आत्मिक प्रगति के लिए साधना की आवश्यकता

March 1977

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यह शरीर जिसे अज्ञानवश सब कुछ मान लिया गया है, आत्मा का वाहन उपकरण मात्र है। पदार्थों के सम्पर्क से उपलब्ध होने वाली सम्वेदनाएँ भी चेतना की सजगता से ही सम्भव होती है। चेतना ही इच्छा, विचारणा और क्रिया के माध्यम से जीवन की विभिन्न गतिविधियों का संचार संचालन करती है। यों जीवित शरीर रहता है, पर जीवन तत्त्व का समस्त आधार चेतना के-आत्मा के -साथ जुड़ा हुआ है।

मनुष्यों की काया संरचना में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं होता। मनः संस्थान भी लगभग एक जैसे होते हैं। साधनों और परिस्थितियों में थोड़ा बहुत अन्तर तो रहता है, पर यह सब भिन्नताएँ ऐसी नहीं हैं, जिनके कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच आकाश-पाताल जैसा अन्तर दिखाई पड़े। रुग्ण, अपंगों एवं बाल-वृद्धों की बात छोड़ दें और मध्यवर्ती लोगों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करें तो विदित होगा कि उनमें से कुछ बुरी तरह पिछड़े हुए, अभावग्रस्त और संक्षोभों में जकड़े हुए दुःखित, असन्तुष्ट और विपन्न स्थिति में रह रहे हैं। कुछ ऐसे है जो न दुःखी हैं, न सुखी। न पतित है, न समुन्नत। किसी प्रकार यंत्रवत जी रहे हैं । कुछ ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा चमकती है। वे ऊँचा सोचते हैं और ऊँचा करते हैं। अपनी साहसिकता के बल पर वे जिधर भी चलते हैं सफलताएँ छाया की तरह पीछे चलती है । स्वयं श्रेय, सम्मान पाते हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र को समुन्नत बनाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में गिने जाते हैं और दिवंगत हो जाने पर भी अपनी ऐसी अनुकरणीय परम्पराएँ छोड़ जाते हैं, जिनका अनुगमन करते हुए चिरकाल तक असंख्य लोग प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं।

पतित, यांत्रिक और समुन्नत स्तर के मनुष्यों के बीच पाये जाने वाले अन्तर का एकमात्र कारण चेतना की स्थिति में भिन्नता होना ही है। प्रयत्न करने पर शरीर और पदार्थ का सुखद संयोग मिलता है और भौतिक स्थिति समृद्ध बनती है। यही प्रयत्न चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होता, तो निश्चय ही वहाँ भी प्रगतिशीलता दृष्टिगोचर होती-बलिष्ठता और सम्पन्नता का लाभ मिलता। दुर्भाग्य से चेतना के सम्बन्ध में नितांत उपेक्षा बरती जाती है, उस पर छाई हुई तमिस्रा को निरस्त करने का प्रयत्न किया गया होता तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती। दैन्य, उद्वेग और सन्ताप निश्चित रूप से आन्तरिक पिछड़ेपन के ही चिह्न हैं। उसी के कारण ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ उपहार-मानव जीवन का लाभ नहीं मिल पाता। जिस शरीर के लिए समस्त जीवधारी तरसते हैं उसे पाकर भी यदि मनुष्य दयनीय दुर्दशा का अभिशाप सहता है तो उसे परले सिरे का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।

चेतना का महत्त्व समझा जा सके, उसकी प्रगति और परिष्कृति को जीवन का सच्चा, लाभ, उपलब्धियों का आधार और आनन्द का उद्गम समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि दूरदर्शिता इसी में है कि आत्मिक प्रगति के उस स्वार्थ साधन पर ध्यान दिया जाय जिसे परमार्थ कहा जाता है। आन्तरिक प्रगति में आत्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार के लाभ मिलते हैं जब कि चेतना को, गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहने देने पर, मात्र भौतिक सम्पन्नता की बात सोचते रहने पर- व्यक्तित्व के घटिया रहने के कारण पग-पग पर असफलताएँ ही मिलती हैं और असन्तोष, विक्षोभ ही पल्ले बँधता रहता है।

जीवन तत्त्व के स्वरूप और साफल्य पर विचार किया जा सके तो एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि सर्वतोमुखी प्रगति और सुस्थिर प्रसन्नता के लिए चेतना को परिष्कृत एवं परिपुष्ट बनाना- भौतिक सम्पन्नता के लिए की जाने वाली चेतनाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस दिशा में ध्यान देने ओर प्रयत्न करने से दोनों लोक सधते हैं जब कि उपेक्षा बरतने से छाया हुआ अन्धकार केवल भटकाव ही देता है और ठोकरों पर ठोकरें खाने-रोने-कलपने के लिए एकाकी छोड़ देता है। समझदारी इसी में है कि इस स्थिति का अन्त किया जाय। दूरदर्शिता इसी में है कि जीवन सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने योग्य चेतना का स्तर ऊँचा उठाने में अत्यन्त प्रयत्न किया जाय। जिसने ऐसा सोचा और किया समझना चाहिए कि वही जीवन क्षेत्र का सच्चा कलाकार है । इसी कलाकारिता को आत्म-साधना कहते हैं।

मानव-सत्ता एक छोटी इकाई है। उसका प्रत्यक्ष और परिचित स्वरूप इतना ही छोटा है जिसे श्रमिक, कृषक, शिल्पी, व्यवसायी, बुद्धिजीवी आदि कहा जा सके। उस स्तर का भरपूर उपयोग कर लेने पर भी मात्र सुख-सुविधा के थोड़े से साधन जुटाये जा सकते हैं। दर्प प्रदर्शित करने का थोड़ा बहुत अवसर मिल सकता है और सस्ती वाहवाही की यत्किंचित् गुदगुदी गुदगुदाई जा सकती है। इतना भी नीतिपूर्वक और औचित्य के आधार पर नहीं बन पड़ता। उसके लिए भी निरन्तर कुचक्र रचने और कुकर्म करने पड़ते हैं। इतने प्रयत्न का यदि आधा-चौथाई भी आत्मोत्कर्ष के लिए-चेतनात्मक परिष्कार के लिए किया जा सके तो उसका प्रतिफल कोयले बीनने की तुलना में मोती ढूँढ़ने जैसा उच्चस्तरीय हो सकता है।

आध्यात्म विज्ञान की गरिमा भौतिक विज्ञान से कम नहीं अधिक महत्त्व की ही है। दोनों के लाभों को देखते हुए एक को महान् दूसरे को तुच्छ कहा जा सकता है। शरीर और चेतना की तुलना में श्रेष्ठता आत्मा की ही है। इसी प्रकार लाभों की दृष्टि से भी भौतिक समृद्धि की तुलना में आत्मिक विभूतियों की ही गरीयसी कहा जाएगा। अस्तु विचारणीय यह है कि हम एकांगी प्रगति की बात न सोचें। भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ आत्मिक गरिमा बढ़ाने का भी प्रयत्न करें। शरीर की भूख बुझाना उचित है, पर आत्मा को भी क्षुधा, पिपासा से ग्रस्त-त्रस्त नहीं रहने देना चाहिए। इसी सन्तुलित विवेकशीलता का नाम आध्यात्मिकता है। इस अवलम्बन को अपनाकर हम खोते कुछ नहीं, वरन् उभय-पक्षीय लाभ उठाते हैं। भौतिक समृद्धियों और आत्मिक विभूतियों का लाभ उठाना ऐसी बुद्धिमत्ता है जिसे मानवीय गरिमा के उपयुक्त ही कहा जा सकता है।

स्पष्ट है कि पंच भूतों से बने शरीर की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए भौतिक साधनों और शरीरों का सघन सहयोग इकट्ठा करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए उसी स्तर की सम्वेदनाओं, विचारणाओं और शक्ति साधनों से सम्बन्ध बनाना पड़ता है जो विश्वव्यापी चेतना क्षेत्र में बिखरी पड़ी है। जड़ और चेतन की दो सत्ताओं का अस्तित्व सर्वमान्य है। जड़ इन्द्रियगम्य है और चेतना इन्द्रियातीत। एक को स्थूल दूसरे का सूक्ष्म कहते हैं। सूक्ष्म का अर्थ है वह क्षेत्र जो बुद्धि और अन्तःकरण से तो जाना जा सकता है, पर उसकी सिद्धि प्रयोगशाला में नहीं हो सकती। विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि इस विश्व में पदार्थ की मूलसत्ता परमाणुओं के रूप में है और शक्ति रूप एवं व्यापक है। यह अपरा प्रकृति है। ताप, ध्वनि, विद्युत की क्षमताएँ सघन होकर पदार्थों के रूप में सामने आती है। भाप, द्रव और ठोस परिस्थितियों पर पदार्थों का रूपान्तरण होता रहता है। उत्पादन अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया इस प्रत्यक्ष संसार को गतिशील बनाये रहती है। आत्म-विज्ञानी मानते हैं कि इस निखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में चेतना का महासागर भरा पड़ा है। जीव सत्ताएँ उसी की लहरें है। जीव के पास जो कुछ है वह व्यापक ब्रह्मतत्त्व का एक छोटा-सा अंश है। बल्ब में बिजली घर के विपुल शक्ति भण्डार का एक नगण्य-सा अंश ही चमकता है। ठीक इसी प्रकार व्यापक ब्रह्माण्डीय चेतना का एक अति स्वल्प भागी ही मनुष्य अपने उपयोग में ला पाता है। आत्मा की अणुसत्ता परमात्मा की विभुसत्ता का स्वल्पाँश है। इसलिए उसकी चेतना शरीर निर्वाह, परिवार पोषण एवं यत्किंचित् सामाजिक प्रभाव उत्पन्न करने तक ही सीमाबद्ध बनी रहती हैं इतना होते हुए भी यह सम्भावना विद्यमान् है कि प्रयत्न पूर्वक उस ससीम को असीम किया जस सके।

बीज देखने में तुच्छ है, पर उसमें सूक्ष्म रूप से विशाल वृक्ष की समस्त संभावनाएँ विद्यमान् है। शुक्राणु तनिक-सा होता है, पर उसमें एक पूरे मनुष्य का शारीरिक, मानसिक ढाँचा सुरक्षित रहता है, परमाणु की स्थिति एक प्रचण्ड सूर्य जैसी है। उपयोग में न आने पर तो तिजोरी में धन भरा रहने पर भी दरिद्रता का दुःख उठाना पड़ सकता है। सुयोग्य व्यक्ति भी अयोग्यों जैसे दुर्दशाग्रस्त पाये जाते हैं। पर यदि उपलब्ध क्षमता का श्रेष्ठ उपयोग हो सके तो लघु में भी महान् का अवतरण हो सकता है। जीव उस ब्रह्म से सम्बन्ध मिला कर यदि आदान-प्रदान कार द्वार खोल सके तो वर्तमान की अपेक्षा अगले ही दिन उसकी स्थिति में भारी सुधार परिष्कार सम्भव हो सकता है। उसकी क्षमता असंख्य गुनी बढ़ सकती है। जीरो नम्बर का बल्ब तनिक-सी रोशनी देता है, पर यदि उसी ‘होल्डर’ में हजार वाट का बल्ब लगा हो तो तार में चलने वाली बिजली उसी अनुपात से अपनी करेंट देना आरम्भ कर देगी। व्यक्तित्व का स्तर बढ़ा लेने पर व्यष्टि चेतना को समष्टि चेतना के अजस्र अनुदान मिल सकते हैं। भौतिक योग्यता बढ़ने पर पारिश्रमिक और पद की वृद्धि होती है। आत्मिक क्षमता बढ़ने पर ब्रह्माण्डीय चेतना के समुद्र से व्यक्ति चेतना की बहुमूल्य उपहार मिलते रहने का क्रम चल पड़ता है। छोटे बैंक यदि रिजर्व बैंक से सम्बद्ध हैं तो आवश्यकतानुसार अपनी क्षमता के आधार पर भारी आदान-प्रदान का लाभ उठा सकते हैं। इसी प्रकार यदि व्यक्ति की आन्तरिक पात्रता एवं क्षमता बढ़ सके तो उसे संव्याप्त ब्रह्म तत्त्व से ऐसे अनुदान मिल सकते हैं जो उसके स्तर को असंख्य गुना सुसम्पन्न बना सकें। अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत साधना विधान की संरचना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गई है।

आत्म-साधना का तात्पर्य है-व्यक्ति चेतना के स्तर को इतना परिष्कृत करना कि उस पर ब्रह्म चेतना के अनुग्रह का अवतरण सहज सम्भव हो सके। यह मान्यता सही नहीं है कि देवता का मनुहार करने पर वे प्रसन्न होते हैं और भक्त को याचक को कृपापूर्वक मनोवाँछित वरदानों से लाद देते हैं। सच्चाई यह है कि आत्म-साधक अपनी पात्रता विकसित करता है और तद्नुरूप पद वृद्धि के साथ जुड़े रहने वाले अनेकों लाभ प्राप्त करता है। नहर जितनी चौड़ी गहरी होती है उसी अनुपान से नदी का जल उसे उपलब्ध होता है। आत्मिक वरिष्ठता बढ़ाने के प्रयास में जितनी सफलता मिलती है उसी आधार पर दैवी अनुदान बरसने आरम्भ हो जाते हैं। वृक्षों का चुम्बकत्व वर्षा के बादलों को बरसने के लिए विवश कर देता है। व्यक्ति चेतना का चुम्बकत्व सूक्ष्म जगत से ऐसी विभूतियाँ पकड़ लेता है जिनके आधार पर वह सामान्य से असामान्य बन सके। नर-पशु के स्तर का जीवनयापन करने वाले लोग जब नर-नारायण के रूप में परिवर्तित हो रहे हों तो उसका कारण आन्तरिक परिवर्तन को ही समक्ष जाना चाहिए। अध्यात्म साधनाओं का उद्देश्य आत्म-परिष्कार ही है।

कृषि कर्म के लिए खाद, पानी, श्रम, औजार आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। व्यवसाय आदि सभी प्रयोजनों के लिए तद्नुरूप साधन जुटाने पड़ते हैं। आत्म-परिष्कार एवं आत्म-विकास के लिए भी साधनों की जरूरत पड़ती है। बिजली घर की बिजली-हमारे घर के पंखे तक ऐसे ही उछल कर नहीं आ जाती, पर इस फासले में सम्बन्ध सूत्र जोड़ने वाले तार बिछाने पड़ते हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना के उपयुक्त अनुदान व्यक्ति चेतना को मिल सके इसके लिए दोनों के क्षेत्रों के बीच आदान-प्रदान सम्भव बनाने वाले सूत्र जोड़ने पड़ते हैं। साधना इसी को कहते हैं। आत्मिक सिद्धियों की उपलब्धि साधना के सहारे ही सम्भव होती है।

यह किसी ने कभी नहीं कहा कि शरीर निर्वाह और साँसारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह की उपेक्षा की जाय। उसे निबाहने के बिना तो गति ही नहीं। उसे करते हुए आत्मिक प्रगति के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। कठिनाई एक हर है कि अपनी दृष्टि में हम मात्र शरीर हैं अतएव इच्छाएँ, विचारणाएँ एवं क्रियाएँ भी उसी स्तर तक सीमित रखते हैं जो शरीर सुख प्रदान कर सकें। इस असन्तुलन को सन्तुलन में बदला जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि शरीर में आत्मा का भी अस्तित्व है। प्रगति का अवसर आत्मा को भी मिलना चाहिए। बाह्य सुविधाओं की तरह यदि आन्तरिक गरिमा का महत्त्व समझा जा सके तो निश्चित रूप से हम आत्मिक प्रगति की उपयोगिता समझेंगे और उसके लाभों को समझते हुए अपना ध्यान और प्रयास उस दिशा में ही नियोजित करने का प्रयत्न करेंगे। जीवन दर्शन पर जितनी गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय उतना ही आत्म-साधना का महत्त्व स्पष्ट होता चला जाता है।


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