विज्ञानमय कोश का केन्द्र संस्थान हृदय चक्र

March 1977

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विज्ञानमय कोश आस्थाओं, आकांक्षाओं और संवेदनाओं को केन्द्र माना गया है। व्यक्तित्व वहीं बढ़ता और ढलता है। जीवन प्रवाह की दिशा धारा उसी उद्गम स्रोत से निर्धारित, नियंत्रित होती है। अस्तु उत्कृष्टता के अनुपात से उसे अन्नमय कोश -प्राण मय कोश -मनोमय कोश से ऊपर स्थान दिया गया है। इस स्तर की साधना करने से स्थूल और सूक्ष्म जगत पर समान रूप से अधिकार मिलता है। भौतिक और आत्मिक सिद्धियों का दिव्य संस्थान इस विज्ञानमय कोश को ही माना गया है।

अन्य कोशों की तरह विज्ञान मय कोश की सत्ता भी समूचे कार्य कलेवर में संव्याप्त है। किन्तु उसका प्रवेश द्वार हृदय संस्थान माना गया है इसी को ब्रह्म-चक्र कहते हैं।

थोड़ी गहराई से देखने पर शरीर विज्ञान के अनुसार भी हृदय केन्द्र की महत्त्वपूर्ण स्थिति सिद्ध हो जाती है। यह केन्द्र हृदय के दांये भाग में स्थित पेस मेकर कहा जा सकता है। यह स्थूल हृदय के दांये भाग में अवस्थित है। अतः वक्ष के मध्य में ही इसका स्थान आ पड़ता है। पेस मेकर क्या है ? इसे समझने के लिए हृदय की रचना तथा कार्य पद्धति पर थोड़ा सा ध्यान केन्द्रित करना होगा।

मान्यता यह है कि रक्त संचार हृदय से होता है और उसके कारण शरीर का अस्तित्व बना रहता है। हृदय के आकुंचन एवं प्रसारण की क्रिया के कारण उसके द्वारा सारे शरीर में रक्त पम्प किया जाना सम्भव होता है। सामान्य भाषा में इस क्रिया को हृदय की धड़कन कहते हैं। हृदय की धड़कनों एवं रक्त को संचारित करते रहने के लिए 20 वाट विद्युत शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत शक्ति हृदय में ही पैदा होती है, तथा यही हृदय की धड़कन का कारण बनती है। विद्युत स्पन्दन (इलेक्ट्रिक इम्पल्स) हृदय के जिस भाग में पैदा होता है वह हिस्सा ही हृदय का मुख्य पेस मेकर कहलाता है।

पेस मेकर हृदय के दांये एवं ऊपरी प्रकोष्ठ के मध्य में होता है। इसमें से जैसे ही विद्युत स्पन्दन पैदा होता है उसे संचरित करने वाले विशेष तन्तु उसे हृदय में संचरित करते हैं। पूरे हृदय के उस स्पन्दन को संचरित होने में औसतन 0.8 सेकेंड का समय लगता है। इतने ही समय में हृदय की एक धड़कन पूरी होती है। अस्तु मनुष्य के जीवन का मुख्य आधार हृदय की धड़कन नहीं उसे पैदा करने वाला यह विद्युत स्पन्दन कहा जा सकता है। इसे ही कारण शरीर का अथवा विज्ञानमय कोश का केन्द्र कहा जा सकता है। शास्त्रीय परिभाषाओं की अनेक संगतियाँ इसके साथ बैठ जाती है।

कारण शरीर के केन्द्र के रूप में इसकी व्याख्या के अंतर्गत कहा गया है कि वह अंगुष्ठ मात्र आकार वाला प्रकाशमान अंग है। इसी प्रकार विज्ञानमय कोश के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना से जुड़ा है तथा उससे सीधा आदान-प्रदान करने में समर्थ है। यह दोनों संगतियाँ भी इस केन्द्र के साथ ठीक बैठ जाती है।

योगियों ने ‘कारण शरीर’ को हृदय स्थित प्रकाशमान अंगुष्ठमात्र देह भी कहा है। स्वप्रकाशित वस्तु में से प्रकाश तरंगें नियमित रूप से विकीरित होती रहती है। प्रकाशमान का अर्थ यहाँ रोशनी देने वाला नहीं है । कारण शरीर से ‘जैवीय विद्युत स्पन्दन’ पैदा होकर सारे शरीर में जीवन संचार करते रहते हैं , यही उसके प्रकाशमान कहलाने का कारण है। योगियों ने जीवन स्पन्दनों के मुख्य ‘कारण’ को जब अपनी योग दृष्टि से खोजा होगा तो उन्हें मुख्य पेस मेकर के स्व स्पन्दित क्षेत्र का बोध हुआ होगा। वैज्ञानिक मान्यतानुसार भी वह क्षेत्र आकार में 5 मि.मी. से 20 मि.मी का है। इसे अँगूठे के बराबर कहना सर्वथा उचित है। ‘अंगुष्ठ मात्र’ प्रकाशमान शरीर की घोषणा योगियों ने इस स्वस्पन्दित क्षेत्र को देखकर ही की होगी।

यह केन्द्र किसी सूक्ष्म चेतना से संचालित है यह तथ्य वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। पेस मेकर में विद्युत स्पंदन कैसे, कहाँ से उत्पन्न होते हैं यह वैज्ञानिकों को पता नहीं। इसे वे विश्व नियन्त्रक सत्ता के ही स्पन्दन मानते हैं । पेस मेकर के विद्युत स्पन्दन जिन विशेष तन्तुओं द्वारा हृदय में फैलते हैं वह प्रारम्भ में एक समूह (बण्डल) के रूप में निकलते हैं। वैज्ञानिकों ने इस तन्तु समूह का नाम ‘बण्डल आफ हिज’ रखा है। इसका अर्थ होता है ‘उसके’ तन्तु समूह। उल्लेखनीय यह है कि इस नाम में ‘हिज (अंग्रेजी में ) जब ‘हिज’ कैपिटल अक्षरों से लिखा जाय तो उसे ईश्वर के लिए किया गया सम्बोधन माना जाता है। पेस मेकर के विद्युत स्पन्दन को लेकर चलने वाले तन्तु समूह को ईश्वर के तन्तु समूह कहने का सीधा अर्थ यही होता है कि इस केन्द्र को महत-चेतना द्वारा संचालित स्वीकार कर लिया गया है।

यह विद्युत स्पन्दन पैदा करने वाली सत्ता, उस स्थूल को बनाने वाले स्थूल तन्तुओं से भिन्न है यह तथ्य भी चिकित्सा विज्ञान के अंतर्गत प्रमाणित हो जाता है। यदि उस स्थूल विशेष के तन्तुओं का यह सहज गुण होता तो या तो स्पन्दन वहीं से पैदा होते अथवा एकदम समाप्त हो जाते। लेकिन देखा यह जाता है कि कई बार स्पन्दन पैदा होने का केन्द्र बदल जाता है। जब मुख्य पेस मेकर के तन्तु पैदा करने में किसी कारण अक्षम हो जाते हैं तो वह संचालक शक्ति उसी के सहयोगी निकटतम तन्तु समूह के किसी भाग से उन स्पन्दनों का संचरण करने लगती है। मुख्य पेस मेकर में व्यवधान आ जाने पर उसके थोड़े नीचे अवस्थित सहायक पेस मेकर अथवा ‘बण्डल आफ हिज’ के किसी भाग से यह कार्य लिया जाने लगता है। चिकित्सा शास्त्री इस प्रक्रिया को ‘ट्राँस्फर आफ पेस मेकर एक्टिविटी’ (पेस मेकर प्रक्रिया का स्थानान्तरण ) कहते हैं । इस यों भी समझा जा सकता है कि यदि किसी विद्युत मोटर का स्टार्टर खराब हो जाय तो कुशल मिस्त्री उसे छोड़ कर लाइन के तार मेन स्विच से सीधे मोटर के तारों से जोड़ देता है। और भी मोटा उदाहरण लिया जा तो यदि साइकिल की सीट टूट जाय तो कुशल चालक पीछे कैरियर या आगे डंडे पर बैठ कर भी साइकिल को गतिशील बनाये रखता है। दोनों ही स्थितियों में काम तो किसी प्रकार चलता रहता है किन्तु सन्तुलन बिगड़ने का भय हमेशा बना रहता है। किसी भिन्न स्थान से जब हृदय के स्पन्दन संचरित होने लगते हैं तो दिल की गति में गड़बड़ी पैदा होने लगती है।

चिकित्सा की दृष्टि से वह स्थिति क्या होती है यह बात भिन्न है। परन्तु उपर्युक्त दोनों तथ्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि हृदय में विद्युत स्पन्दन पैदा करने वाली चेतनसत्ता उसके स्थूल घटकों से भिन्न है जो कुशल आपरेटर की तरह उनका उपयोग करती रहती हैं। उसके संकेत पर ही स्थूल शरीर के उपकरण जीर्ण शीर्ण हो जाने पर भी हृदय स्पन्दित होता रहता है। दूसरी ओर शरीर के सारे अवयव ठीक रहने पर भी जब वह चेतना अपना कार्यालय समेट लेती है तो शरीर निष्प्राण हो जाता है।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अदृश्य चेतना द्वारा संचालित यह विद्युत स्पन्दन शरीर के रक्त परिभ्रमण संस्थान से परे भी अस्तित्व रखते हैं। कहा गया है कि हृदय विज्ञानमय कोश का केन्द्र तो है किन्तु उसकी सत्ता उसका अस्तित्व सारे शरीर में फैला है। पेस मेकर द्वारा संचरित विद्युत स्पन्दन हृदय में धड़कन तो पैदा करता ही है, किन्तु उसके अस्तित्व के प्रमाण सारे शरीर में भी मिलते हैं। शरीर रचना की दृष्टि से तो उस विद्युत स्पन्दन के संवाहक तन्तु केवल हृदय में ही फैले हैं, उसके बाहर शरीर में वे नहीं है। किन्तु हृदय रोगों का अंकन करने वाले यन्त्र ई.सी.जी. पर कायिक विद्युत का जो वोल्टेज हृदय के आस-पास अंकित होता है वही कंधों, हाथ की कलाइयों तथा पैर के टखनों तक पर भी अंकित होता है। स्पष्ट है कि हृदय केन्द्र में उस महत् सत्ता से सीधे सम्पर्क रखने की क्षमता तो है ही, उससे प्राप्त संकेतों-स्पन्दनों को सारे शरीर में संचरित करने की क्षमता तथा उसके लिए व्यवस्थित तन्त्र भी अवश्य हैं

यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि स्थूल विज्ञान के आधारों पर यौगिक सूक्ष्म सिद्धान्तों की शत प्रतिशत व्याख्या नहीं की जा सकती । चूँकि सूक्ष्म सीधा हमारे पकड़ में नहीं आता इसलिए उसे स्थूल के माध्यम से प्राथमिक स्तर पर समझने-समझाने का प्रयास भर किया जा सकता है। विज्ञानमय कोश की अतीन्द्रिय क्षमताओं तथा इसके केन्द्र की अद्भुत महत्ता की झलकमात्र -स्थूल विज्ञान के आधार पर पायी जा सकती है। चिकित्सा विज्ञान ने तो केवल रोगों के कारण और निवारण का लक्ष्य रखकर ही अध्ययन एवं शोध क्रम आगे बढ़ाया है फिर उसके आधार पर हृदय केन्द्र में विशिष्ट क्षमताओं तथा उससे सम्बद्ध शरीर व्यापी एक तन्त्र का होना तो सिद्ध हो ही जाता है। ईश्वर प्रदत्त इस सुविधा का लाभ कैसे उठाया जाय, इस क्षमता को किस सीमा तक बढ़ाया जा सकता है। उसका परिमार्जन आदि कैसे किया जा सकता है, यह सब विषय अभी स्थूल विज्ञान के कार्य क्षेत्र के बाहर है। योगियों ने इन प्रकरणों में पर्याप्त गहराई से खोज की एवं उपलब्धियाँ प्राप्त की है। विज्ञानमय कोश को अतिशय सक्रिय करने से लेकर समाधि स्थिति में उसे एकदम शान्त बना देने तक की सफलताएँ वे पा सके हैं। इस सफलता के साथ वे उपलब्धियाँ भी जुड़ी हुई हैं जिन्हें साधना की सिद्धि के रूप में जाना जाता है।

हृदय चक्र को गुफा या गुहा भी कहा गया है। जिस प्रकार योगीजन विशिष्ट साधनाओं के लिए गुफा में प्रवेश करके सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं उसी प्रकार इस हृदय गुफा में प्रवेश करके दिव्य उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती है। बोलचाल की भाषा में हृदय शब्द का उपयोग संवेदनाओं के लिए किया जाता है। सहृदय का अर्थ कोमल भावनाओं वाला। हृदयहीन अर्थ निष्ठुर। यह रक्त फेंकने वाली थैली के गुण नहीं वरन् उस सचेतन हृदय तत्त्व के गुण हैं जिसे अध्यात्म की भाषा में हृदय चक्र , ब्रह्म चक्र कहा जाता है। विज्ञानमय कोश का प्रवेश द्वार है। इसी केन्द्र को ध्यान धारणा के सहारे जागृत करके अति मानस को जगाया जाता है। अतीन्द्रिय क्षमता की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए साधना की आधारशिला यही है। अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा का केन्द्र संस्थान भी यही माना गया है। आत्म परिचय देते हुए प्रायः लोग छाती ठोक कर अपने वर्चस्व का परिचय देते हैं और वे क्या करने जा रहे हैं इस संकल्प का परिचय देते हैं।

हृदय गुहा में प्रवेश करके आत्म साधना करने का निर्देश साधना शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है-

संत्यज्य हृर्द्गुहशानं देवमन्यं प्रयान्तिये। ते रत्नमभिवाछन्ति त्यक्त हस्तस्थ कौस्तुभा-योग वशिष्ठ

हृदय रूपी गुफा में निवास करने वाले भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूँढ़ता फिरता है वह हाथ की कौस्तुभ मणि छोड़कर काँच ढूँढ़ते फिरने वाले मूर्ख के समान है।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिकस्यमध्ये विश्वस्य स्रश्टा रमनेकरुपम्। विश्वस्यैकं परिवेश्टितारं ज्ञात्वाशिवं शान्ति मत्यन्तमेति-श्वेताम्श्रतरोपनिशद्

जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म , हृदय गुहा रूप गुह्य स्थान के भीतर स्थित सम्पूर्ण विश्व की रचना करने वाला, अनेक रूप धारण करने वाला तथा समस्त जगत् को सब ओर से घेरे रखने वाला है, उस एक अद्वितीय करुणा स्वरूप महेश्वर को जानकर मनुष्य सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त होता है।

एश देवो विश्वकर्म्मा महात्मा स्दा जनानाँ हृदये सन्निविष्टः। हृदा मनीशा मनसाभिल्कृप्तो य एतहिदुरमृतास्ते भवन्ति॥ -श्रैताश्रतर 4।17

यह देवता विश्व के बनाने वाले और महात्मा हैं, सदा लोगों के हृदय में सन्निविष्ट हैं। हृदय, बुद्धि और मन के द्वारा पहिचाने जाते हैं, जो इसे जानते हैं वे अमृत होते हैं

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहाया परमे व्योमेन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान्सह ब्रह्मणा विपश्रितेति-तैज्ञरीय

जो हृदय गुहा में अवस्थित, ज्ञानस्वरूप व्यापक परमेश्वर को जानता है वह ब्रह्म के साथ ही सब भोगों का उपभोग करता है।

निहितं गुहायाममृतं विभ्राजमानगानन्दं त पश्यन्ति विद्वासस्तेन लयेन पश्यन्ति-सुवालोपनिशद्

परब्रह्म हृदय रूपी गुफा में रहने वाला है, वह अविनाशी और प्रकाश स्वरूप है। ज्ञानी उसे ‘आनन्द रूप में अनुभव करते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं

पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम्। एतद्यो वेद निहितं गुहायाँ सोऽविद्याग्रन्थि विकिरतीह सोम्य॥ -मुण्डकोपनिशद्

महर्षि अंगिरा ने कहा कि वे प्यारे शौनक! क्रिया, ज्ञान और नित्य वेद तथा सारा जगत् उसी परब्रह्म के आधार से ठहरा हुआ है। बस जो मनुष्य उस ब्रह्म को अपनी हृदय-रूपी गुहा में स्थित जानता है वह अज्ञान की गाँठ को काट देता है, अर्थात् मुक्त हो जाता है।

न पातालं न च विवरं गिरीणाँ नैवान्धकारं कुक्षयो नोदधीनाम्। गुहा यस्यां निहितं ब्रह्म शाश्वतं बुद्धिवृत्तिविशिश्टा कवयो वेदयन्ते-व्यास भाष्य

जिस गुफा में ब्रह्म का निवास है वह न तो पाताल है, न पर्वतों की कन्दरा, न अन्धकार है, न समुद्र की खाड़ी । चेतन से अभिन्न जो चित्त वृत्ति है, ज्ञानवान लोग उसे ही ‘ब्रह्म गुहा’ कहते हैं।

ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥ तमेव शारणं गच्छ सर्व भावेन भारत। तत्प्रसादात् परा शान्ति स्थानं प्रापस्यसि शाश्वतम्-गीता 18।61, 62

ईश्वर सब प्राणियों के हृद् देश में रहता है। वह अपने कौशल से सब प्राणियों को चलाता है। सर्व प्रकार से उसी की उपासना करो। उसकी कृपा से परम शान्ति, परम पद मिलता है।

हृदय चक्र की उपमा कमल पुष्प से दी गई है। इसे हृदय कमल भी कहते हैं। कमल का तात्पर्य यहाँ आकृति से कम और संवेदना से अधिक है। कमल-कोमलता का, सौंदर्य का, सुगन्ध का, सात्विकता का प्रतीक है। उसे पुष्पों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अस्तु चक्र को कमल की संज्ञा भी दी गई है।

आविः संनिहितं गुहाचरत्राम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्-मुण्डकोपनिष्द्

वह ज्ञानियों के हृदय रूपी गुफा में प्रकट है, सदा सब के समीप रहता है, ज्ञानियों की बुद्धि में वर्तमान रहता है, वह सबसे बड़ा परम धाम है ।

हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिता: । हृदि ज्योतीशि भूय हृदि सर्व प्रतिष्ठितम्-शंख संहिता

हृदय में सब देवताओं का, सब प्राणों का निवास है। हृदय में ही परम ज्योति है। सब कुछ उसी में विद्यमान् है।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते-कठोपनिषद्

जब मनुष्य के हृदय की सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं तब यह मरणधर्मा मनुष्य मुक्त हो जाता है और मुक्ति दशा में ब्रह्म को प्राप्त करता है।

दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्-मुण्डकोपनिषद्

वह दूर से भी दूर है तो भी वह बहुत पास है, ज्ञानी योगियों के लिए वह यही हृदय गुफा में विराजमान् है।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सत एतद्वै तत-कठोपनिषद्

वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा शरीर के हृदय स्थान में भी जहाँ अंगुष्ठमात्र स्थान में लिंग शरीर सहित आत्मा रहता है। योगी जन उसकी प्राप्ति के लिए इसी स्थान पर ध्यान लगाते हैं। वह ईश्वर भूत और भविष्य सबका स्वामी है, जो मनुष्य उसको वहाँ जान लेता है वह फिर ग्लानि को प्राप्त नहीं होता।

हृत्पद्यकर्णिकामध्ये स्थिरदीपनिभाकृतिम्। अंगुष्ठमात्रमचलं ध्यायेदोंकारमीश्वरम्-विन्दू पनिशद

अर्थात् ‘ हृदयकमल की कर्णिका में जो स्थिर दीपशिखा के समान ज्योतिर्मान अंगुष्ठमात्र आकार वाला ओंकार रूप ईश्वर है, उसका ध्यान करें।

हृदय चक्र में ध्यान करते समय अंगुष्ठ आकार की प्रकाश ज्योति का दर्शन साधकों को होता है। दीप शिखा जैसी जलती प्रतीत होती है। इस दिव्य दर्शन का आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म दर्शन का प्रतीक माना गया है। चक्रों की स्थिति सामान्यतया नदी में पड़ने वाले भँवरों की तरह है। ग्रीष्म ऋतु में उठने वाले भँवरों -चक्रवातों के समतुल्य भी उन्हें माना जाता है। इस स्थिति को कमल पुष्पपत् चित्रित करने में भी कोई विसंगति नहीं है। विज्ञानमय कोश के आधार केन्द्र ब्रह्म चक्र- हृदय चक्र के सम्बन्ध में साधना शास्त्र में कही कमल पुष्प तुल्य और कहीं अंगुष्ठ आकार की प्रकाश ज्योति के सूक्ष्म दर्शन का उल्लेख है। कहा गया है-

अंगुश्ठमात्रः पुरुशो ज्योतिरिवाधूमकः। ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः एतद्वै तत्-कठोपनिषद्

हृदय स्थान में विशेष रूप से जानने के योग्य वह व्यापक आत्मा धूम रहित प्रकाश के समान निर्मल है। वही भूत भविष्यत् का स्वामी है, वही आज मालिक है वही कल रहेगा, यही वह ब्रह्म है जिसकी जिज्ञासा तूने की थी।

विश्वरुपस्यदेवस्यं रुपं यत्किचिदेव हि। स्थवीयः सूक्ष्ममन्यद्वा पश्यन्हृदयपंकजे॥ ध्यायतो योगिनो यस्तु साक्षादेव प्रकाशते-शिवस्वरोदय

विश्वरूप देव का जो कुछ भी स्थूल सूक्ष्म रूप मान कर अपने हृदय कमल में ध्यान करने वाला साधक उन्हीं देव स्वरूप जैसा दिखाई पड़ता है

हृत्पुडरीकमध्ये तु भावयेत् परमेश्वरम्। साक्षिंणं बुद्धिन् त्तस्य परम प्रेय गोचरम्-मैत्रेयुपनिशद

हृदय कमल पर विराजमान् परमेश्वर को साक्षी बुद्धि के सहारे भाव पूर्वक ध्यान धारणा करें।

अंगुश्ठमात्रंः पुरुषोंऽन्तरात्मा सदा जनानाँ हृदये सन्निविष्टः। त स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मु दिवेशीका धैर्येण॥ तं विद्याच्छुक्रमतृतं त विद्याच्छुक्रममृतमिति-श्वेताश्ररोपनिषद्

हृदय के अंगुष्ठ मात्र स्थानों में रहने वाला जीवात्मा है। योगी को चाहिए कि प्रयाण काल में धैर्य के साथ उसे अपने शरीर से ऐसे निकाले जैसे मूजे के पूले में से सींक खींची जाती है। उस आत्मा को शुद्ध पवित्र और अमृत जाने।

तस्ये मध्यं महानर्चिर्विश्वर्चिर्विश्वतोमुखमे। तस्य मध्ये वह्नि शिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता तस्याः शिखाया मध्ये पुरुशः परमात्मा व्यवस्थिः स ब्रह्मा स ईशानः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट-महोपनिषद 1।13, 14

उस हृदय के मध्य में ही एक ज्वाला प्रदीप्त है। वही ज्वाला दीप शिखा के समान दसों दिशाओं में प्रकाश को बाँट कर विश्व को प्रकाशित करती है। उसी ज्वाला के मध्य में कुछ ऊपर उठी हुई एक क्षीण वह्नि शिखा है। उसी कक्षा में परमात्मा निवास करते हैं। वही परमात्मा ब्रह्मा, ईशान, इन्द्र है तथा वे अविनाशी एवं परम विराट् है।

अंगुश्ठ मात्र मात्मानमेधूम ज्योति रुपकम्। प्रकाशयन्तमन्तस्थ ध्यायेत्कूटस्थ भव्ययेम्-योग कुण्डल्युपनिषद

ध्रूम रहित शुभ्र प्रकाश ज्योति अंगुष्ठ आकार की हृदय में दीप्तिमान है। उसी का ध्यान करना चाहिए।

हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रं। ह्यहमहमिति साक्षादात्मरुपेण भाति॥ हृदि विश मनसा स्वं चिन्त्रता मज्जता वा। पवन चलन रोधदात्मनिष्ठो भव त्वम्-धीरमणगीता

“ हृदय की गुफा के भीतर केवल मात्र ब्रह्म ही है, जो अहम्’ इस साक्षात् आत्म रूप से प्रकाशित होता है। इस हृदय में मन में प्रवेश करो, अपने आपको ढूंढ़ो या गहरे में गोता लगाओ या प्राण निरोध करके आत्मा में स्थित हो जाओ।”

यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्क सदाशुचिः। सतु तत्पदमास्नोति यस्माद् भूयो न जायते-कठ

विज्ञान साधना सम्पन्न मनुष्य सदा पवित्र रहता है॥ मनस्वी बनता है। उसे परम पद मिलता है। पुनर्जन्म नहीं होता।

तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात्। अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः। तेनैश पूर्णः। स वा एश पुरुषविध एव-तैतीरीयोपनिषद्

मनोमय कोश के पश्चात् विज्ञानमय कोश है। उसी में पूर्ण पुरुष का निवास है।

स यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते विज्ञानवतो वैस लोकाडडज्ञानवतोऽभिसिद्धंयति यावद्विज्ञानस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते-छान्दोग्योपनिषद

जो जन विज्ञानमय कोश को महान् जान कर उपासना करता है, वह विज्ञान वाले और ज्ञान वाले लोकों को सिद्ध कर लेता है।

हृदय चक्र के विकसित परिष्कृत होने का प्रत्यक्ष प्रति फल सहृदयता संवर्धन के रूप में सामने आता है। यह कोमलता दया, करुणा, ममता, श्रद्धा, सद्भावना, उदारता के रूप में उभरती और सम्पर्क क्षेत्र पर बरसती देखी जा सकती है। इस अमृत वर्षा से शुष्क मरुस्थल हरे भरे होते हैं। साथियों को स्नेह-सद्भाव और सहयोग का लाभ मिलने से वे उच्चस्तरीय अनुदान पाने का आनन्द लेते हैं और उस आधार पर अपनी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करते हैं। यह सद्भाव सम्पदा बाँटने वाला स्वयं अपने आप में उत्कृष्ट कलाकारिता का गर्व गौरव और सन्तोष अनुभव करता है। सहृदयता को देवत्व का पर्यायवाची ही मानना चाहिए। सज्जनता और शालीनता इसी अन्तः स्थिति की परिचायक है। महामानवों में यही विशेषता उभरी होती है।

हृदय की परिपुष्टि उच्चस्तरीय आदर्शों में अगाध आस्था के रूप में दृष्टिगोचर होती है। क्षणिक उत्साही तो पानी के बबूले की तरह कई ऊँची कल्पनाएँ करते हैं किन्तु अन्तः परिपक्वता के अभाव में झाग की तरह उनके बैठ जाने में भी देर नहीं लगती । हृदय चक्र को जागृत किया जा सके तो आदर्शवादी उमंगें चिरस्थायी बन सकती हैं और उस प्रेरणा के सहारे उत्कर्ष के पथ पर अनवरत गति से बढ़ते चलना सम्भव हो सकता है।

भगवान् हृदय में विराजते हैं। “दिल के आइने में है तस्वीरें यार” के अनुसार हृदयवान व्यक्ति अपने ही मन मन्दिर में हर घड़ी भगवान के दर्शन करते हैं और उनके अजस्र अनुदान अपने ऊपर बरसने का अनुभव करते आनन्द लेते हैं।


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