ब्रह्मविद्या का उद्देश्य -श्रद्धा का संवर्धन

March 1977

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जीवन के दो पक्ष हैं। एक बहिरंग शरीर। दूसरा अन्तरंग चेतन। आत्म-परिष्कार के लिए इन दोनों को ही श्रेष्ठ एवं समुन्नत बनाने की आवश्यकता है। व्यक्ति की मूल सत्ता आस्थाओं के आधार पर अपनी दिशा धारा निर्धारित करती है।

मस्तिष्क की विचारणा और शरीर की क्रिया-पद्धति को न तो दोष दिया जा सकता है और न श्रेय। यह दोनों ही पहिये गाड़ी खींचने वाले बैल की इच्छानुरूप लुढ़कते हैं। शरीर जड़ है, उसकी अपनी न कोई इच्छा है और न गति। उसे मन की मर्जी पर चलना होता है। जिस काम को करने के लिए मन निर्देश देता है, उसी के अनुरूप ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ काम करने लगती, है। मस्तिष्क में सोचने, समझने, जानने, ग्रहण करने की क्षमता तो है, पर दिशा निर्धारण कर सकना उसकी सामर्थ्य से बाहर है। सूत्र संचालन तो आस्थाओं के गहन अन्तराल से होता है। नीति निर्धारण करना ‘हाईकमान’ का -अन्तःकरण का काम है। जीवन सत्ता पर पूरा शासन श्रद्धा रूपी राज्याध्यक्ष का छाया रहता है।

आस्था कामुकता की सरसता को स्वीकार कर चुकी हो तो बुद्धि उसी के अवसर तलाश करेगी, मस्तिष्क में उसी उपलब्धि के लिए ताना-बाना बुना जा रहा होगा और उपाय ढूँढ़े जा रहे होंगे। जिधर आशा और सम्भावना दृष्टिगोचर होगी, उधर ही पैर चल पड़ेंगे, आँखें खोज खबर लेंगी। सारा शरीर तन्त्र और मनःसंस्थान अपनी क्षमता को उसी प्रयोजन में लगा रहा होगा। इसके विपरीत यदि आस्था क्षेत्र में कामुकता को अहित कर होने की मान्यता दे चुकी होंगी उधर अरुचि एवं घृणा की स्थिति बन गई होगी तो बुद्धि का प्रवाह उधर बहेगा ही नहीं- मन उधर चलेगा ही नहीं। इन्द्रियों से वैसी हरकत करने की आशंका रह नहीं सकती । यही बात अन्यान्य बातों के सम्बन्ध में भी है। लोग बाहर से आदर्शवादिता की बक झक करते रहते हैं, पर अवसर मिलते ही ठीक अपने ही कथन के विपरीत आचरण करने लगते हैं।

संसार में कितने ही आदर्शवादी ऐसे हुए हैं जिन्हें भय और प्रलोभनों के बड़े-चढ़े अवसर आने पर भी किसी प्रकार डिगाया नहीं जा सका है। उन्होंने सिद्धान्तों की रक्षा के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहे और त्याग किये हैं। यह अंतःक्षेत्र में जमी हुई उच्चस्तरीय श्रद्धा का ही चमत्कार है। जिस प्रकार निकृष्ट आस्थाओं से प्रभावित व्यक्ति बड़े-बड़े खतरे उठा कर भी अपने दुष्ट मनोरथ पूरे करते हैं उसी प्रकार उत्कृष्ट आस्थाएँ भी आदर्शों की रक्षा करने में बड़ी से बड़ी बाजी लगाती देखी जाती है। ऐसे ही लोगों को महामानव कहते हैं। परीक्षा की हर कसौटी पर वे खरे सोने की तरह सही उतरते जाते हैं। इसके विपरीत आस्था क्षेत्र की निष्कृष्टता बनी रहने पर अनैतिक आचरण के कुकृत्य तथा कथित आदर्शवादी उपदेशकों द्वारा भी प्रस्तुत किये देखे जा सकते हैं।

अपने धर्म सम्प्रदायों के सम्बन्ध में प्रायः 5 गहरी आस्था होती है। तर्कों द्वारा उन्हें उस मान्यता के विपरीत कितना ही समझाया जाय, वे निरुत्तर हो जाने पर भी अपने पूर्वाग्रह को बदलने के लिए तैयार नहीं होते। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण से मस्तिष्क को कुछ समय के लिए प्रभावित किया जा सकता है। सहमति प्राप्त की जा सकती है, इतने पर भी यह आशा नहीं की जा सकती है कि नये विचार कार्य रूप में परिणत हो सकेंगे या उस प्रकार का परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। कथा प्रवचनों में रुचि लेने वाले प्रायः धर्म चर्चा सुनते रहते हैं। विचारों की दृष्टि से वे उन बातों से सहमति भी व्यक्त करते हैं, कभी-कभी तो वे उन बातों का दूसरों को भी उपदेश देते हैं। इतने पर भी उनके आचरण ज्यों के त्यों विपरीत बने रहते हैं। धर्म चर्चा और धर्माचरण की इस विसंगति का कारण खोजने पर एक ही तथ्य सामने आता है कि अन्तःकरण की गहराई तक धर्म आस्था का निर्माण न हो सका। मस्तिष्क की ऊपरी सतह तक वे आदर्शवादी प्रतिपादन तैरते भर रह गये। जिनकी आस्थाएँ परिपक्व होती है वे जटायु, शबरी, रीछ, बानर, गिलहरी आदि की तरह अनपढ़-अनगढ़ होने पर भी आदर्शों के लिए सर्वस्व निछावर कर देने से भी पीछे नहीं हटते। व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप उसकी श्रद्धा है। गीताकार ने सच ही कहा है -”श्रद्धमयोयं पुरुष यो युच्छुद्धम एव सा स” अर्थात् यह पुरुष श्रद्धामय है जिनकी जैसी श्रद्धा है वह वस्तुतः वैसा ही है।

व्यक्तित्व से बढ़कर और कोई महानता इस संसार में है नहीं। उसके ऊपर कुबेर का वैभव और इन्द्र का वर्चस्व निछावर किया जा सकता है। सप्त ऋषियों के व्यक्तित्व की तुलना में सात द्वीपों और सात समुद्रों की सम्पदा हलकी पड़ती है। उनके प्रतीक अभी भी आसमान में चमकते हैं। ध्रुव, प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, दधीचि, व्यास, चरक, बुद्ध, गाँधी जैसे व्यक्तित्वों पर सिकन्दर की सम्पदा सौ बार निछावर की जा सकती है। देवता ओर भगवान के दर्शन हम ऐसे ही महामानवों में करते हैं। उन्हीं के आधार पर देश, समाज और युग धन्य बनते हैं। ऐसे महामानवों का निर्माण मात्र आस्थाओं की उत्कृष्टता के आधार पर ही सम्भव होता है। उनकी शिक्षा, सम्पन्नता प्रतिभा एवं परिस्थिति छोटी हो तो भी वे आन्तरिक गरिमा के कारण जन-मानस पर असाधारण छाप छोड़ते हैं। उनके वचन ऋचाएँ बनते और संस्मरणों का गुणानुवाद लोग प्रभातियों की तरह गाते हैं। स्वयं में तो देवोपम स्वर्गीय आनन्द में विभोर रहते ही हैं, भले ही उनके पास साधन स्वल्प मात्रा में ही क्यों न हो?

हमें आस्थाओं का मूल्य समझना चाहिए। उनकी प्रतिक्रिया से परिचित होना चाहिए और यह जानना प्रतिक्रिया से परिचित होना चाहिए और यह जानना चाहिए कि अन्तःकरण का स्तर समुन्नत बनाने के उपरान्त आत्म-सन्तोष और लोक-सम्मान का कितना उच्चस्तरीय लाभ मिल सकता है। इस सफलता के सहारे लोग उन्नति के उस उच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं, जिसके लिए चतुर और समर्थ कहलाने वाले लोग भी तरसते ही रह जाते हैं। वस्तुतः अन्तःकरण में उत्कृष्ट आस्थाओं की सुसंस्कृत आकांक्षाओं की स्थापना कर लेना जीवन का वह लाभ है जिसे पुरातन भाषा में ईश्वर प्राप्ति-आत्म साक्षात्कार, बन्धन मुक्ति, साधना सिद्धि, स्वर्गानुभूति आदि नामों से कहा जाता रहा है।

ब्रह्म विद्या का उद्देश्य उच्चस्तरीय आस्थाओं का निर्माण करना है। अध्यात्म का विशालकाय तत्त्व-दर्शन इसी प्रयोजन के लिए महामनीषियों ने विनिर्मित किया है। उपनिषदों में उस गूढ़ ज्ञान का निरूपण है जिन्हें हृदयंगम करने के उपरान्त व्यक्तित्व में देवत्व का आत्मा के उभरने का अवसर मिलता है। परिष्कृत दृष्टिकोण ही गुण कर्म स्वभाव की श्रेष्ठता बनकर सामने आता है। सज्जनता दुर्बलता नहीं उसमें प्रचण्ड बलशाली तत्त्व भरे पड़े हैं। समझा जाता है कि सज्जनता के साथ जुड़ी हुई नम्रता में कायरता और भोलेपन के तत्त्व होते हैं। अतएव दुष्ट दुर्जन उन्हें ठगने और सताने में सफल होते रहते हैं। यह मान्यता उथली सज्जनता पर ही लागू हो सकती है। ब्रह्म विद्या की आस्थाओं में न्याय निष्ठा के प्रति अडिग रहने और औचित्य के आग्रह में चट्टान की तरह अडिग रहने के ही नहीं ब्रज के समान टूट पड़ने वाले आदर्श भी पूरी तरह भरे पड़े हैं। किसी भी मूल्य पर झंझट से बचने और अनीति सहते हुए भी शान्ति का लबादा ओढ़े रहने की गुँजाइश उस अध्यात्मवाद में रत्ती भर भी नहीं है, जिसे ब्रह्म विद्या के आधार पर विकसित किया जाता है। उत्कृष्टता में आत्म संयम और उदारता की जितनी मात्रा है उतनी ही न्यायनिष्ठ साहसिकता का भी समावेश है।

अध्यात्म विज्ञान का तत्त्व-दर्शन उच्चस्तरीय आस्थाओं को अन्तरात्मा में अति गहन स्तर तक प्रतिष्ठापित करने के लिए है। इसे अपना कर व्यक्तित्व की गरिमा सामान्य नर-पशुओं की तुलना में हजारों लाखों गुनी बढ़ जाती है। उसकी उपलब्धियाँ भी असाधारण होती हैं। ब्रह्म-विद्या के सहारे आत्म परिष्कार का जो लाभ मिलता है उसी में मानव जीवन की सच्ची सार्थकता है।


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