैं

“नूनव्य से नवीय से सूक्तायं साधया पथः। प्रत्नवद्रोचया रुचः । पवमान महिश्रवो गामश्वं रासि वीरवत्। सना मेधा सना स्वः॥ ऋ॰ 9।9।8-9

यह सोम जिसके अन्तःकरण में प्रतिष्ठित होता है उसे आत्म-विकास और सुख समुन्नति की अलौकिक प्रेरणाएँ अन्तःकरण से स्वतः प्रस्फुटित होती है।

पुमन् सोम नः तमासि योध्या। तानि पुनान जंघनः॥ -ऋ॰ 9।9।7

यह सोम पाप और अन्धकार से लड़ने की प्रेरणा देते हैं और अपने साधक को वीर बनाते हैं।

सेमेन पूर्ण कलशं विभर्शि। -अथर्व

सोम से भरा शीर्श कलश इसी शरीर में है।

दिवः पीयूशमुत्तमं सोमं। -अथर्व

यह सोम द्युलोक में रहता है

प्रत आश्विनीः पवमान धीजुबो दिव्या। असृग्रन् पयसा धरीमणि। प्रान्तऋशयः। स्थावरी रसृक्षत येत्वा मृजन्त्य शिशाण वेधसः-ऋग्वेद

हे सोम तेरी दिव्य धाराएँ मस्तिष्क में दिव्य रस को प्रवाहित करती है। ऋषित्व को प्रदान करती है। जो उसे अपने में धारण कर लेता है वह निरन्तर भाव प्रवाहों से भरा रहता है।

शिर एवास्य हविर्धान वैश्णवं देवतयाथ यदस्मिन् सोमो भवति हर्विर्व देवानाँ सोमस्तस्माद्धविर्धानं नाम-शतपथ

यह मस्तिष्क ही देवलोक है। जहाँ इन्द्रिय संचालक केन्द्रों के रूप में देवता विराजते हैं। यहीं सोम को हवि दी जाती है। यहीं देवता सोमपान करते हैं।

स्पष्ट है कि यह सारे संकेत सहस्रार चक्र स्थित अमृत कलश की ओर ही है। वहाँ से निकलने वाली ज्ञान गंगा जीवात्मा को पवित्र और परितृप्त करती है। आत्मिक आनन्द इसी स्थिति में मिलता है। आनन्दमय कोश की सार्थकता इसी अमृत की अधिकाधिक मात्रा में वर्षा कर सकने में है।

सहस्रार चक्र की साधना के लिए दो मार्ग है-एक ब्रह्मरंध्र में प्रकाश-ज्योति का ध्यान, दूसरा खेचरी मुद्रा द्वारा तालु दंश से जिह्वा मूल को लगाकर इस अमृत रस का पान करना । खेचरी मुद्रा के स्वरूप, सन्दर्भ एवं प्रतिफल के सम्बन्ध में मिलने वाले उल्लेखों में से कुछ इस प्रकार है-

कपालकुहरे जिह्ना प्रविश्टा विपरीतगा। भ्र वोरर्न्तगता दृश्टिर्मुद्रा भवति खेचरी॥

न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृशा। न च मूर्छा भवेत्तस्य यो मुद्रा वेत्ति खेचरीम्॥

पीड्यते न च रागेण लिप्यते न स कर्मभिः। बध्यते न च केनापि यो मुद्रा वेत्ति खेचरीम्-योग चूड़ामण्युपनिशद्

जिह्वा को उलट कर कपालकुहर में प्रविष्ट कराने तथा भूमध्य में दृष्टि स्थिर रखने से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है। जो खेचरी मुद्रा जानता है, वह रोग , मृत्यु , निद्रा, भूख-प्यास व मूर्च्छना से मुक्त रहता है। उसे रोग पीड़ा नहीं पहुँचा पाते, कर्म लिप्त नहीं कर पाते और कोई भी विवश नहीं कर पाता।

यत्प्रालेयं प्रहितसुशिरं मेरुमूर्धान्तरस्यं। तस्मिन्तत्वं प्रवदति सुधीस्तन्मुखं निम्गाम्॥

चंद्रात्सारः स्रवति वपुशस्तेन मृत्युर्नराणा। तद्वध्नीयात्सुकरणमथो नान्यथा कार्य सिद्धिः॥

मेरु पर्वत जैसी सुशुम्ना नाड़ी के ऊर्ध्व भाग में चन्द्रामृत स्थित है। उसी में आत्म तत्व का निवास है। तालु में छिद्राकाश में जो गंगा-यमुना सरस्वती, इडा, पिंगला, सुशुम्ना आदि नदियों का मुख है। यही चन्द्रसार टपकता है। इसका खेचरी मुद्रा द्वारा जो पान करता है उसकी काया लावण्य युक्त वज्र जैसी बलवान हो जाती है। इस साधना के बिना कार्य सिद्धि कैसे हो ?

खेचरी योग तो योगी शिरश्चंद्रादुपागतम्। रसं दिव्यं पिशेन्नित्यं सर्व व्याधि विनाशनम्-योग रसायन

खेचरी-साधना में योगी शिरश्चन्द्र से झरने वाले उस दिव्य रस को पीता है जो सब व्याधियों का नाश करने वाला है।

चित्तं चलति नो यस्माज्जिह्ना चरित खेचरी। तेनेयं खेचरी सिद्धा सर्वसिद्धै नर्मस्कृता-गोरक्ष सहिता 1।65

जिस योगी का चित्त चंचल नहीं होता और जिसकी जिह्वा खेचरी में रमण करती है, उनके लिए यह सभी सिद्धों द्वारा नमस्कार की हुई खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है।

पीड्यते न च शोकेन न च लिप्यते कर्मणा। बाध्यते न स केनापि यो मुद्रा वेत्ति खेचरीम्-गोरक्ष संहिता

जो खेचरी मुद्रा को सिद्ध कर लेता है, उसे भव-बन्धन में नहीं पड़ना होता। न तो उसे शोक होता है और न वह कर्म में ही लिप्त होता है।

अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्था गतोऽपि वा। खेचरी यस्य सिद्धा तु स शुद्धो नात्र संशयः ॥ -शिव संहिता

जिसे खेचरी मुद्रा सिद्ध है वह अपवित्र या पवित्र कैसी भी परिस्थिति में स्वयं शुद्ध, स्वस्थ प्रफुल्ल ही रहता है।

खेचरी मुद्रिकाभ्यासादनदः स्याहिनेदिनंः । सर्व संकल्प सत्यागायज्जगद्विस्मरणं भवेत्-योग रसायनम्

खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दिन-प्रतिदिन आनन्द बढ़ता है, विश्व प्रपंच का मोहपूर्ण स्मरण फिर नहीं होता तथा उससे सम्बद्ध सभी संकल्प भी छूट जाते हैं।

मृत्यु व्याधि जराग्रस्तो दृश्ट्वा विद्यामिमा मुने। बुद्धि दृढ़तरा कृत्वा खेचरीं तु समभ्यसेत्-कुण्डल्युपनिशद्

मनुष्य को मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे से ग्रस्त देखकर मननशील साधक को सुदृढ़ बुद्धि से इस खेचरी विद्या का अभ्यास करना चाहिए।

सिद्धीना जननी ह्येशा मम प्राणाधिकप्रिया। निरन्तर कृताभ्यासात् पीयूशं प्रत्यहं पिवेत्-शिव संहिता

यह खेचरी मुद्रा मुझ शिव को प्राण प्रिय है। यह सिद्धियों की जननी है। इसका निरन्तर अभ्यास करने वाला अमृत पान का लाभ प्राप्त करता है।


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