सद्ज्ञान और सत्सामर्थ्य की समन्वित साधना

March 1977

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अपनी आगामी आध्यात्मिक शिक्षा एवं साधना की प्रक्रिया को ‘ब्रह्मवर्चस्’ नाम दिया गया है।

शरीरबल, शास्त्रबल, बुद्धिबल, धनबल, पदबल, संघबल, प्रतिभाबल आदि से सभी परिचित है। उनके उपार्जन एवं उपयोग के संबंध में लोग बहुत कुछ जानते हैं, पर आंतरिक बल की गरिमा का आभास किसी-किसी को ही होता है। इस तथ्य पर तो इन दिनों कदाचित ही कोई विश्वास करता है कि समस्त बल वैभवों की तुलना में बलवती आत्मा की प्रखरता का मूल्य अत्यधिक है। जिसे यह समर्थता उपलब्ध है, उसके लिए प्रगति के दसों द्वार खुले रहते हैं। उसके मार्ग में आने वाले किसी भी अवरोध को निरस्त ही होना पड़ता है।

‘ब्रह्म’ को ज्ञान, ‘वर्चस्’ को विज्ञान कह सकते हैं। ज्ञान और बल परस्पर एकदूसरे के पूरक हैं। ज्ञान को पंगु और बल को अंध कहा जा है, दोनों के संयोग से ही एक समर्थ इकाई बनती है। द्रोणाचार्य ने हाथों में रहने वाले वेद को ‘ब्रह्म’ और कंधे पर रहने वाले धनुष को ‘क्षात्र’ कहा था और अपने इस धारण को ब्रह्मतेज की संज्ञा दी थी। विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को ब्रह्म विद्या और धनुष विद्या की समन्वयात्मक शिक्षा दी थी। प्राचीन गुरुकुलों को समग्र शिक्षापद्धति में ज्ञान और बल की आत्मिक तथा भौतिक समर्थता प्राप्त करने का समन्वय रहा है।

एकाकीपन सदा अधूरा रहता है। गाड़ी एक पहिये से नहीं दो से चलती है। नर और नारी के संयोग से सृष्टि चल रही है। काम करने में दोनों हाथों की और चलने में दोनों पैरों की आवश्यकता पड़ती है। यों गुजारा तो लँगड़े-लूले भी करते हैं, पर पूरा प्रयोजन उभय-पक्षीय समर्थता ही संपन्न करती है। जीव चेतन है और शरीर जड़। एक ब्रह्म का प्रतिनिधि है दूसरा प्रकृति का प्रतीक। दोनों के संयोग से ही जीवन चलता है। वियोग होने पर दोनों की स्थिति लड़खड़ा जाती है। दोनों ही असमर्थ हो जाते हैं। कोई ज्ञानवान दुर्बलता ग्रसित और कोई बलिष्ठ जड़बुद्धि होकर रह रहा हो तो दोनों की सत्ता गई-गुजरी ही समझी जाएगी। अस्तु ज्ञान और बल की उपयोगिता भिन्न-भिन्न प्रकार की होते हुए भी वे परस्पर एकदूसरे के पूरक ही माने जाते हैं।

भारतीय तत्त्वज्ञान के दो भाग हैं- एक निगम दूसरा आगम। ‘निगम’ को वेद पक्ष कहते हैं। आगम को तंत्र पक्ष। निगम में भावना और विचारणा को परिष्कृत करने वाले तथ्य हैं। तंत्र में समर्थता बढ़ाने और उसका विभिन्न उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने की विधा समझाई गई है। भगवान् के अवतरण के दो उद्देश्य होते हैं- (1) धर्म संस्थापनार्थाय (2) विनाशायश्च दुष्कृतान्। धर्म की स्थापना ही नहीं अधर्म का नाश भी अवतारों का कार्यक्रम रहता है। एक ही पक्ष को लेकर चलने से बात सर्वथा अधूरी रहेगी। मनुष्य में दैवी और आसुरी-सतोगुणी और तमोगुणी दोनों ही तत्त्व हैं। सतोगुण का संवर्द्धन धर्म धारणा से होता है। असुरता को-तमोगुण से मात्र सद्भाव से परिवर्तित नहीं किया जा सकता, उसे बदलने के लिए दण्ड नीति अपनाये बिना और कोई चारा नहीं। धृष्टता शक्ति की भाषा ही समझती है। विनय तो उसकी दृष्टि में उपहासास्पद दुर्बलता ही प्रतीत होती रहती है। अस्तु ज्ञान के साथ-साथ बल का उपार्जन भी आवश्यक माना गया है।

आत्मबल और भौतिकबल दोनों ही अपनी-अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। शरीर निर्वाह के लिए भौतिक साधन चाहिए। आत्मोत्कर्ष के लिए भाव संवेदनाओं को विकसित होने का अवसर मिलना चाहिए। न तो भूखा भजन कर सकता है और न पेटू को आत्म शान्ति मिल सकती है। रात और दिन की तरह, सरदी-गरमी की तरह, नमक-शक्कर की तरह, अन्न-जल की तरह ज्ञान और बल का युग्म है। एक की सार्थकता दूसरे के बिना हो नहीं सकती। मध्य काल में अहिंसा का अतिवाद गगनचुंबी बना, फलतः मध्य एशिया से दस्युओं का एक दल भारत पर चढ़ दौड़ा और देखते-देखते इस विशाल देश को पैरों तले रौंद डाला। यदि प्राचीन काल की तरह ज्ञान और कर्म का-दया और पराक्रम का समन्वय सँजोकर रखा गया होता तो वैसी दुर्दशा देखने को न मिलती । माली को पौधों में खाद, पानी लगाने के अतिरिक्त वन्य पशुओं से बगीचे की रखवाली का प्रबंध करना पड़ता है। पौधों की वृद्धि अक्षुण्ण बनी रहे इसके लिए वह खरपतवार को उखाड़ता भी तो रहता है। उद्यान को सुरम्य बनाने के लिए कुशल माली को बेतुकी टहनियों की काट-छाँट भी करनी पड़ती है। अध्यापक एक आँख प्यार की और दूसरी सुधार की रखता है। इस परस्पर विरोधी किन्तु साथ की पूरक नीति को अपनाकर ही विद्यालय में अनुशासन बनाए रख सकना संभव होता है।

ब्रह्मवर्चस् की शिक्षा एवं साधना उभय-पक्षीय है उसमें आत्मिक और भौतिक प्रगति के लिए समग्र साधन-पद्धति को प्रश्रय दिया गया है। भक्ति की अपनी महत्ता है, पर शक्ति की भी तो उपेक्षा नहीं की जा सकती। शक्ति शिवपत्नी है। कहा गया है कि शक्ति के बिना शिव ‘शव’ मात्र रह जाते हैं, प्रकृति के बिना पुरुष के अस्तित्व का प्रकटीकरण ही नहीं हो सकता ।

पिछले दिनों यह समन्वयात्मक ताल-मेल भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्र में बिगड़ गया। न वैभव पर विवेक का अंकुश रहा और न धर्म ने अपनी सुरक्षा के लिए सामर्थ्य का सम्पादन किया। न भावना पर विवेक का नियंत्रण रहा और न बुद्धि ने भावनाओं का वर्चस्व स्वीकार किया।

ब्रह्मवर्चस् प्रशिक्षण का दृष्टिकोण एवं कार्यक्षेत्र व्यापक है। व्यक्ति और समाज का समग्र विकास उसे अपेक्षित है। चिंतन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता के समन्वय के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्न किए जाने चाहिए। श्रद्धा और विवेक का जोड़ा ही उस यथार्थवादी सत्य का सृजन करता है, जिसमें हजार हाथी का बल होने की लोकोक्ति है। अपनी शिक्षण प्रक्रिया के अनुसार न संसार को मिथ्या या स्वप्न बताकर अकर्मण्य शुष्क वेदांती बनने की आवश्यकता अनुभव होगी और न वासना, तृष्णा, अहंता में डूबे हुए नर-पामरों के स्तर का जीवन स्वरूप स्वीकार किया जायेगा। हर व्यक्ति कर्मयोगी बनने का प्रयत्न करेगा। उसे भक्ति और शक्ति की उपयोगिता समान रूप से प्रतीत होगी। दया और करुणा की भाव भरी ममता को सम्वेदनाओं में परिपूर्ण स्थान देते हुए उस शौर्य, साहस को शिथिल न होने देना जो कर्त्तव्यपालन के रूप में प्रबल पुरुषार्थ और दुष्टता को निरस्त करने में प्रचंड पराक्रम के रूप में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। तत्त्व दर्शन का व्यावहारिक जीवन में उतारने की कुशलता-सामान्य व्यवहार में कलाकार की सौंदर्य साधना का समावेश कैसे संभव है इस जटिलता को सरलता के रूप में प्रस्तुत कर सकने की शिक्षण शैली ब्रह्म वर्चस् द्वारा अपनाई जाएगी। उसे भौतिक अध्यात्मवाद अथवा आध्यात्मिक भौतिकवाद कहा जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी। सन्त विनोबा के मतानुसार भविष्य में अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय ही जीवित रहेगा। गुरु गोविंदसिंह ने अपने शिष्यों को एक हाथ में माला और दूसरे में भाला लेकर रहने की शिक्षा दी थी। सिख धर्मानुयायियों ने उस परम्परा को अपनाकर युग धर्म का ही निर्वाह किया है। औचित्य के अभिवर्धन परिपोषण की आवश्यकता समझते हुए अनौचित्य का मुँह मोड़ने के लिए साहसिक संघर्ष की भी आवश्यकता है। सरकार को अपनी प्रजा को सुशिक्षित सुविकसित, सुसंस्कृत बनाने के लिए बड़ा बजट और कार्यक्रम बनाना पड़ता है, साथ ही सुरक्षा के लिए सैन्य-साधन से लेकर पुलिस, कचहरी, जेल जैसे प्रबन्ध भी करने पड़ते हैं। कोई सरकार इन उभय-पक्षीय उपायों की आवश्यकता न समझे और एक को ही पर्याप्त मान बैठे तो उसे असफल ही रहना पड़ेगा। व्यक्ति और समाज की सुसंतुलित प्रगति के लिए भी ज्ञान और बल की समान रूप से आवश्यकता है । दोनों ही नीतियुक्त हो, औचित्य के संवर्द्धन-संरक्षण में उनका प्रयोग हो तो इससे मानवी गरिमा तो बढ़ेगी ही विश्व शांति का उज्ज्वल भविष्य का आधार बनेगा ही। ब्रह्मवर्चस् की अध्यात्म शिक्षा एवं साधना इसी स्तर की होगी। उससे खतरा असुरता के अतिरिक्त और किसी को नहीं है।


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