वर्चस् की साधना आत्मबल उभारने के लिये

March 1977

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उपनिषद् का ऋषि कहता है - “नायमात्मा बल हीचेन लभ्यः” यह आत्मा दुर्बलों को मिल ही सकता।

विभिन्न बलों की साधना विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग से की भी जाती है। साधन बल भी एक बल है। प्रगति और सुख-सुविधा के लिए साधनों का संचय भी प्रकारान्तर से शक्ति साधना का ही एक रूप है। पर अभाव एक ही बात का रह जाता है उसमें क्रिया और बुद्धि का ही समन्वय रहता है। यदि इसमें उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं का भी समावेश रहा होता तो निश्चित रूप से यही प्रयत्न आकाश में टँगे रवि-राशि और तारक मण्डल की तरह चमचमाते-जगमगाते दृष्टिगोचर होते।

ऊपरी सतह पर जो हलचलें होती हैं वे अपने प्रयास साधनों के अनुरूप स्वल्प परिणाम ही उत्पन्न करती है। मोटर का इंजन खराब हो-पेट्रोल की टंकी खाली हो तो भी उसे धक्के लगाते हुए कुछ दूर ले जाया जा सकता है। सवारियाँ उसके भीतर छाया का लाभ ले सकती हैं, पर उस गाड़ी की द्रुतगति का लाभ तो सही इंजन और आवश्यक पेट्रोल होने पर ही सम्भव हो सकता है। शरीर और मन के समन्वित प्रयत्नों से निर्वाह प्रक्रिया तो पूरी होती रह सकती है, पर किसी दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति करने के लिए उसमें गहन अन्तराल का संकल्प-शक्ति का, आत्म-विश्वास का, अटूट तत्परता का समावेश होना चाहिए। यह सभी उच्चस्तरीय तत्त्व शरीर और मन के क्षेत्र में ऊपर हैं, वे अन्तःकरण की गहरी परतों में ही भरे हैं और वहीं से उभर कर ऊपर आते हैं यदि वह मर्मस्थल प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हो तो फिर हर पराक्रम बहुत ही उथले स्तर का रहेगा और उस प्रयास का परिणाम भी अति स्वल्प निकलेगा।

पैनी तलवार से युद्ध मैदान में लड़ा जाता है और शिर भी उसी से कटते हैं। इस प्रत्यक्ष तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। पर इतना ही मान बैठना नासमझी होगी। तलवार चलाने के लिए कलाई की मजबूती और मस्तिष्क की अभ्यस्त क्रिया-कुशलता आवश्यक है। इसके बिना बढ़िया तलवार भी कुछ काम न कर सकेगी। दुर्बल भुजाएँ न तो उसका भार सँभाल सकेंगी और न प्रहार कर सकेंगी। इतना ही नहीं यदि चलाने की कुशलता और सूझ-बूझ अभ्यास में नहीं उतारी गई है तो भी वह शस्त्र निरर्थक ही सिद्ध होगा।

ऊपर की पंक्तियों में तलवार रूप साधन और हाथ रूप मस्तिष्क की मजबूती से युद्ध में सफलता मिलने की बात कही गई है, पर थोड़ा और विचार करने पर एक नया तथ्य और भी उभर कर आता है कि सैनिकोचित्त शौर्य, साहस का अभाव रहा, अन्तःकरण में भीरुता छाई रही, उत्कट देश-भक्ति का स्थान उदासीनता ने ले लिया तो अन्तराल की स्थिति खोखली रह जाएगी। ऐसी दशा में वह दुर्बलता अपने आप में एक संकट बन जाएगी और उसके रहते तलवार की अच्छाई और हाथों की मजबूती भी कारगर सिद्ध न होगी। भीतर से हड़बड़ाया हुआ-डरता काँपता सैनिक युद्ध में विजयी होकर नहीं लौट सकता।

शक्ति का स्रोत अन्तराल है। समर्थता और दुर्बलता का वास्तविक मूल्यांकन इसी स्तर की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। बलवान वही है जिसका अन्तरात्मा बलिष्ठ है। इतिहास साक्षी है कि आश्चर्यचकित कर देने वाली अति महत्त्वपूर्ण सफलताएँ न तो साधनों के सहारे मिली है और न बुद्धि कौशल का ही उसमें बहुत बड़ा हाथ रहा है। चमत्कार संकल्प-शक्ति ही उत्पन्न करती है और यह संकल्प-बल उच्चस्तरीय आदर्शों का समन्वय हुए बिना उत्पन्न हो ही नहीं सकता। ललक-लिप्सा के वशीभूत होकर भी लोग उन्नति की दौड़-धूप करते हैं, पर वह न तो स्थिर होती है और न गहरी। अधिक लाभ, बहुत जल्दी मिलने का उत्साह जब तक रहता है तभी तक वे प्रयत्न चलते हैं जैसे ही सफलता श्रम-साध्य समय-साध्य एवं धूमिल दिखाई दी वैसे ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। उत्साह ठण्डा होने पर काम को छोड़ बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। हर अवरोध से जूझते हुए-बिना थके झुके-प्रयत्नरत रहने की स्थिति अन्तराल की आस्थावान् संकल्प-शक्ति के सहारे ही सम्भव होती है। महत्त्वपूर्ण कार्यों की सफलता पूर्णतया उसी आन्तरिक प्रखरता के आत्मबल के ऊपर निर्भर रहती है। शक्ति का उद्गम स्रोत अन्तःकरण से ही उमड़ता है। शरीर और मस्तिष्क में तो उसका प्रवाह भर चलता दीखता है।

गाँधी जी का शरीर बहुत दुर्बल था। वे मात्र 96 पौंड के थे। शारीरिक दृष्टि से उनकी सामर्थ्य उपहासास्पद ही गिनी जायेगी। उन्हें तो कोई किशोर भी दौड़ने या लड़ने की चुनौती दे सकता था, पर उनकी शक्ति का मूल्यांकन जिनने किया है वे जानते हैं कि पर्वत से ऊँचा और समुद्र से विस्तृत उनका व्यक्तित्व था। उनकी प्रचण्ड सामर्थ्य की टक्कर अंग्रेज सरकार से हुई और इस कुश्ती में वे ही जीते । इतनी बड़ी कुश्ती तो बड़े से बड़ा पहलवान भी नहीं लड़ सकता था। साधन बल से भी यह युद्ध जीतना कठिन था। आत्म-बल ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम की सबसे बड़ी सामर्थ्य यही है। आत्म-बल से बढ़कर और कोई बल इस संसार में है नहीं।

व्यक्तिगत जीवन की गरिमा उस आत्मबल पर आधारित है जिसमें आदर्श और संकल्प का समान रूप से समन्वय होता है। सदुद्देश्य से भाव-भरी श्रद्धा और कर्तव्य पालन में प्रचण्ड निष्ठा का समन्वय होने से इस आत्म-शक्ति का उदय हाता है। उसी के सहारे लोभ और भय के अवरोधों को हटाते हुए उच्चस्तरीय आदर्शों को पूरा कर सकना सम्भव होता है। समाज सेवा की परमार्थ परायणता से ही कोई व्यक्ति यशस्वी होता है। लोक-सम्मान और जन-सहयोग पाकर लोग ऊँचे उठते और सफल बनते हैं। यशस्वी और जन-नायक बनने की आकांक्षा भी बिना आत्म-बल के पूर्ण नहीं हो सकती। परमार्थ प्रवृत्ति गहरी और उच्चस्तरीय होनी चाहिए तभी उसका चिरस्थायी सत्परिणाम निकलेगा। हथकण्डे बाजी से कुछ समय के लिए सस्ती वाहवाही की लूट-खसोट हो सकती है, पर उतने भर से कोई काम बन नहीं सकता । धूर्तता के बल पर समेटी गई प्रशंसा में स्थायित्व कहाँ होता है ? काठ की हाँड़ी में खिचड़ी कहाँ पक पाती है ?

अपने अनुकरणीय आदर्श छोड़ जाने वाले-कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर गुजरने वाले -व्यक्तियों का विश्लेषण किया जाय तो उनमें सभी में संकल्प-बल की विशेषता पाई जाएगी। कहना न होगा कि ओछे, दुष्ट स्वार्थी, मन भूमि में वह संकल्प-शक्ति विकसित हो ही नहीं सकती जिसकी गर्मी से पर्वत गलने और पानी की तरह बहने लगते हैं।

आतंकवादी दुष्ट, दुरात्मा भी बलिष्ठता का डंका बजाते और ढिंढोरा पीटते देखे गये हैं। उद्दण्डता से डर कर कई दुर्बल प्रकृति के व्यक्ति डरते, घबराते और उनका लोहा मानते भी देखे गये हैं। इस दुष्ट और दुर्बल संयोग से उत्पन्न अवांछनीय प्रतिक्रिया को प्रायः उद्दण्डता की शक्ति के रूप में माना समझा जाने लगा है। वह दुःखद और अवास्तविक मान्यता है। अनैतिक आतंक में यदि कुछ सामर्थ्य है भी तो वह यत्किंचित् विनाश कर सकने भर की है। सृजन का कोई तत्त्व उसमें रत्ती भर भी नहीं है। उपलब्धियों तो सृजन की होती है। लाभ तो उन्हीं का मिलता है। व्यक्तित्व और कर्तृत्व तो उन्हीं के सहारे निखरता है। ध्वंस को शस्त्र बनाकर चलने वाले वैसा कुछ पा नहीं सकते। वे दूसरों को हानि पहुँचा सकते हैं । प्रथम आक्रमण करने वाला सदा लाभ में रहता है। पर वह लाभ न स्थायी होता है और न फलदायक। अन्ततः वह आक्रमणकारी के लिए ही अभिशाप सिद्ध होता है। माचिस की तीली का अस्तित्व नगण्य है, पर अग्निकाण्ड तो वही रच सकती है। लोहे की एक छोटी-सी कील भी किसी का प्राण हरण कर सकती है। इस ध्वंस सामर्थ्य से आक्रमणकारी का कोई लाभ नहीं होता। तीली अग्नि-काण्ड तो करती है, पर उसी आग में जलकर उसे स्वयं भी समाप्त होना पड़ता है। पागल कुत्ता कइयों को काट सकता है, पर खैर उसकी भी नहीं है। प्रकृति दण्ड अर्थात् दुष्टता के विरुद्ध उभरे आक्रोश से उसे मृत्यु मुख में ही जाना पड़ता है जब कि काटे हुए लोग दवादारु के सहारे अच्छे भी हो जाते हैं।

यहाँ चर्चा वास्तविक और अवास्तविक बलिष्ठता की हो रही थी। आतंक, अनीति और धूर्तता का प्रश्रय लेकर भी यत्किंचित् बलिष्ठता उपार्जित करते हुए लोग देखे गये हैं। इसमें कइयों का मत इस सस्ती उपलब्धि के लिए मचलता है और वे दुष्टता के सहारे बलिष्ठ बनने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ यह हजार बाद समझ लिया जाना चाहिए कि यह अवलम्बन न तो सरल होता है और न सफल। दुष्टता अपनाकर सम्मान भी गँवाया जाता है और सहयोग भी। घृणा, तिरस्कार का ताना-बाना अपने चारों ओर बुन डालने वाला व्यक्ति मित्र विहीन बनता चला जाएगा। घिनौने व्यक्ति के दो ही साथी होते हैं एक पतन दूसरा विनाश । आतंकवादी बलिष्ठता के दुष्परिणामों को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

कुटिलता के बल पर नहीं, प्रगति-सदाशयता और सज्जनता की नीति अपनाने से ही सम्भव होती है। सृजन की सामर्थ्य ही वास्तविक शक्ति है। उसी को विकसित करके मनुष्य गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता प्राप्त करता है। व्यक्तित्व को निखारने और सुसंस्कृत बनाने के प्रयत्न ही किसी मनुष्य में समर्थ सशक्तता उत्पन्न करते हैं। उसी से गरिमा बढ़ती है। सृजनात्मक प्रयोजनों में यही क्षमता काम आती है। लोकहित उसी से सम्भव होता है। सेवा साधना उसी के सहारे बन पड़ती है। लोक-सम्मान से लेकर आत्म-सन्तोष तक के अनेकानेक वरदान उसी सहारे उपलब्ध होते हैं, भविष्य निर्माण का एकमात्र उपाय आत्म-निर्माण ही माना गया है। संचित कुसंस्कारों से जूझना- उन्हें उखाड़ फेंकना प्रबल पुरुषार्थ कहा जाता है। दूसरों से लड़ने की अपेक्षा अपने से लड़ना-आन्तरिक शत्रुओं को परास्त करना अधिक कठिन है। आत्म-शोधन के मोर्चे पर लड़ना और विजय प्राप्त करना-बाह्य जगत की किसी भी सफलता की तुलना में अधिक श्रेयस्कर है।

यह लड़ाई प्रचण्ड आत्म-बल के सहारे ही लड़ी जा सकती है। ब्रह्म वर्चस् को उपार्जित करके मनुष्य सामान्य से असामान्य और नर से नारायण बनने का पथ-प्रशस्त करता है।

बाह्य जीवन में श्रेय, सहयोग पाने के लिए बीज रूप से स्वयं गलना पड़ता है। परमार्थ प्रयोजनों में सच्चे मन से लग सकना उसी के लिए सम्भव हो सकता है जो अपनी तृष्णाओं पर अंकुश लगा सके। महत्त्वाकाँक्षाओं का दमन करने वाला अपनी क्षमताओं को आदर्शों की साधना में लगा सकता है। जो स्वयं ही आकांक्षाओं की आग में जल रहा है उसे तो दूसरों को ईंधन की तरह उपलब्ध करने का ही मन रहेगा। जो अपने को बादल की तरह निचोड़ सके, वहीं किसी के कुम्हलाये पौधे को नव-जीवन दे सकने में समर्थ हो सकता है। स्वार्थों पर अंकुश लगा सकना-साधु ब्राह्मण जैसा मितव्ययी जीवन-क्रम अपना सकना इस अहंलिप्सा के युग में कितना कठिन है यह किसी से छिपा नहीं। नदी प्रवाह से ठीक उलटी दिशा में केवल साहसी मछली ही छरछराती हुई चल सकती है। हाथी जैसे विशालकाय प्राणी तक उसमें बहते चले जाते हैं । मछली जैसी प्रवाह के विपरीत चलने की साहसिकता निस्सन्देह असाधारण ही कही जा सकती है। ऐसा अद्भुत शौर्य, साहस प्रदर्शित कर सकने वाले ही ऐतिहासिक महामानव कहलाते और युग समस्याओं को सुलझाते हैं। यह गौरव प्राप्त करने की मनःस्थिति और परिस्थिति बना सकना केवल उन्हीं के लिए सम्भव होता है जो आत्मबल का महत्त्व समझते और उसे उपलब्ध करने का प्रयत्न करते हैं। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलना, लोक-मान्यता के अनुसार घाटे का काम है। इसलिए तथाकथित स्वजन सम्बन्धी एक स्वर से उधर कदम बढ़ाने से चित्र-विचित्र तर्क गढ़कर रोकते हैं। शत्रुओं का प्रतिरोध सरल है, पर स्वजनों के आग्रह की अनसुना करने वाली एकाग्र आदर्श-निष्ठा का परिचय दे सकना अति दुस्तर है। इस अग्नि परीक्षा में सफल हो सकना आत्म-बल के बिना सम्भव ही नहीं हो सकता । आन्तरिक प्रलोभनों और परिजनों के आग्रहों की उपेक्षा कर सकना जिस प्रचण्ड आदर्शवादिता के सहारे सम्भव होता है वह आत्म-बल का ही दूसरा रूप है।

व्यक्तित्व के परिष्कार और देवात्माओं जैसा लोक-व्यवहार ही मानव जीवन की सफलता का एकमात्र आधार है। वह उत्कृष्टता के प्रति असीम श्रद्धा रख सकने पर ही सम्भव होता है। आये दिन के आँधी-तूफानों से ज्वार-भाटों से आत्मवादी दृष्टिकोण के दीपक को बुझने न देना भँवर से नाव खेकर ले जाने की तरह कठिन है। यह भव-बन्धनों को - लोह शृंखला को अपने ही नाखूनों से काटने जैसी कठिन प्रक्रिया है। इसे अटूट धैर्य और असीम साहस के सहारे ही सम्पन्न किया जा सकता है। मानवी गरिमा को प्राप्त कर सकने की ललक तो बहुतों को रहती है, पर उसे पा सकने में आत्म-बल सम्पन्न शूर-वीर ही सफल होते हैं।

भौतिक जीवन में चिरस्थायी सफलताएँ प्राप्त करने के लिए भी आत्म-बल की, संकल्प बल की आवश्यकता पड़ती है। विद्यार्थियों में से अनेकों को अरुचि और आवारागर्दी की आदत मूर्खता और पिछड़ेपन के गर्त में फेंक देती है। साधन रहते हुए भी कितने ही लड़के पढ़ नहीं पाते और बेकार के बहाने बनाकर शिक्षा लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस दुर्भाग्य से जूझ सकना मनस्वी और दूरदर्शी छात्रों के लिए ही सम्भव होता है। व्यायामशाला में क्षणिक उत्साह लेकर कितने ही प्रवेश करते हैं किन्तु उस कठिन कार्य से खिन्न होकर जल्दी ही छोड़ भी बैठते हैं। नित नये कार्य आरम्भ करने वाले और कुछ ही समय में उसे बैठने वाले नर-वानरों की बहुत बड़ी मण्डली सर्वत्र बिखरती देखी जा सकती है।

कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला आदि के सभी क्षेत्रों में अथक परिश्रम, प्रचण्ड-साहस सन्तुलित विवेक और समुचित धैर्य की आवश्यकता होती है। आलसी, प्रमादी, अधीर और आशंकाग्रस्त मनुष्य सामान्य साँसारिक प्रयोजनों तक में सफल नहीं हो पाते। आन्तरिक दुर्बलताएँ अपनी सहेली असफलताओं को निमन्त्रण दे देकर बुला लाती है। व्यक्तित्व का परिष्कार न सही-लोक-श्रद्धा और आत्म-सन्तोश देने वाली महानता न सही- स्वार्थ साधन की दृष्टि से सम्पन्नता और सफलता तो हर किसी को अभीष्ट है ही। उसका आधार भी मनोबल बिना नहीं बनता। जहाँ इसका अभाव होगा वहाँ न स्वार्थ सधेगा और न परमार्थ। आन्तरिक अशक्ति तो बाह्य जीवन में अभिशाप ही बरसाती है। ऐसे व्यक्ति अपंग, असहाय की तरह जीते और रोते-कलपते बेमौत मरते हैं आत्म-बल का अभाव इतना बड़ा दुर्भाग्य है कि इसके कारण पग-पग पर खिन्नता, उद्विग्नता की व्यथा सहन करनी पड़ती है। ऐसे लोगों का न लोक सधता है, न परलोक। उनका न स्वार्थ सिद्ध होता है न परमार्थ बनता है।

परिस्थितियों का अपना कोई अस्तित्व नहीं, वे मनःस्थिति के अनुरूप बनती है। अप्रत्याशित कोई प्रतिकूलता सामने आ खड़ी हो तो भी वह देर तक ठहरती नहीं। रोग कीटाणु अशुद्ध रक्त में ही अपना अड्डा जमा पाते हैं । शुद्ध रक्त तो उन्हें बात की बात में खदेड़ कर बाहर कर देता है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ -मनःस्थिति के वृक्ष पर ही अमरबेल की तरह छाई और फलती-फूलती रहती है। महामानवों की जीवन-गाथाओं पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि उनमें से कोई भी जन्म-जात एवं परम्परागत अनुकूलता लेकर नहीं जन्मा। हर एक को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है। लोगों ने उनको कन्धे पर नहीं चढ़ाया, वरन् वे स्वयं ही अपनी विशेषताओं के आधार पर हर किस की आँखों के तारे बने और हृदयों में जा विराजे हैं। अनुकूलताएँ बरसी नहीं, वरन् अपने हाथों उनने उन्हें गढ़ा है। चलना अपने ही पैरों पड़ता है, दूसरों के कन्धों पर लद कर चल सकना किसके लिए कब तक सम्भव हो सकता है ?

आत्म-बल की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। आत्म-बल उसकी प्रेरणा से उसी तरह उभरते हैं जैसे सौर-मंडल के ग्रह-उपग्रह सूर्य की आभा से प्रकाशवान् दीखते हैं। जीवन को जीवितों की तरह जीना हो-उनमें कुछ रस और आनन्द लेना हो तो आत्म-बल सम्पादित करने की उपेक्षा की नहीं जा सकती । बलिष्ठता की अनुगामिनी ही सम्पन्नता है। अस्तु बलों में परम बल , आत्म-बल के उपार्जन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हम ‘वर्चस्’ की उपासना करें - आत्म-बल सम्पादित करने में जुट जाएँ, इसी में दूरदर्शिता है।


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