गायत्री का धियः तत्त्व ब्रह्म विज्ञान

March 1977

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गायत्री विद्या का तत्त्वज्ञान मनुष्य की अन्तरंग स्थिति को सुसंस्कृत बनाने में समर्थ है। उसका साधना विज्ञान बहिरंग परिस्थितियों को समुन्नत बनाने की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है। दोनों ही दृष्टियों से उसकी गरिमा एवं उपयोगिता को देखते हुए अध्यात्म वेत्ताओं ने उसे ‘परम’ सर्वोपरि-सर्वोत्कृष्ट ऐसा आधार बताया है जिसके सहारे सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकना सम्भव बनता है। यों अपने-अपने स्थान पर सभी तत्त्व-ज्ञान एवं उपासनात्मक विधि-विधान महत्त्वपूर्ण है, पर तुलनात्मक अध्ययन करने के उपरान्त जिन ब्रह्म-वेत्ताओं ने वरिष्ठता के निष्कर्ष निकाले है, उन्होंने गायत्री को ‘परम’ कहा है और बताया है कि इसकी सार्थकता एवं समर्थता पर सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है। शास्त्रकार कहते हैं -

न गाय«याः परंपरम्। (भारद्वाजस्मृति 12!42)

गायत्री परमो मन्त्रः। (अग्निपुराण 28412)

गाय«यास्तु परं नास्ति। (सर्म्वतस्मृति 1।14)

सावि«यास्तु परं नास्ति। (मनुस्मृति 2।83)

सावि«यास्तु परं नास्ति। (वृहद्योगि वा0स्मृ0 2।63)

गाय«यतिगरीयसी। (ब्रहत्पारासर स्मृति 4।16)

न गायत्री समो मन्त्रः (स्कंदपुराण काशीखण्ड 9।52)

गाय«या न परं जप्पम्। (पद्मपुराण स्व0 53।58)

न गाय«याः परं जप्यम्। (कूर्मपुराण, उत्तरार्ध 14।58)

न गाय«याः परं जाप्यम्। (कुशनः संहिता 3।58)

न गाय«याः संग जाप्यम्। (पद्मपुराण पा0 94।50)

न गाय«यी समो जपः। (व्याघ्रपादस्मृति 359)

इन अभिवचनों में गायत्री विद्या की उत्कृष्टता का संकेत किया गया है। अन्य ऋषियों ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-

एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः। सावि«यास्तु परं नास्ति पावनं परमं स्मृतम्। अग्नि पुराण

ऊँकार एकाक्षर का ब्रह्म है। प्राणायाम परम तप है। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला साधन और कोई इस संसार में नहीं है।

यदक्षरैकसंसिद्धेः र्स्पधते, ब्राह्मणोत्तमः। हरिशंकरकंजोत्थ सूर्यचन्द्रहुताशनैः॥ गायत्री तंत्र

“जो सच्चा साधक गायत्री के एक अक्षर की भी सिद्धि कर लेता है, उसकी स्पर्धा हरि, शंकर, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि से होने लगती है।

ऐहिकायुश्मिकं सर्व गायत्री जपतो भवेत्। अग्नि पुराण

इह लोक और परलोक के समस्त इष्ट फलों की प्राप्ति गायत्री जप से होती है।

गाय«येव तपोयोगः साधनं ध्यान मुच्यते। सिद्धानाँ सामता माता नातः किंचिद् वृहत्तरम्-स्कद पुराण

गायत्री ही तप है। गायत्री ही योग है। गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धि दायक साधन और कोई नहीं है।

परासिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमा पठेत्। - शक्ति समुच्पय

गायत्री का जप करने से परा सिद्धि प्राप्त होती है।

यतः साक्षात् सर्व देवतात्मनः सर्वात्म द्योतकः सर्वात्म प्रतिपादकोऽयं गायत्री मन्त्रः-कौडन्य

यह गायत्री मन्त्र साक्षात् देव रूप, सर्व शक्तिमान, सबको प्रकाश देने वाला और सर्वात्म ज्ञान का प्रति-पादक है।

गायत्री को ब्राह्मी शक्ति कहा गया है। वह ब्रह्माण्डीय चेतना का वह भाग है जो मानवी सत्ता को समुन्नत, समृद्ध एवं समर्थ बनाने की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण है। गायत्री विद्या का उद्देश्य आत्मा और परमात्मा के बीच सम्भव हो सकने वाले आदान-प्रदान के सन्दर्भ में अभीष्ट जानकारी प्रदान करना है। इसी प्रकार गायत्री उपासना का प्रयोजन यह है कि मानवी कलेवर के तीनों स्तर स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर-इस योग्य बन सकें कि उन पर दिव्य अवतरण सम्भव हो सके और स्थिर रह सके। तथ्य को ध्यान में रखते हुए गायत्री को ब्राह्मी कहा गया है। उसे ब्रह्म तत्त्व माना गया है। ब्रह्म और गायत्री की एकता के अनेकों प्रतिपादन शास्त्रों में मिलते हैं-

ब्रह्म हि गायत्री । ताण्ड्य 11।11।9

ब्रह्म उ गायत्री। जै, उ॰ 1।1।8

ब्रह्म वै गायत्रीं। ऐत 4।11 कौ0 3।5

ब्रह्म गायत्री। शत॰ 1।3।58

अर्थात् निश्चित रूप से गायत्री ब्रह्म ही है।

देवी दात्री च मोक्त्री च देवी सर्वमिदं जगत्। देवी जयति सर्वत्र यो देवी साऽहमेवच। सर्वात्मना हि सा देवी सर्व भूतेशू संस्थिता। गायत्री मोक्ष हेतुर्वे मोक्ष स्थान म लक्षणम्। -ऋशि श्रृंगं

दिव्य, देने वाली, भोक्ता, सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त, जिसकी सर्वत्र जय ही जय है। ऐसी गायत्री परब्रह्म है। वही मोक्ष का आधार है, वही मोक्ष का स्थान है।

जीव और ब्रह्म के बीच आदान-प्रदान की शृंखला रहने के कारण इस दिव्य-चेतना को ‘ब्रह्म विद्या’ कहते हैं। उसके माध्यम से मनुष्य के अन्तःकरण में ऐसे उच्चस्तरीय आस्था प्रवाह का संचार होता है जिसे ब्रह्म ज्ञान, तत्त्व-ज्ञान आदि नाम दिये जाते हैं। व्यक्ति में गायत्री शक्ति के समावेश होने का परिचय इर सद्ज्ञान की अभिवृद्धि से ही मिलता है।

सर्वे देवा देवी मुपतस्तुः कासित्वं महादेवि। साब्रवीदहं ब्रह्म रूपिणी। -देवी उपनिषद्

सब देवताओं ने महादेवी के सम्मुख जाकर पूछा-आप कौन हैं? तो उनने उत्तर दिया , मैं ब्रह्म रूपिणी हूँ।

सः ब्रह्म विद्या सर्व विद्या प्रतिश्ठितम्। -मुण्डक

सम्पूर्ण विधाओं में ब्रह्म विद्या ही श्रेष्ठ है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार ब्रह्माजी ने गायत्री के चार चरणों की व्याख्या चार मुखों से, चार वेदों के रूप में की है। गायत्री का प्राकट्य आकाशवाणी के, ब्रह्म निर्देश के, अंतःप्रेरणा के रूप में हुआ माना जाता है। जीवन की हर समस्या का समाधान और प्रगति के हर क्षेत्र का मार्ग-दर्शन हम इस महामन्त्र के सन्निहित संकेतों के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय तत्त्वज्ञान को और भी अधिक सुबोध रीति के कथा प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत करने के लिए अन्यान्य धर्म ग्रन्थों की रचना हुई हैं। यह विशाल वाङ्मय फलतः वेदों का ही सुबोध भाग्य है। वेद ज्ञान की जन्मदात्री होने के कारण गायत्री को सर्वत्र ‘वेद मातरम्’ के नाम से सम्बोधन किया जाता रहा है।

वेदानाँ मातरं सावित्रा सम्पदमुपनिशद मुपास्ते। गो0ब्रा0 1।1।32

सावित्री वेदों की माता है। उस दिव्य विभूति की उपासना की जाती है। सर्व वेद सारभूता गाय«यास्तु समर्थना। ब्रह्मादयोपि संध्या या ता ध्यायन्ति जपन्ति च।

-देवी भागवत् 16।16।15

गायत्री उपासना वेदों का सारभूत तत्त्व है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देव संध्या सहित गायत्री की आराधना करते हैं।

विद्यात्वमेव ननु बुद्धिमत्ता नराणाशक्तिस्त्वमेव किल शक्ति मता सदैव। त्वं कीर्ति कान्ति कमलामल तुश्टि रूपा मुक्ति प्रदा विरति रेव मनुष्य लोके। माय«यसि प्रथम वेदकला त्वमेव स्वाहा स्वाधा भगवती सगुणार्धमात्रा। आम्नाय एवं विहितो निगमो भवत्या संजीवनाय संततं सुरपूर्व जान्तम्।

हे गायत्री, आप ही बुद्धिमानों में प्रज्ञा, शक्तिवानों में शक्ति बनकर निवास करती है। आप ही कीर्ति, कान्ति, तुष्टि एवं मुक्ति दायिनी है। आप ही वेदों का सार है। यज्ञ कर्मों में स्वाहा स्वधा है। आपका ही विस्तार आगम और निगम में हुआ है। आप ही देव पूजित संजीवनी है।

गायत्री सद्ज्ञान की गंगोत्री है। उसे अपनाने से अन्तःकरण में सद्ज्ञान का, ब्रह्म विद्या का, अवतरण होता है। ऐसा ब्रह्म चेता मनुष्य ब्राह्मण कहलाता है। ब्राह्मण अपने ब्रह्म तेज से स्व पर कल्याण कर सकने में समर्थ होता है। उसकी ब्रह्म तेजस्विता इसी स्तर ब्रह्म तुल्य हो जाता है।

ब्रह्म ब्राह्मविदि प्रतिश्ठितम्।

“वह ब्रह्म ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण पर प्रतिष्ठित है।”

यो ह बाएवं वित्स ब्रह्मवित् पुण्याँच कीर्ति लभते सुरभींश्च गन्धान्। सोऽपहत् पाप्मानन्ताँ श्रियमश्नुते य एवं वेद। यश्चैवं विद्वनेवमेता वेदाना-मातरं सावित्री सम्पदमुपनिशद मुपास्त इति ब्राह्मणम्-गायत्री उपनिषद्

“जो इस प्रकार जानता है, वह ब्रह्म वेत्ता ब्रह्मज्ञानी पुण्य-कीर्ति और सुरभि-गन्ध को प्राप्त करता है। उसके समस्त पाप दूर हो जाते हैं। वह अनन्त श्री -ऐश्वर्य वैभव का उपभोग करता है। जो इस प्रकार जानता है और जो इस प्रकार ज्ञान सम्पादन करके समस्त वेदों की माता सावित्री के इस उत्तम सम्पत्प्रद उपनिषद् की उपासना करता है वही ब्राह्मण है।

परब्रह्म स्वरूपा च निर्वाण पद दायिनी। ब्रह्म तेजो मयी शक्ति स्तधिश्ठातृ देवता॥

गायत्री परब्रह्म स्वरूप तथा निर्वाण पद देने वाली है। वह ब्रह्म तेज की अधिष्ठात्री देवी है।

परब्रह्म स्वरूपा च निर्गुण पद दायिनी। ब्रह्म तेजोमयी शक्ति स्तदधिश्ठातृ देवता-देवी भागवत 9।1।42

वह ब्रह्म स्वरूप, निर्विकल्प पद देने वाली, ब्रह्म तेज यही परम शक्ति तथा अधिष्ठात्री देवी गायत्री ही है।

तस्मिस्तज्जने भेदाभावत्। ब्रह्म विद ब्रह्मैव भवति॥

“इस प्रकार सब भेद जाता रहता है। ब्रह्म का जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है।”

सावि«याश्चैव मंत्रार्थ ज्ञात्वा चैव ययार्थतः तस्या ययुक्तं चोपास्यं ब्रह्म भूयाय कल्पते। -योगी याज्ञवल्क्य

गायत्री का गूढ़ मर्म और रहस्य जानकर जो उसकी उपयुक्त उपासना करता है वह ब्रह्म भूत ही हो जाता है।

यश्चैवं विद्वानेव मेता वेदानाँ मातरं सावित्री सम्पद मुपनिशद मुपास्ते इति-गोपथ

वेद माता गायत्री की उपासना करने वाले विद्वान् और श्रद्धावान होते हैं।

ब्रह्म विद्या और ब्राह्मण दोनों अन्योऽन्याश्रित हैं। ब्रह्म विद्या का सही अवगाहन करने वाला सच्चा ब्राह्मण बन कर रहता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि ब्राह्मण को ही ब्रह्म विद्या प्राप्त होती है। यहाँ जाति वंश के आधार पर जाने वाले ब्राह्मण कुल की चर्चा नहीं है। ब्राह्मणत्व तो एक मनोभूमि है। जिसमें आत्म-परिष्कार और लोक मंगल के तत्त्व कूट-कूट कर भरे होते हैं। ऐसे ही ब्रह्म परायणों की अवधारणा से ब्रह्म विद्या यशस्विनी होती है। दोनों एक-दूसरे के सहयोग से धन्य बनते हैं।

उपनिषद् में वर्णित ब्रह्म विद्या और ब्राह्मण के बीच यह एक अलंकारिक संवाद इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करता है। उस संवाद में बताया गया है कि ब्रह्म परायण, उदात्त दृष्टिकोण युक्त व्यक्ति ही ब्रह्म चर्चा करे तो उत्तम है। वाचालता एवं ड़ड़ड़ड़ उद्देश्यों के लिए उसे प्रयुक्त करने से तो न करना ही उपयुक्त है।

विद्या ब्राह्मण मेत्याह सेवधिस्तेऽसिप रक्षमाम्। असूयकाय माँ मादास्तथा स्याँ वीर्यवित्तम्त॥

विद्या ब्राह्मण के समीप में आकर कहती है कि -”मैं तेरी धरोहर हूँ, मुझे तेरी भली-भाँति रक्षा करनी चाहिए। मुझे किसी भी निन्दक पुरुष को मत देना ऐसा तेरे करने पर मैं अधिक वीर्य-पराक्रम वाली हो जाऊँगी।

विद्या ह वै ब्राह्मण माँ जगाम गोपाय माँ शेवधि स्ते ऽहमस्मि। असूय माया नृजवेऽयताय न माँ व्रूया वीर्यवती तथा स्याम्॥

ब्रह्म विद्या ब्राह्मण के समीप में आकर उससे कहती है कि मेरी रक्षा करो, मैं तुम्हारी निधि हूँ। जो असूया (निन्दा) करने वाला हो, कुटिल हो और संयम से शून्य हो ऐसे पुरुष को मुझे कभी मत देना, तभी मैं वीर्य वाली होऊँगी।

ब्रह्म विद्या की उपहासास्पद स्थिति तब बनती है जब उसका अवगाहन करने वाले व्यक्तित्व की उत्कृष्टता को आवश्यक न मान कर कर्मकाण्डों और विधि-विधानों को ही सब कुछ मान लेते हैं। अग्नि बिना ईंधन ज्वलनशील कहाँ होता है। ज्योति के अभाव में तेल बत्ती युक्त दीपक भी कहाँ प्रकाश दे पाता है उसी प्रकार व्यक्तित्व को निकृष्टता के रहते, उपासनात्मक कर्मकाण्ड भी कब सफल होते हैं। ब्राह्मण की दुर्दशा का -असफलता का एकमात्र कारण उसकी उत्कृष्टता का स्तर गया-गुजरा होना ही है, साधना विधानों में अन्तर रहने की बात इस सन्दर्भ में कोई बड़ा व्यवधान प्रस्तुत नहीं करती । कहा भी है-

अनध्यापन शीलं च सदाचार विलंघनम्। सालसं चे दुन्नादे ब्राह्मणं वाधते यमः॥

स्वाध्याय न करने से , आलस्य से और कुधान्य खाने से ब्राह्मण का पतन हो जाता है।

अनभ्यासेन वेदनामा चार स्य च वर्जनात। आलस्यात् अन्न दोशाच्च मृत्युर्वि प्रान् जिथा सति-मनु 5-4

वेदों का अभ्यास न करने से, आचार छोड़ देने से, आलस्य से, कुधान्य खाने से ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है।

जिह्वादग्धा परान्नेव करौ दग्धौ प्रति ग्रहात्। मनोदग्धं परस्त्री भिः कथं सिद्धि र्वरानने। वादार्थ पठयते विद्या, परार्थ क्रियते जपः। ख्यार्त्यथः दीपते दानं कथं, सिद्धि र्वरानने।

पराया अन्न खाने से जिह्वा की शक्ति नष्ट हो गई। दान-दक्षिणा लेते रहने के हाथों की शक्ति चली गई, पर नारी की ओर मन डुलाने से मन नष्ट हो गया फिर हे पार्वती इन ब्राह्मणों को सिद्धि कैसे प्राप्त हो ?

ब्रह्म विद्या परायण-गायत्री उपासक इस दिव्य साधना का आश्रय लेकर सब प्रकार धन्य बनता है इसे कल्प-वृक्ष कामधेनु, अमृत, पारस आदि नामों से सम्बोधन किया गया है। परा विद्या यही है। कूर्म पुराण में उसका गुणानुवाद गाते हुए कहा गया है-

वाग्देवी वरदा वाच्या कीर्तिः सर्वार्थसाधिका। योगीश्वरी ब्रह्मविद्या महाविद्या सुशोभना॥ गुह्यविद्याऽऽत्मविद्या च धर्म्मविद्यात्मभाविता। स्वाहा विश्वम्भरा सिद्धिः स्वधा मेधा धृतिः श्रुति-कूर्म पुराण

‘वाक् देवी, वरदात्री, सर्व अर्थों का साधन करने वाली गायत्री है। उसी योगेश्वरी, ब्रह्म विद्या, महाविद्या, गुह्य विद्या, अध्यात्म विद्या, धर्म विद्या कहते हैं। वही स्वाहा, स्वधा, मेधा धृति, श्रुति आदि है।

एवं विच्छान्तोदान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वाऽत्मनोवात्मानं पश्यति। सर्व्च मात्मानं पश्यति नैनं पाप्मातरति ड़ड़ड़ड पापमानं तरति नैनं पाप्मा तपति ड़ड़ड़ड़ पाप्मान तपति विपापो विरोजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवति-वृह्दा 4 अ 4।23

अर्थ- इस प्रकार से जानने वाला शान्त, उपरत, तितिक्षु (और) समाहित होकर आत्मा में ही परमात्मा को देखता है, सब जीवों का जो अन्तरात्मा उसे देखता है। ऐसे ब्रह्म परायण को पाप दया नहीं सकता । वह समस्त पापों का उल्लंघन कर जाता है। उसे पाप तपाता नहीं। वह उलटा पापों को ही तपाता है। पाप रहित-वासना रहित-व्यक्ति निस्सन्देह ब्राह्मण ही होता है।


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