गायत्री का प्राणवान ब्रह्म-ते

March 1977

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जीवन समस्या के साथ उल्लेखित सभी प्रश्न अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। (1) पतनोन्मुख कुसंस्कारों को निरस्त करना (2) व्यक्तित्व को सशक्त बनाने वाली सत् प्रवृत्तियों को व्यवहार में उतारना (3) प्रगडडडड के लिए आवश्यक पुरुषार्थ के लिए अभीष्ट साहस संचय करना (4) आगत अवरोधों से जूझने के लिए जीवट का परिचय देना, इन चारों ही प्रयोजनों के लिए मनोबल, संकल्प बल, शौर्य साहस होना चाहिए। अशक्तता, अधीरता और कायरता की मिली जुली प्रतिक्रिया तो आत्मघाती ही होती है। इसके कारण मनुष्य अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता है। दुःखद परिस्थितियों को निरस्त करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्ध कर सकने की दिशा में बढ़ सकना उस जीवट के सहारे ही सम्भव होता है जिसे अध्यात्म की भाषा में आत्मबल एवं ब्रह्म वर्चस् कहते हैं । साँसारिक सहयोग साधन इसी चुम्बकत्व से खिच कर समीप आते और उपलब्ध होते हैं।

ईश्वर उपासना की तरह बल की उपासना भी आवश्यक है। शास्त्रकार ने ‘बल उपास्व’ का निर्देश दिया है और कहा है कि आत्मोत्कर्ष का लाभ बल हीनों को नहीं मिल सकता “नायमात्मा बल हीनेन लभ्यः” सच है बल हीनों को न आत्मा मिल सकेगा और न परमात्मा। भौतिक जीवन में भी उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता । इस संसार के बाज़ार में सम्पदाएँ-विभूतियाँ और उपलब्धियाँ, समर्थता के मूल्य पर ही खरीदी जाती है।

जीवन की सार्थकता ‘जीवट’ के साथ ही है। जीवनी शक्ति युक्त को ही जीवित कहा जा सकता है। इसके अभाव में मनुष्य को जीवित मृतक ही कहा जा सकता है। खोने, ,सोने की प्रक्रिया को पेड़ पौधे भी पूरी करते हैं। जीवाणुओं में भी गतिशीलता होती है पर उन्हें जीवितों का श्रेय सम्मान तो नहीं मिलता।

चेतना की बलिष्ठता को अध्यात्म शास्त्र में ‘प्राण’ के नाम से पुकार गया है। प्राणवान् होने के कारण ही ‘प्राणी’ कहा जाता है। प्राण निकलते ही शरीर मृत घोषित कर दिया जाता है। यों जीवन तत्त्व की एक स्वल्प मात्रा तो उन पदार्थों में भी है, जिन्हें जड़ कहा जाता है। प्राण से तात्पर्य जीवात्मा की उस आन्तरिक क्षमता से है जो शरीर में ओजस्, चिन्तन में तेजस् और आस्थाओं में ‘वर्चस्’ के नाम से जानी जाती है। इस अन्तः क्षमता को -आत्म शक्ति को -प्राण तत्त्व को अधिकाधिक मात्रा में संचय करने वाला ही जीवन का आनन्द लेता और उसे सार्थक बनाता है।

गायत्री विद्या को प्राण तत्त्व के अभिवर्धन का आधार भूत साधन माना गया है। उसका तत्त्व दर्शन और उपासना माना गया है। उसका तत्त्व दर्शन और उपासना प्रकरण दोनों ही इस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। भौतिक विज्ञान के सहारे भौतिक साधन बढ़ते हैं। आत्म विज्ञान के सहारे आत्मिक विशिष्टताओं को उभारा और सुदृढ़ किया जा सकता है। आत्मिक क्षेत्र में प्राण शक्ति भर देने की विद्या को गायत्री कहा गया है।

गायत्री शब्द के नामकरण पर दृष्टिपात करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका आविर्भाव किस प्रयोजन के लिए हुआ है। ‘गय’ और ‘त्री’ शब्दों से मिल कर यह शब्द बना है। इसका अर्थ प्राण क्षमता का रक्षण संवर्धन करने वाली प्रक्रिया ही होता है।

गै-शब्दे इस धातु से ‘शतृ’ प्रत्यय करने पर ‘गायत्’ शब्द बनता है। ‘गायत्’ शब्द ‘त्रैड् पालने’ धातु से जुड़ने पर स्त्री-प्रत्ययान्त ‘गायत्री’ शब्द बनता है।

शतपथ ब्राह्मण में गायत्री शब्द का अर्थ इस प्रकार बतलाया गया है-

“सा हैशा गयाँस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत् प्राणाँस्तत्रे तद् गयास्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।” (शतपथ ब्राह्मण 14।8।15।7)

अर्थात् - उसने गयों की रक्षा की। प्राण ही ‘गय’ है, उन प्राणों यानी गयों को वाण करने वाली का नाम गायत्री है।

यही निरूपण, इन्हीं शब्दों में वृहदारण्यक उपनिषद् (5।14।4) में भी किया गया है।

निरुक्तकार का कहना है-

“गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः” (निरक्त 7।12।5)

अर्थात् -स्तुति -कर्म द्योतक गायन के अर्थ में गायत्री नाम पड़ा।

गायन्तं त्रायते इति गायत्री -

जो गान करने वाले का त्राण करती है, वह गायत्री है। गान का अर्थ सम्पूर्ण अन्तश्चेतना में मन्त्र का झंकृत हो उठना-उसमें तन्मय हो जाना है, बैखरी वाणी से हवा में कुछ सतही हलचलें उत्पन्न करना मात्र नहीं।

गायत्री शब्द की ऐसी ही प्राण शक्ति संवर्धक व्याख्या विवेचनाएँ अन्यत्र भी हुई है।

‘गा’ चेति सर्वगा शक्ति, ‘यत्री’ तत्र नियंत्रिका।

‘गा’ अर्थात् सर्वव्यापी शक्ति उसे नियंत्रित करने की विधा ‘यत्री’ अर्थात् सर्वव्यापी चेतना शक्ति को अभीष्ट प्रयोजन के लिए नियंत्रित नियोजित करने की कला ‘गायत्री’।

साहैशा गयाँस्तत्रे प्राणाः वै गयास्त्प्राणाँ स्तत्रे। तद्यद गयाँस्तत्रे तम्ताद् गायत्री नाम-शतपथ 14।8।15।7

अर्थात् गय कहते हैं प्राण की। ‘त्री’ अर्थात् त्राण-रक्षक करने वाली। जो प्राण की रक्षा करे उसका नाम गायत्री हुआ।

गयाः प्राणा उच्यते। गयान् त्रायते सा गायत्री-सन्ध्या भाश्य

गायन्ते त्रायते इति वा गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः-याज्ञवल्क्य

प्राणों का संरक्षण करने वाली होने से उसे गायत्री कहा जाता है।

प्राणो गायत्रंः । -ताण्ड्य 7।1।9

प्राण ही गायत्री है।

प्राणो वै गाय«यः। -कौ0 15।2

प्राण का गायत्री रूप होना निश्चित है।

प्राणो वै गायत्री। -शतपथ 6।4।3।5

प्राणो गायत्री प्रजननम् । ता0 16।14।5, 16।16।16।7।16।5।9,19।7।7

तत्प्राणों वै गायत्रम् । जै0उ॰ 1।37।7

प्राणो वै गाय«यः

प्राणो वै गायत्री।

प्राणो गायत्री।

यो वै स प्राण एशा सा गायत्री।

गायत्री वै प्राणः

सैशा गायत्री प्राणः अतो गाय«या जगत्प्रतिश्ठितम्। यस्मिन् प्राणे सर्व देवा एकं भवन्ति। सर्वेवेदाः कर्माणि तत्फलं च, सैव गायत्री प्राण रूपा सती जगत आत्मा सा हैशा गयाँस्तत्रे-त्रातवती के पुनर्गयाः ? प्राणाः -वागादयो वैभवाः .........................गयत्राणाद् गायत्रीति प्रथिता।

-वृहदारण्यक 5।14।4

यह गायत्री ही प्राण है। अतः वही समस्त विश्व में व्याप्त है। इस प्राण में ही समस्त देवता सन्निहित हैं। सब वेद और समस्त कर्मों का फल उससे प्राप्त होता है। यह प्राण रूपी गायत्री ही जगत की आत्मा है। वाणी नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों में समाविष्ट प्राण की संरक्षक होने के कारण उसे गायत्री कहा जाता है।

प्राणो वै बलं। यत्प्राणे प्रतिश्ठितं तस्मादा-हुर्बलं सत्यादोजीयः इत्येवम्नैशा गाय«यध्यात्मं प्रतिश्ठिता। सा ह्यैशा गयाँस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत्प्राणाँस्तत्रे। तद्यद् गयास्तत्रे गायत्री नाम्-शतपथ ब्राह्मण

प्राण ही बल है। बल और प्राण एक ही है। पर- ब्रह्म प्राणों का भी प्राण है। गायत्री का अध्यात्म यह प्राण ही है। प्राणों का परिष्कार करने की शक्ति सम्पन्न होने के कारण उसे गायत्री नाम दिया गया है।

प्राण शक्ति की आत्म बल की -अभिवृद्धि सामान्य मनुष्य में असामान्य क्षमताएँ विकसित करती है। उसे मूर्छित से जागृत बनाती है। आन्तरिक समर्थता से सम्पन्न मनुष्य भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सर्वतोमुखी प्रगति कर सकने में सफल बन सकता है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए शास्त्र कहता है-

तदाहुः कोऽस्वप्नुमर्हति, यद्वाव प्राणो जागार तदेव जागरितम् इति-ताण्ड्य 10।4।4

कौन सोता है ? कौन जागता है ? जिसका प्राण जागता है, वस्तुतः वही जागता है।

य एवं विद्वान प्राणं वेद रहस्या प्रजा हीयतेऽमृतो पवति तयेव श्लोकः-प्रश्नोपनिषद् 3।11

जो बुद्धिमान् इस प्राण रहस्य को जान लेता है । वह अमर बन जाता है उसकी परम्परा नष्ट नहीं होती।

प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति-प्रश्नोपनिशद

इस ब्रह्म पुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती हैं।

प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या। तं मामायुरमृत भित्युपा-स्वायुः प्राणः प्राणोवा आयुः। प्राणेन हि एवास्मिन् लोकेऽमृतत्व माप्नोति-साँख्यायन आरण्यक 5।2

मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत मान कर उपासना करो। प्राण ही जीवन है। इस लोक में अमृत की प्राप्ति का आधार प्राण ही है।

यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः । -साख्यायन

जो प्राण है वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण ब्रह्मबल है। इसलिए उसे प्रत्यक्ष ब्रह्म भी कहा गया है। अप्रत्यक्ष ब्रह्म की सत्ता किसी प्राणी पर कितनी मात्रा में अवतरित हुई इसका परिचय उसमें दृष्टिगोचर होने वाले प्राण तत्त्व को देख कर ही लगाया जा सकता है। गायत्री को प्राण और प्राण को ब्रह्म कहा गया है। इस तरह एक प्रकार से गायत्री साक्षात् ब्रह्म भी कही जा सकती है।

कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म तदिव्या वक्षते-वृहदारण्यक

वह एकमात्र देव कौन है? वह प्राण है। उसे ही ब्रह्म कहा जाता है।

बप्राणा ब्रह्म इति हस्याह कौशीतकिः । - ब्रह्म संहिता

प्राण ही ब्रह्म है। ऐसा कौशीतकि ऋषि ने कहा है।

स एव वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणोदऽग्नि रुदयते-पिप्पलाद

यह प्राण ही समस्त विश्व में वैश्वानर रूप से उदय होता है।

‘गा’ कारो गतिदः प्रोक्त, ‘य’ कारो शक्ति दायिनी। ‘त्र’ त्राता च, ‘ई’ कार स्वयं परम्।

‘गा’ अर्थात् ‘गति’ । ‘य’ अर्थात् ‘शक्ति’ ‘त्र’ अर्थात् त्राता। ‘ई’ अर्थात् परब्रह्म।

गायत्री विद्या की उच्च स्तरीय साधना से प्राण शक्ति की अभिवृद्धि होती है। अस्तु उसके प्रभाव परिणाम को ब्रह्म वर्चस् कहा जाता है। गायत्री के वरदान ब्रह्म वर्चस् को प्राप्त कर सकने वाला हर क्षेत्र में विभूतिवान् बनता है। इस तथ्य का प्रतिपादन छान्दोग्य उपनिषद् में इस प्रकार मिलता है-

स य एवमेतद्गायत्रं प्राणेशु प्रोतं वेद प्राणी भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशु-भिर्भवति महान्कीर्त्या महामनः स्यात्तद्ब्रतम्॥ -छान्दोग्य 2।10।2

यह 'गायत्री' तत्त्व समस्त प्राणों में विद्यमान् है। जो उसकी उपासना करता है वह विद्वान्, प्राणवान्, दीर्घ-जीवी यशस्वी, सुसम्पन्न, उदार और महा मनस्वी बनता है।


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