पाँच कोशों की स्थिति और प्रतिक्रिया

March 1977

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गायत्री की उच्च स्तरीय साधना के लिए उसका अलंकारिक स्वरूप पाँच मुख वाला बनाया गया है। इस चित्रण में सूक्ष्म शरीर के पाँच कोशों की प्रसुप्त क्षमता को जागृत करने और इस महाविज्ञान का समुचित लाभ उठाने का संकेत है। ब्रह्म विद्या पंचमुखी है। जीवात्मा का काय कलेवर पाँच भागों में विभक्त माना गया है (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनंदमय कोश । कोश का अर्थ है भण्डार-खजाना इन कोशों के माध्यम से व्यक्तित्व को समृद्धियों और विभूतियों से सुसज्जित कर सकने वाली दिव्य सम्पदायें उपलब्ध की जा सकती हैं और चेतना क्षेत्र में कुबेर जैसा सुसम्पन्न बना जा सकता है। कोश का एक अर्थ आवरण एवं पर्दा भी होता है। परतें उतारते-आवरण हटाते चलने पर वस्तु का असली स्वरूप समाने आ जाता है। पंचकोशों के जागरण से अनावरण से कषाय कल्मषों के वे अवरोध हटते हैं जिनके कारण जीवात्मा को अपने ईश्वर प्रदत्त उत्तराधिकार से वंचित रहकर दुर्दशाग्रस्त परिस्थितियों में गुजारा करना पड़ता है।

पाँच कोशों के विभाजन को तीन के वर्गीकरण में भी प्रस्तुत किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शरीर बताये गये हैं। उन्हें त्रिपदा गायत्री कहा जाता है। स्थूल शरीर में अन्नमय और प्राणमय कोश आते हैं पंच तत्त्वों और पाँच प्राणों का इसमें समावेश है। सूक्ष्म शरीर में मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश सन्निहित हैं। इन दोनों को चेतन मस्तिष्क और अचेतन मानस कह सकते हैं। कारण शरीर में आनन्दमय कोश आता है। विज्ञजनों ने इस विवेचन में यत्किंचित् मतभेद भी व्यक्त किया है पर वस्तु स्थिति लगभग जहाँ की तहाँ रहती है। चेतनात्मक परिष्कार के लिए इन पाँच संस्कारों की आवश्यकता होती है जिन्हें पंचकोशी गायत्री साधना के नाम से जाना जाता है। इसे ‘ब्रह्म विद्या’ पक्ष कहना चाहिए। ऋतम्भरा प्रज्ञा तत्त्व दृष्टि विकसित करने के लिए इस आधार का अवलम्बन करना होता है।

सूक्ष्म शरीर में अवस्थित पाँच कोशों की विवेचना शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर की है और उनकी गरिमा उपयोगिता से सर्व साधारण को परिचित कराने का प्रयत्न किया है। ऋग्वेद में इन पाँच कोशों को पाँच ऋषियों की संज्ञा दी है और कहा है कि वे जीवन्त स्थिति में ही सारे जीवन उद्यान को पवित्र सुरम्य बना सकते हैं।

अग्निऋर्षिः पयमानः पाँचजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयम्। -ऋग्वेद 9।66। 20

यह अग्नि ऋषि है। पवित्र करने वाली है। पाँच कोशों की मार्ग दर्शक है। इस महाप्राण की हम शरण जाते हैं।

देवताओं की दिव्य शक्तियों की उपासना-आराधना करके अभीष्ट वरदान प्राप्त करने की आकांक्षा तभी पूरी हो पाती है जब अन्तरंग में अवस्थित दिव्य शक्तियों, वृत्तियों और प्रवृत्तियों को परिष्कृत करने की साधना की जाय। वस्तुतः इन्हीं अन्तः क्षमताओं को अलंकार रूप से दिव्य लोक में निवास करने वाली सत्ता कहा गया है। यह दिव्य लोक अपना ही अन्तः प्रदेश समझा जाना चाहिए और देवी देवताओं के रूप में अंतः क्षमताओं को मान्यता देनी चाहिए।

हृदये व्योममध्ये तु अनन्ताद्यास्तु वासुकिः॥ उदये व्योम मध्ये तु परे नागा वसन्ति हि। गन्धर्वाः किन्नरा रक्षा यिद्याधराप्सरायदयः॥

अनेकतीर्थ वर्णाश्च गुह्यकाश्च वसन्ति हि। प्रकृतिः पुरुषो देहे ब्रह्मा विष्णुः शिवस्तथा॥

अनन्तसिद्धयो बुध्या प्रकाशों वर्त्तते हृदि। ब्रह्माण्डे ये गुणाः सन्ति ते तिष्ठन्ति कलेवरे॥

ब्रह्माण्डे यानि वै सन्ति तानि सन्ति कलेवरे॥ ते सर्वे प्राण संलग्नाः प्राणातीतो निरज्जनः। -महायोग विज्ञान

इसी शरीर में पाँच प्राण, अनन्त शक्तियाँ, महा सर्प, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, विद्याधर, अप्सराएँ, अनेक तीर्थ, वर्ण, गुह्यक, निवास करते हैं। प्रकृति, पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अनन्त सिद्धियाँ, अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रकाश इसी में विराजमान् हैं और प्रकाश प्रकाशित होते हैं। बाह्य ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है सो सब कुछ सूक्ष्म रूप से इस शरीर पिण्ड में विद्यमान् है।

शरीर पंच तत्त्वों से बना है। इन्हें पाँच देवता कहा गया है। व्यक्ति सत्ता को इन्हीं पंच देवताओं द्वारा विनिर्मित की गई सृष्टि माना गया है। इन पाँच देवताओं को विकृत दुर्दशा से निकाल कर परिष्कृत स्थिति तक पहुँचाने की प्रक्रिया को पंचीकरण विद्या एवं पंच कोशों की साधना कहते हैं

कपिलतन्त्र में लिखा है –

“अकाशस्याधियो विष्णु रग्नेश्चैव महेश्वरी।” वायोः सूर्यः, क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः”

अर्थात् आकाश के अधिपति हैं विष्णु, अग्नि की अधिपति महेश्वरी शक्ति है, वायु अधिपति सूर्य है और पृथ्वी के अधिपति हैं शिव। इस प्रकार पंचदेव शरीर के पंचतत्वों की ही अधिपति सत्ताएँ हैं। उपासना तत्त्व (परिच्छेद तीन) के अनुसार आदित्य, गणेश, देवी रुद्र और विष्णु ये पंचदेव ही समस्त कर्मों में पूजनीय है। जो इन पाँचों का बुद्धिपूर्वक भजन-स्मरण करते हैं, वे कभी भी मलिन नहीं होते-

“आदित्यं गणनाथं च देवी रुद्रं च केशवम्। पंच दैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत्॥

एवं यो भजते विश्णु रुद्रं दुर्गाम् गणाधिपम्। भास्करं च धिया नित्यं स कदाचिन्न सीदति॥”

पाँच देवताओं के नाम तथा स्वरूप अन्यत्र दूसरी तरह ही बताये गये है। पर इससे उनके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। दिव्य शक्तियों की गरिमा पाँच कोशों के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई ही मानी जाएगी।

प्रश्नोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता को यमाचार्य ने पंचाग्नि विद्या का रहस्यमय उपदेश दिया है। यह पाँच अग्नियाँ अग्निहोत्र के लिए काम आती है। अन्तः क्षेत्र में इन्हीं को पाँच कोशों के जागरण का विज्ञान कह सकते हैं।

प्राणग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति। गार्हपत्यो ह वा एशोऽपानो व्यानोऽन्वाहार्यपचनो यद्गाहंपत्यात् प्रणीयते प्रणयमादाहवनीयः प्राणः॥ 3

मनो ह वाव यजमानः इश्टफलमेवोदानः। स एनं यजमानमहरहर्ब्रह्म गमयति-प्रश्नोपनिशद 4।3-4

इस काया नगरी में पाँच अग्नियाँ का निवास है। यह पाँच प्राणों के रूप में प्रज्वलित रहती है। अपान गार्हपत्य अग्नि है। व्यान आह्वनीय। इन गार्हपत्य और आह्वनीय अग्नियों का समन्वय ही प्राण है। श्वासों का आवागमन ही आहुतियों का अविच्छिन्न क्रम है। वायु ऋत्विक् है। मन यममान और इच्छा फल उदान। यही मन और हृदय में ब्रह्म को स्थिर करते हैं।

पाँच कोशों को स्वर्गलोक के पाँच द्वारपाल बताया गया है। इनको अनुकूल बना लेने पर ही उस दिव्य क्षेत्र में प्रवेश कर सकना बन पड़ता है।

तेशाएते पज्च ब्रह्म पुरुशा, र्स्वगस्य लोकस्य द्वारपालस्य एतानेकं पंच ब्रह्म पुरुशात्-छान्दोग्य

यह पाँच ब्रह्म पुरुष स्वर्गलोक के द्वारपाल है। इनको प्रसन्न करके ब्रह्म पुरुष तक पहुँचना संभव होता है।

तैत्तरीयोपनिशद में इन पाँच कोशों का कई पंचकों के रूप में वर्णन किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म कारण-आध्यात्मिक आधि दैविक, आधि भौतिक क्षेत्रों में भी इन्हीं पाँच शक्तियों का समावेश बताया गया है।

पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवान्तरदिशाः। अग्नि-र्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि। आप ओशधयो वनस्पतय आकाश आत्मा। इत्त्यधिभूतम्। अथाध्यात्मम्। प्राणो व्यानोऽपान् उदानः समानः। चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक्-त्वक् चर्म मा स स्नावास्थिमज्जा। एतदधिविधाय ऋशिरवोचत् पाँक्त वा इदम सर्वम्। पाँक्त नैव पाँक्त स्पृणोतीति॥1॥ (सर्वमेकं च) ॥ - तैत्तरीयोपनिशद-सप्तम अनुवाक-1)

पृथिवी, अन्तरिक्ष, सूर्य लोक, दिशाएँ तथा अवान्तर दिशाएँ यह 5 लोकों का समूह है। अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र यह जयोतिपंचक है। जल, औषधियाँ, वनस्पतियाँ, आकाश, आत्मा यह पंचभूतों का समूह है। ये ऊपर के 3 पाँक्त समूह भूतों के सम्बन्ध में है। अब अध्यात्म वर्णन करते हैं। प्राण, व्यान, अपान, उदान, समान यह प्राण पंचक है। आँख, कान, मन, वाणी तथा त्वचा यह इन्द्रिय पाँच (पंचक) है। चर्म, माँस, नाड़ी, हड्डी, नज्जा यह धातु पंचक है। इस प्रकार 5-5 चीजों का समूह कर कर ऋषि कहने लगे कि यह जो कुछ चराचर जगत् है सब पाँक्त है, पाँच-पाँच में विभक्त है, पाँक्त से ही पाँक्त की पुष्टि होती है, अर्थात् इन 5-5 पाँक्तों को जानकर ही मनुष्य आत्म ज्ञानी होता है।

पाँच कोशों की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए सर्व सारोपनिषद् में कहा गया है-

अन्नकार्याणाँ कोशानाँ समूहोऽन्नमयकोश इत्युच्यते प्राणदि चतुर्दशं वायुभेदा अन्नमय कोशे यदा वर्तन्ते तदा प्राणमय-कोश इत्युच्यते। उतत्कोश द्वय संसक्तं मन आदि चतुर्दशकरणरात्मा शब्दादि विशय संकल्पादिधर्मान् यदा करोति तदा मनोमय कोश इत्युच्यते। एतंत्कोशत्रयसंसक्त तद्गत विशेशज्ञो यदा भासते तदा विज्ञानमय कोश इत्युच्यते। एतत्कोश चतुश्टयं संसक्तं स्वाकरणा-ज्ञाने वटकनिकायामिव वृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्दमय कोश इत्युच्यते। - सर्वसारोपनिशत्

अन्न से, अन्न के स्वरूप एवं शक्तिमत्ता से, प्रत्यक्षतः विनिर्मित कोशों को अन्नमय कोश कहते हैं। इस अन्नमय कोश में संचरित प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान इन पंच प्राणों, पंच उपप्राणों आदि प्राणवायु के सभी शरीरस्थ रूपों का समुच्चय प्राणमय कोश है। मन समेत समस्त इन्द्रियों द्वारा किए जाने और किए जा सकने वाले सूक्ष्म कार्य-क्षेत्र का नाम मनोमय कोश है। इन तीनों कोशों के संयुक्त स्वरूप से आत्मा बुद्धि द्वारा जो कुछ ज्ञानात्मक क्रिया-व्यापार करती है, उसे विज्ञानमय कोश कहते हैं। इन चारों कोशों से संसक्त आत्मा बल अपने कारण रूप के प्रति अनभिज्ञ रहती है और स्वतः में ही रमती है, जैसे बटबीज में वृक्ष रहता है, तब उसे आनन्दमय कोश कहते हैं।

अन्य आप्त वचनों में पंच कोशों की जो व्याख्याएँ की गई हैं जो स्वरूप और कार्य बताये गये हैं वे भी तैत्ररीयोपनिशद के प्रतिपादन से मिलते जुलते ही हैं।

पंच कोशेशु शक्तिर्मे तथा तिश्ठति नित्यशं। न पश्यंति तु ताँ शक्ति मज्ञानोपहता नराः-शिवार्णयः

पाँच कोशों में शिव शक्ति की प्रचंडता सन्निहित है। अज्ञानी लोग उसे देख समझ नहीं पाते।

सूक्ष्मेण दिव्य लोकेन स्थूल लोकस्य देहिनः। संबंध कारको ज्ञेयः कोशः प्राणमयश्ररः॥

स्थूल देह धारियों का संबंध सूक्ष्म दिव्य लोक के साथ जोड़ने का कार्य प्राणमय कोश करता है।

अहन्ताँ ममताँ देहे गेहादौ च करोतियः। कामाद्यवस्थया भ्रान्तो नासावात्मा मनोमयः। 6

जो देह में “मैं” रूप ‘अहन्ता’ बनकर विद्यमान् है। जो वस्तुओं और प्राणियों में ममता रखता है। जो अनेक कामनाएँ करता है और उनकी पूर्ति के लिए भटकता है वह मन है-मनोमय कोश है।

लीना सुप्तौ वयुर्वोधे व्याप्नुयादान खाग्रगा। चिच्छायापेतधीर्नात्मा विज्ञानमय शब्द भाक्।

जो सुशुति में विलीन हो जाता है। जो समस्त शरीर में संव्याप्त है। उस चिदाभास युक्त विवेक बुद्धि को विज्ञान मय कोश कहा गया है।

मनोमयोऽयं पुरुशो भाः सत्यस्तस्मिन्नन्तहृदये तथा व्रीहिर्वा यत्रो वा स एश सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किच॥ वृहदारण्यकोपनिशदं (5,6,1)

यह मनोमय, पुरुष प्रकाशमान सत्य स्वरूप है, वह अर्न्तहृदय में धान अथवा जौ के सदृश चमकता है। वह सबका ईश्वर , सबका अधिपति इस जगत में जो कुछ है सब पर शासन करता है।

या कर्मविशया बुद्धिर्वेदशास्त्रार्थनिश्चिता॥ सतु ज्ञानेन्द्रियाँ साधं विज्ञानमयकोशतः॥

जो कर्म विशयणी बुद्धि और वेदशास्त्र से निश्चित की गई है वह ज्ञान इन्द्रियों के सहित विज्ञानमय कोश में स्थित रहती है।

काचिदन्तर्मुखी वृत्तिकानन्द प्रतिविम्ब भाक्। पुण्य भोगे भोग शान्तौ निद्रा रुपेण लीयते। 9

काया के भीतर एक अंतर्मुखी वृत्ति है। जो ब्रह्म के प्रति बिम्ब को अपने भीतर भास मान देखती है। वही पुण्य भोगती है। शान्ति प्राप्त करती है। और योग निद्रा में लय हो जाती है। उसी का नाम आनंदमय कोश है।

उपनिषद् का तत्त्वदर्शी ऋषि पंच कोश संबंधी जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार करता है-

पज्चकोशाः के ? अन्नमयः, प्राणमयः, मनोमयः विज्ञानमयः, आनन्दमय श्रेति।

पाँच कोश कौन-कौन हैं ?

उत्तर- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश।

अन्नमयः कः ? अन्न रसे नैव भूत्वा, अन्न रसे नैव वृद्धि प्राप्यान्न रुप पृथिव्याँ यद्विलीयते तदन्नमयः कोशः स्थूल शरीरम।

-अन्न मय कोश किसे कहते हैं ?

-जो अन्न के रस से उत्पन्न होता है। जो अन्न रस से ही बढ़ता है, और जो अन्न रूप पृथ्वी में ही लीन हो जाता है उसे अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर कहते हैं।

प्राणमयः कोशः कः ? प्राणोदि पज्च वायवो बागादीन्द्रियं पज्चकं प्राणमयः कोशः।

-प्राण मय कोश किसे कहते हैं ?

-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँच प्राण वायु के समूह और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राण मय कोश कहते हैं, संक्षेप में यही क्रिया शक्ति है।

मनो मयः कोशः कः ? मनश्चय ज्ञानेन्द्रिय पज्चकं मिलित्वा भवति स मनोमयः कोशः ।

-मनोमय कोश क्या है ?

-मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है। इसे इच्छाशक्ति कह सकते हैं।

विज्ञानमायः कोशः कः ? बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रिय पंचकं मिलित्वा यो भवति स विज्ञान मयः कोशः।

-विज्ञान मय कोश क्या है ?

-बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञान मय कोश है। यह ज्ञान शक्ति है।

आनन्दमयः कः ? एवमेव कारण शरीर भूताविद्यास्थ मलिन सत्वं प्रियादि वृत्ति सहितं सदानन्दमयः कोशः।

-आनन्दमय कोश क्या है ?

-इसी प्रकार कारण रूप अविद्या में रहने वाला, रज और तम के संयोग से मलिन, सत्व के कारण मुदित वृत्ति वाला आनन्देच्छुक कोश आनन्द मय कोश है।

ब्रह्म विद्या समर्थित पंच कोशों के जागरण से उत्पन्न ब्राह्मी शक्ति की पराशक्ति के रूप में अभ्यर्थना की गई है। देवी भागवत् में कहा गया है-

पंचप्राणाधिदेवी या पंचप्राणस्वरुपिणी। प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा। -देवी भागवत्

पाँच प्राण उसी पंच कोश सम्पदा के पाँच स्वरूप हैं। प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वे ही है। सर्वाडडड सुन्दरी है। परा शक्ति हैं। भगवान की प्राणों से प्यारी हैं।


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