गायत्री का भर्गतत्व ब्रह्मवर्चस्

March 1977

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गायत्री का एक पक्ष है- ब्रह्म विद्या- दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप का परिष्कार उसका दूसरा पक्ष है-प्रसुप्त अन्तः शक्तियों का जागरण- ब्रह्म तेज का संवर्द्धन पौराणिक गाथाओं में ब्रह्मा जी की दो पत्नियाँ बताई गई हैं- एक गायत्री, दूसरी सावित्री। गायत्री को ब्रह्म विद्या और सावित्री को ब्रह्माग्नि नाम दिया गया है। अग्नि की तेजस्विता सर्वविदित है। अग्नि ऊर्जा से कितने प्रयोजन सधते हैं यह भी जानते हैं। आन्तरिक ब्रह्माग्नि भी अगणित भौतिक और आध्यात्मिक प्रयोजन सिद्ध कर सकने में समर्थ है।

साधना विज्ञान के दो पक्ष हैं- एक योग, दूसरा तप। योग कहते हैं जोड़ने-मिलाने को। जीव जब अपनी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं का परित्याग करके ईश्वरीय निर्देशों को-आत्म-संकेतों को स्वीकार करता है तब उसे समर्पित, शरणागत, भक्त अथवा योगी कहा जाता है। योग से आत्मा को देवात्मा-परमात्मा स्तर तक विकसित होने का अवसर मिलता है। तप से शक्ति उभरती है। अरणि मंथन से अग्नि उत्पन्न होती है। तितीक्षा के कष्ट-कारक विधि-विधानों से-आत्म-संयम मनोनिग्रह एवं उदात्त सेवा साधनों के लिए कष्ट उठाने से प्रसुप्त अन्तः क्षेत्र को प्रखर बनने का अवसर मिलता है। इस प्रखरता के सहारे विभिन्न स्तर की उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकना सम्भव होता है। तितीक्षा और साधना एक ही तथ्य के दो नाम रूप हैं। साधना से सिद्धि मिलने की मान्यता के पीछे शक्ति सम्पादन का रहस्य ही काम करता है। सशक्तता ही प्रगति, समृद्धि और विभूति के त्रिविध सत्परिणाम उत्पन्न करती रहती है।

गायत्री से शान्ति का-मोक्ष का द्वार खुलता है और सावित्री से सर्वतोमुखी समर्थता उपलब्ध होती है। सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर सफल यात्रा तभी हो सकेगी जब यह दोनों ही रथ-चक्र समान रूप से लुढ़कते रह सकें। गायत्री और सावित्री दो पृथक् सम्प्रदाय या मार्ग नहीं है। समग्र आत्मिक प्रगति के लिए दोनों को एक दूसरे का पूरक यहाँ तक कि अविच्छिन्न भी कहा जा सकता है। ज्ञान की ही तरह विज्ञान भी आवश्यक है। सुसंस्कारों के साथ-साथ पराक्रम की क्षमता भी रहनी चाहिए। अन्यथा एकांगी प्रगति का अधूरापन अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति न होने देगा।

गायत्री के ब्रह्म विद्या स्वरूप का संकेत ‘धियः’ शब्द में किया गया है। ‘भर्गः’ में उसके ‘तेजस्’ का प्रतिपादन है। दोनों के समन्वय से ही गायत्री तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का प्रकटीकरण होता है। शास्त्रों में गायत्री की ज्ञान गरिमा के साथ-साथ उसके तेजस्वी पक्ष का भी उल्लेख किया गया है।

ब्रह्मत्व चेदाप्तु कामोऽस्युयास्व गायत्रीं चेल्लोक कामोऽन्यदेवम्। बुद्धेः साक्षी बुद्धिगम्यों जयादौ गाय«यर्थः सोऽनद्यो बेदसारः तद ब्रह्मैव ब्रह्मतोपास-कस्या प्येवं मंत्रः कोऽस्ति तंत्रे पुराणै। -देवी भागवत

ब्रह्म तेज प्राप्त करने की इच्छा हो तो वेदमाता गायत्री की ही उपासना करनी चाहिए। अन्य कामनाओं के लिए अन्य देवताओं को पूजें।

इसी से साक्षी बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। यही वेदों का सार है। पापों से निवृत्ति और पवित्रता की सिद्धि इसी से मिलती है। ब्रह्मत्व की उपासना करने वाले के लिए यही साक्षात् ब्रह्म है। यह शिरोमणि मन्त्र है। इससे बढ़कर और कोई मन्त्र-तन्त्र आदि नहीं है।

यो वा अत्राग्निर्गायित्री स निदानेन। -शत॰ 1।8।2।15

गायत्री को ही निदान ( ब्रह्म ज्ञान) और अग्नि ( ब्रह्म शक्ति) का रूप समझना चाहिए।

गायत्री वा इद सर्व भूतं यदिदंकिडडड । छान्दोग्य 3।12।1

इस जड़ चेतन जगत में गायत्री ही शक्ति रूप से विद्यमान् है।

ब्रह्मण्य तेजो रूपा च सर्व संस्कार रूपिणी पवित्र रूपा सावित्री, वाँछतिह्यात्म शुद्धये। -देवी भागवत्

गायत्री ‘ ब्रह्म तेज’ रूप है। पवित्रता एवं संस्कार रूपिणी है। उससे आत्म-शुद्धि होती है।

गायत्री को सोम और सावित्री को अग्नि कहा गया है। यहाँ अग्नि से तात्पर्य है ब्रह्माग्नि, योगाग्नि। साधना क्षेत्र में इसी को जीवनी-शक्ति प्राण-ऊर्जा कुण्डलिनी शक्ति आदि नामों से पुकारते हैं ब्रह्म तेज इसी ब्रह्माग्नि की प्रतिक्रिया है। ओजस्, तेजस् एवं वर्चस् इसी को कहते हैं। ब्रह्माग्नि और ब्रह्म वर्चस् शब्दों में लेखन उच्चारण का ही अन्तर है। तथ्यों की दृष्टि से दोनों को एक ही कहा जा सकता है। ब्राह्मी ऊर्जा उपार्जित कर लेने वाले तपस्वी अपने ढंग के अनोखे शक्तिवान होते हैं। उनकी समर्थता अन्य किसी सामर्थ्य के साथ आँकी नहीं जा सकती है।

ब्रह्माग्नि की चर्चा शास्त्रों में स्थान-स्थान पर हुई है-

द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। आर्द्रचैव शुश्कं च यदार्द्र तत् सौम्यं यच्छुश्कं तदाग्नेयम्-शतपथ

यह संसार दो पदार्थों से मिलकर बना है - (1) अग्नि, (2) सोम। इनके अतिरिक्त तीसरा कुछ नहीं है।

अग्नि र्वा अहः सोमारात्रिराि यदन्तरेण तद् विश्णु। श0प॰ 3।4।4।15

अग्नि और सोम के मिलन को विष्णु कहते हैं।

इमौ तै पक्षावजरौ पतत्रिणौ याभ्या रक्षास्यपहं-स्यग्ने ताभ्या पतेम सुकृतामु लोकं यत्र ऋशयों जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः। -यजु0 18।52

हे अग्नि ! तेरे दोनों पंख फड़फडाते हैं। उनसे पाप और तम का हनन होता है। इन्हीं पंखों के सहारे हम उस पुण्य-लोक तक पहुँचते हैं जहाँ पूर्ववर्ती ऋषि पहुँचे थे।

इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा हिरण्य पक्षः शकुनो भुरण्युः । महान्तसधस्थे ध्रुव आ निशतो नम ते अस्तु मा मा हिंसी। -यजु0 18।53

हे अग्नि तू सोम रस से परिपूर्ण है । तू दक्ष है। तू ही ऋत युक्त है। तेरे अमृत सिक्त पंख हैं। तू शक्तिशाली है, पोषक हैं, तू मस्तिष्क में ध्रुव केन्द्र बनकर विराजमान् है। तुझे नमस्कार । तू हमें जलाना मत।

अग्निर्ललाटं यमः कृकाटम्। अथर्व 9।7।1

तुम्हारे ललाट में वह अग्नि उत्पन्न हो जो शिव रूप बनकर काम विकृतियों को भस्म कर सके।

ब्रह्म ह्यनिग्न स्तस्मादाह ब्राह्मणेति। शतपथ॰ 1।4।2।1

मनुष्य शरीर में विद्यमान् यह आत्मा रूपी अग्नि ब्रह्म ही है।

येन ऋशयस्तपसा सत्रमायान्निन्धानाँ अग्निं स्वराभरन्तः। तस्मिन्नहं निदधे नाके अग्निं यमाहुर्मनवस्तीर्णवर्हिशम्। यजु0 15।49

इस आन्तरिक अग्नि को ऋषि लोग अपने तप बल से प्रदीप्त करते हैं और उसे स्वर्ग लोक तक पहुँचा कर मस्तिष्क को प्रकाश से भरते हैं। यही दिव्य अग्नि है।

अग्निः पूर्वेभि ऋर्शिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवा एह वक्षति। ऋ॰ 1।1।2

प्राचीन और अर्वाचीन सभी ऋषि अग्नि का आश्रय लेते हैं क्योंकि वही देवताओं को धारण करती है।

तामग्ने अस्मे इशमेरयस्व वैश्वानर द्यमतीं जातवेदः। यया राधः पिन्वसि विश्ववार पृथुश्रवो दाशुशे मर्त्यायं। ऋ॰ 7।5।8

हे अग्नि, हमारे भीतर वे उदात्त आकांक्षाएँ पैदा करो जिनसे प्रभावित होकर तुम प्रसन्न होते हो और कीर्ति एवं सिद्धियाँ प्रदान करते हो।

अग्ने विवस्वदुशसश्चित्र राधो अमर्त्य। आ दाशुशे जातवेदी वहात्वमद्या देवाँ उशर्बुधः॥ ऋ॰ 1।44।

हे अग्नि मेरे जीवन की ऊषा बनकर प्रकटो। अज्ञान के अन्धकार को दूर करो। ऐसा आत्म-बल प्रदान करो जिससे देवों का अनुग्रह खिंचा चला आवे।

त्वदग्ने काव्यास्त्वन्मनीशास्त्वदुक्था जायंते राध्यानि। त्वदेति द्रविणं वीरपेशा इत्याधिये दाशुशे मर्त्याय॥ ऋ॰ 4।11।3

हे अग्नि! आप सत्य को धारण करने वाले उदार व्यक्ति के अन्तःकरण में कवित्व जैसी करुणा भर देते हो। तुम्हारी ऊष्मा से ही साहसी लोग सिद्धियाँ और सफलताएँ प्राप्त करते हैं।

अग्ने तवश्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो। वृहद्भानो शवसा बाजमुक्थ्यं दधासि दाशुशे कवे॥ ऋ॰ 10।140।1

हे अग्नि! शरीर में संव्याप्त होकर आपकी प्रशंसनीय ज्वालाएँ हर दिशा में चमकती हैं। भाव-विभोर उदात्त व्यक्ति को आप ही उत्थान की प्रेरणा और प्रतिभा प्रदान करती हैं।

यत् ते पवित्रमर्चिशि, अग्ने विततमन्तरा। ब्रह्म तेन पुनीहि नः ॥ ऋ॰ 9।67।23

हे अग्नि देव जो पवित्र और विशाल ब्रह्म तेरी ज्वाला में लस-लस कर रहा है, उससे हमें पवित्र करो ।

इदं वर्चो अग्निना दत्तमागन्, भर्गो यशः सहः ओजो वयो बलम्। त्रयस्त्रिशद्यानि च वीर्याणि, तान्यग्निः प्र ददातु में-अथर्व 19।30।1

मुझे अग्नि द्वारा क्या कुछ नहीं मिल रहा? प्रकाश तेज , यश प्रभाव, पराक्रम और बल-सभी मेरे अन्दर आ रहे हैं। मुझ पर अग्नि की कृपा बनी रहे और मुझे तैंतीस प्रकार के सभी वीर्य प्राप्त होते रहें।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि मा निवर्तस्वायुशा वर्चसा प्रजया धनेन सन्या मेधवा रय्या पोशेण। यजु0 12।

हे अग्नि देव आप तू आयु, वर्चस, प्रजा, धन, दान, मेधा, रयि, पुष्ट बनकर अपना अनुग्रह हमें प्रदान करें।

इस ब्रह्माग्नि के - योगाग्नि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसे गायत्री का ही ब्रह्म तेजस् कहा गया है।

यो वा अत्राग्नि गायत्री। -शतपथ 8।2।15

गायत्री दिव्य अग्नि है।

गायत्री के 24 अक्षरों में सन्निहित 24 शक्तियों की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहता है-

आजश्शक्ति बल प्रभाव सुशमा तेजस्सु वीर्यप्रभा। ज्ञानैर्श्वय महस्सहो जययशस्स्थैर्य प्रतिश्ठाश्रियः॥ विज्ञान प्रतिभा मतिस्मृ तिधृति प्रज्ञाप्रथस्सु ज्वलाः। वर्णास्त्वन्मानुगै स्त्रिरशभि रहो बर्ध्यन्त एवात्रमें॥

“ओज, शक्ति, बल, महिमा, कान्ति, तेज, पराक्रम, प्रकाश, ज्ञान, ऐश्वर्य, विकास, सहनशक्ति, जय, कीर्ति, स्थिरता, प्रतिष्ठा, लक्ष्मी, विज्ञान, प्रतिभा, मति, स्मृति, घृति, प्रज्ञा, ख्याति- यह चौबीस गुण हे माता! तुम्हारे मन्त्र में रहने वाले चौबीसों वर्णों द्वारा मुझमें अभिवृद्धि पा रहे हैं।”

इस सावित्री शक्ति की गरिमा को भगवान् मनु सशक्तता के क्षेत्र में सर्वोपरि मानते हैं।

सावित्र्यास्तु परान्नास्ति-मनु 2।83

सावित्री से बढ़ कर श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

ज्ञान को ब्रह्म और विज्ञान को क्षात्र कहा गया है। भारतीय धर्म में दोनों को समान महत्त्व दिया गया है और दोनों के उपार्जन में समान प्रयत्न करने का निर्देश दिया गया है-

द्रोणाचार्य के शास्त्र और शस्त्र धारण का कारण-

ब्रह्म और क्षात्र दोनों को समान उपयोगिता के रूप में बताया गया है-

अग्रतः चतुरो वेदा पृश्ठतः सशरं धनु। इदं ब्राह्मं इदं क्षात्र शास्त्रादपि शरादपि-महाभारत

हम वेदों को आगे रखकर लोगों को समझाने और सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं। साथ ही पीठ पर धनुष बाण भी रखते हैं। यह धर्म शिक्षा ‘ ब्राह्म’ है और यह शस्त्र धारण ‘क्षात्र’ है। दोनों शक्तियों के समन्वय से ही समस्याएँ सुलझती है।

नाब्रह्म क्षत्रमृघ्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते।

ब्रह्म-शक्ति के बिना क्षात्र-शक्ति नहीं बढ़ती और क्षत्र-शक्ति के बिना ब्रह्म-शक्ति नहीं बढ़ती । परस्पर मिली हुई ब्रह्म-शक्ति और क्षत्र-शत्रि ही इस लोक और परलोक में वृद्धि को प्राप्त होती है।

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यंचौ चरतौ सह। तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेशं यत्र देवाः सहाग्निना-यजुर्वेद 20।25

“जहाँ ब्राह्म-शक्ति और क्षात्र-शक्ति साथ-साथ रहती है, वही लोक पुण्यशाली होता है।” इस मन्त्र में आये हुए ‘ ब्रह्म’ और ‘क्षात्र’ पद क्रमशः ज्ञान और कर्म के वाचक है। ये दोनों शक्तियाँ जहाँ होंगी वही प्रगति के आधार बनेंगे।

ब्रह्मणि खलु वै क्षत्रं प्रतिश्ठितम् क्षत्रे ब्रह्म-अथर्व 8।12

ब्रह्म में क्षत्र की स्थिति होती है और क्षत्र में ब्रह्म की।

ब्रह्म च क्षत्रं च संश्रिते-अथर्व 3।11

ब्रह्म और क्षत्र परस्पराश्रित होते हैं।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात्। एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वाँस्तस्यैप आत्मा बिशते ब्रह्मधाम-मुण्डकोपनिशद् 3।2।4

वह परमात्मा निर्बल मनुष्य से भी नहीं जाना जाता अथवा पाखण्ड रूप तप से भी वह नहीं मिलता। हाँ जो विद्वान्, बल, कर्म, अप्रमाद आदि उपायों का अभ्यास करता है उसी का आत्मा ब्रह्मलोक में प्रवेश करता है।

ज्ञान को शिव और बल को शक्ति का प्रतीक माना गया है। मात्र ज्ञान ही सम्पादित किया जाय और बल की उपेक्षा होती रहे तो उस एक पक्षीय प्रगति से कुछ का चलने वाला नहीं है। शक्ति पक्ष की गरिमा बताते हुए कहा गया है-

शक्ति बिना महेशानि सदाऽहंशव रुपकः । शक्ति युक्तो महादेवि शिवोऽहं सर्व कामदः॥

शक्ति के बिना महादेव केवल शव मात्र है। शक्ति युक्त होने पर ही वे समर्थ शिव बनते हैं।

शववच्छक्ति हीन स्तु प्राणी भवति सर्वदा। शक्ति हीन प्राणी तो मृतक तुल्य है। रुद्र हीनं विश्णु हीन न वदन्ति जनः किल। शक्ति हीनं यथा सर्वे प्रवदन्ति नराधमम्॥

किसी का तिरस्कार करना हो तो उसे रुद्र हीन, विष्णु हीन नहीं कहा जाता, वरन् उसे शक्ति हीन, अशक्त, निकम्मा कहकर ही तिरस्कृत किया जाता है।

प्रभावेणैव गाय«याः क्षत्रिय कौशिको वशी। राजर्शित्वं परित्यज्य ब्रह्मर्शि पद मीयिवान्॥

सामर्थ्य प्रायचात्युच्चै रन्यद्भुवन सर्जने। किं किं न दयात् गायत्री सम्यगेव मुपासिता-स्कन्द पुराण

क्षत्रिय विश्वामित्र ने राजर्षि पद से उन्नति करते हुए ब्रह्मर्षि पद गायत्री उपासना के बल पर ही प्राप्त किया। दूसरी नई सृष्टि रच डालने की शक्ति भी प्राप्त की थी। भली प्रकार साधना की हुई गायत्री से भला कौन-सा लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान दोनों ही पक्षों को अपनाने से सम्भव होती है। अस्तु उसकी सावित्री तेजस्विता को भी उपलब्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहा जाना चाहिए।

तस्या एश तृतीयः पादः स्वर्घियों यो नः प्रचोदयादिति स्त्री चैव पुरुशश्च प्रजयनतः। यो वा एताँ सावित्रीमेवं वेद स पुनमृत्यु जयति-साविश्णु पनिशद् 12।13।14

इस सावित्री देवी की जो स्त्री, पुरुष, गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न करते हैं उनकी बार-बार मृत्यु नहीं होती।

जो इस सावित्री विद्या को जानता है, वह विद्वान् कृत-कृत्य हो जाता है और सावित्री लोक को प्राप्त करता है। यह उपनिषद् है।

यह आत्म-शक्ति दो प्रकार के प्रयोजन पूरे करती है। एक तो उसके सहारे सर्वतोमुखी प्रगति के आधार हस्तगत होते हैं, दूसरे दुष्टता को निरस्त करने के लिए ब्रह्म दण्ड के रूप में इसका प्रयोग हो सकता है। सुसम्पन्नता प्राप्त करने के लिए जिस आन्तरिक बलिष्ठता की आवश्यकता है वह सावित्री उपासनात्मक और साधनात्मक अवलम्बन ग्रहण करने से उपलब्ध हो सकती है। उपासना को व्यायाम और साधना को आहार-विहार की सुव्यवस्था के समतुल्य माना गया है। अन्तःशक्ति के सहारे व्यक्तित्व को परिष्कृत बनाया जाता है और उस आधार पर अनेकानेक सिद्धियाँ, सरलताएँ प्राप्त करने का पथ-प्रशस्त होता चला जाता है।

ब्रह्मण्य तेजो रूपा च सर्व संस्कार रूपिणी। पवित्र रूपा सावित्री गायत्री ब्राह्मण प्रिया-देवी भागवत्

यह सावित्री ब्रह्म तेज रूप है। इस गायत्री को अपनाने से सुसंस्कारिता, पवित्रता एवं ब्रह्म परायणता प्राप्त होती है।

सावित्री प्रवेश पूर्वकमप्सु सर्व विद्यार्थ स्वरूपा ब्राह्माण्या धाराँ वेदमातरम्-परमहंस परिब्राजकोपनिशद्

सर्व विद्याओं की अधिष्ठात्री, ब्रह्म धारा, वेदमाता गायत्री में प्रवेश करते हुए साधना करनी चाहिए।

तपः संपादिनी सद्यो भारतेशु तपस्विनाम्-देवी भागवत

तपस्वियों में तप शक्ति बनकर तुम्हीं विराजमान् हो।

तपः स्वरूपा तपसाँ फलदात्री तपस्विनाम्। सिद्धिविद्यास्वरुपा च सर्व सिद्धिप्रदा सदा। यया बिना तु विप्रौघो मूको मृतसमः सदाः-देवी भागवत

वह तप स्वरूपिणी है, तपस्वियों को फल प्रदान करती है। उसी को सिद्धि कहते हैं, उसी को विद्या। उसके अभाव में साधक मूक और मृतक तुल्य ही बना रहता है। समस्त सिद्धियों के देने वाली तो वह भगवती ही है।

सद्भावना का संवर्द्धन जिस प्रकार जीवन विकास का महत्त्वपूर्ण तथ्य है, उसी प्रकार दुष्टता का निराकरण भी उतना ही आवश्यक है। अन्यथा आसुरी तत्त्व उपार्जित सज्जनता को भी जीवित नहीं रहने दे सकते । शास्त्रकार ने अहंकार जन्य, क्रोध की निन्दा की है किन्तु अनीति के विरुद्ध तन कर खड़े हो जाने वाले ‘मन्यु’ की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा भी की है। वन्य पशुओं से रक्षा न की जाय तो न कृषि फलीभूत होगी और न उद्यान से कुछ उपार्जित किया जा सकेगा। सुरक्षा के अभाव में तो श्रम उपार्जित आजीविका भी दस्युओं के उदर में चली जाएगी। न्याय की रक्षा के लिए अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना ही होता है। देवत्व की रक्षा, असुरत्व के उन्मूलन बिना हो ही नहीं सकती ।अस्तु अन्य सुरक्षा साधनों की तरह ब्रह्म शक्ति का उपयोग भी होता रहा है।

राजा विश्वामित्र का आक्रमण महर्षि वशिष्ठ पर हुआ तो उन्होंने प्रतिरोध के लिए अपनी नन्दिनी ब्रह्म-शक्ति का ही उपयोग किया। इस प्रतिरोध से विश्वामित्र का आक्रमण परास्त हो गया। तब उनने भौतिक और आत्मिक बल की तुलना करते हुए आत्म-बल की - ब्रह्म बल की गरिमा को ही श्रेष्ठ माना और राज-पाट छोड़ कर उसी के उपार्जन में जुट गये।

परास्त विश्वामित्र ने भौतिक बल को -क्षत्रिय बल को धिक्-तुच्छ कहा और ब्रह्म-बल की गरिमा को बार-बार स्वीकार करते हुए, उसी को उपलब्ध करने की प्रतिज्ञा की। उनने कहा-

धिग्बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजोबलं बलम्। एकेन ब्रह्म दण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि में -महाभारत

राजा विश्वामित्र ने कहा- भौतिक बल तुच्छ है। ब्रह्म बल ही महान् बल है। एक की ब्रह्म दण्ड ने मेरे समस्त शस्त्र बल को निरस्त कर दिया।

लिंग पुराण में राजा क्षुप और दधीचि के मध्य हुए एक कटु प्रसंग का वर्णन आता है। क्षुप अपनी सामर्थ्य की धमकी देते हुए दधीचि से ब्रह्म तेज के संदर्भ में कुछ अपमानजनक शब्द कहने लगे। इस पर दधीचि के ब्रह्म बल के गौरव का स्मरण राजा को दिलाया और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये राजा की उपेक्षा करते हुए स्वाभिमान प्रदर्शित करते हुए राजा को जहाँ का तहाँ बैठा छोड़कर अपनी कुटिया में चले गये। इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-

देवैश्च पूज्या राजेन्द्र नृ पैश्च विविधैर्गणैः। ब्राह्मणा एवं राजेन्द्र बलिनः प्रभविश्णुवः॥ इत्युक्त्वा स्वोटजं विप्रः प्रविवेश महाद्युतिः। दधीचमभिवद्यैव जगाम स्वं नृपः क्षयम् ॥ -लिंग पुराण

अर्थात्- “देवों के द्वारा, नृपों के द्वारा तथा अन्य सब व्यक्तियों के द्वारा ब्राह्मण सम्मान के योग्य और अधिक शक्तिशाली होता है। इतना कहकर वे महा तेजस्वी मुनि कुटिया में प्रवेश कर गये और राजा उनकी वन्दना करके अपने नगर को चला गया।”

शत्रु तो न भयं तस्य दस्युतो क्वान राजनः न शस्त्रानल तो यौधा स्दाचित्सं भविष्यति।

ब्रह्म तेज सम्पन्न को न शत्रुओं का भय रहता है न दस्युओं का, न राजा का, न शस्त्र का, न अग्नि का। वह सब प्रकार के भयों से मुक्त होकर निर्भय बन जाता है।

शिव उमा संवाद में भी एक ऐसा ही उल्लेख है-

तक्षकेशापि दंश्टस्य प्रतीकारी हि तत्क्षणात्। ब्रह्म शाप प्रसक्तस्य कल्पान्तेस्यात् प्रतिक्रिया। नरकाग्निश्कृति नास्ति तस्या भावान्न संशयं। एवं तद्वंशजाः सर्वे पीडयन्तेऽहर्निशं प्रिये।

तक्षक सर्प के काटे का उपचार हो सकता है, पर ब्रह्म शाप पीड़ित का नहीं। उन अभिशप्तों को चिरकाल तक नारकीय अग्नि में जलना पड़ता है।

ब्रह्म-शक्ति के तीन अस्त्र गिनाये गये हैं- (1) ब्रह्मास्त्र (2) ब्रह्म दण्ड (3) ब्रह्मशीर्ष। इनका उल्लेख विश्वामित्र कल्प में इस प्रकार हुआ है।

ब्रह्मास्त्रं ब्रह्म दण्डं च ब्रह्मशीर्ष च संयुक्तम्। अर्ध्य त्रियं प्रयोगार्थ एक मेवा युदाहृतम्-विश्वामित्र कल्प

तन्त्र ग्रन्थों में गायत्री की ब्रह्मास्त्र शक्ति का वर्णन ब्रह्म शाप आदि के रूप में आता है। इस सन्दर्भ में कितने ही प्रयोगों की भी चर्चा है। एक गायत्री स्तवन में आता है-

ब्रह्मास्त्रं ब्रह्मशापं च ब्रह्म विद्या सनातची।

हे गायत्री माता-आप ब्रह्म विद्या की ही तरह ब्रह्मास्त्र और ब्रह्म शाप भी हैं।

ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं त्रिशु लोकेशु विश्रुतम्। सत्यात्राय दातव्यं न देयं यस्य कस्य चित्।

यह ब्रह्मास्त्र परम प्रचण्ड है। इसका विधान केवल सत्पात्रों को ही बताया जाय। जिस-तिस को न सिखाया जाय।

ब्रह्मास्त्रारव्यो मनुः पातु सर्वागे सर्व सन्धिशु।

यह ब्रह्मास्त्र समस्त मर्मस्थलों की सुरक्षा रख सकने में समर्थ है।

ब्रह्म शक्ति ने अपनी असुर संहारिणी शक्ति का परिचय देते हुए कहा है-

अहं रुद्राय धनुरातनेमि ब्रह्मद्विशे शर वे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आविवेश।

“ मैं ब्रह्म ज्ञान विरोधी विनाश योग्य रुद्र (एकादश इन्द्रियों) को हनन करने के लिए धनु में शर का संधान करती हूँ। इस प्रकार मनुष्यों के लिए संघर्ष करती हूँ और स्वर्ग तथा मृत्युलोक में आविर्भूत होती हूँ।”

मोक्षार्थिभिर्मु निभिरस्त समस्त दोशै। विद्यासि सा भगवती परमा हि देवी-महर्शि मार्कण्डेय

“वीतराग योगीजन मोक्ष प्राप्ति के लिए तेरे ब्रह्म विद्या रूप को ही उपासना करते हैं।”

ऋशयो ऋग्यजुः सामाथर्वच्छन्दासि नारद। ब्रह्म रूपा देवतोक्ता गायत्री परमा कला।

तद्बीज भर्ग इत्येशा शक्ति रूपा मनीशिभीः। कीलकं च धियः प्रोक्तं मोक्षाये विनियोजनम्। - देवी भागवत

अर्थात्- ऋषि तत्वमयी, ऋग्, यजुः, अथर्व, साम स्वरूप, ब्रह्म रूप, परम कला गायत्री ही है। उसका बीज भर्ग है, मेधा शक्ति वही है, धियः उसका कीलक है, मोक्ष के लिए इसका विनियोग होता है।


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