गृहस्थ साधक (कहानी)

March 1977

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गृहस्थ साधक गुरु के पास पहुँचा। अपनी पीड़ा व्यक्त की। कष्ट यह था कि ध्यान का अभ्यास करते समय मन गुरु द्वारा उपदिष्ट निर्दिष्ट दिशा में सक्रिय रहने के स्थान पर दिन भर के गतिविधियों के जाल-जंजाल में उलझ जाता था। गुरु ने साधक को 10 दिन वहाँ आश्रम में रहने को कहा और उसे एक कुत्ते को पालने का निर्देश दिया। साधक चकराया । कुत्ते के पालन-पोषण का भी साधना से कोई संबंध हो सकता है भला। किंतु गुरु-आज्ञा थी।

साधक उस कुत्ते को रोज स्नेहपूर्वक रोटी खिलाता, पुचकारता। उस पर एक पट्टा भी बाँध दिया। एक सप्ताह बीत गया। आठवें दिन गुरु ने साधक को बुलाया। कहा— "कुत्ते को ले जाकर आश्रम के बाहर छोड़ दो; भगा दो उसे।" साधक कुत्ते को बाहर ले गया, पट्टा खोला और दुत्कार कर भगाया। ‘आश्रम वापिस पहुँचा।” थोड़ी देर में देखा, कुत्ता भी वहीं आ गया है। पुनः बाहर ले गया। थोड़ी देर में कुत्ता फिर हाजिर। बीसों बार यही क्रिया-प्रक्रिया दुहराई गई।

हार मानकर साधक गुरु के पास पहुँचा। स्थिति निवेदित की। गुरु मुस्करा उठे— “बेटे! अपने जिन विचारोंरूपी कुत्तों का तेरा मन दिन भर खिलाता-पिलाता रहता है; जिनमें तादात्म्य भाव स्थापित कर लेता है; उन्हें ही उपासना के समय भगाना चाहता है। यह कैसे हो सकता है। जो विचार और भावबोध तुझे अभीष्ट तथा श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं, उनका दिन भर स्मरण रख। उसी पात-भूमिका के साथ सभी काम कर। यही साधना है। ऐसा करने पर ही उपासनाकाल में भी अभीष्ट भावभूमि बनी रह सकती है। जीवन-साधना के अभाव में उपासना भी सार्थक बन पड़ेगी।


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