सावित्री शक्ति का महाप्राण सविता

March 1977

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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री है। उसका देवता सविता है। सविता और सावित्री का युग्म माना गया है। प्राथमिक उपासना में गायत्री को मातृ सत्ता के दिव्य शक्ति के रूप में नारी कलेवर का निर्धारण हुआ है। मानवी आकृति में उसे देवी की प्रतीक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। यह उचित भी है। इसमें पवित्रता, सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा साधना जैसे मातृ शक्ति में विशिष्ट रूप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्त्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है। सद्बुद्धि, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को साहित्य में स्त्री लिंग माना गया है। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रूप से नारी प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है तो उसे उचित ही कहा जा सकता है।

इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्च स्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। गायत्री मन्त्र के विनियोग में उसका ऋषि विश्वामित्र और देवता ‘सविता’ होने का उल्लेख हैं सविता का मोटा अर्थ ‘सूर्य’ है। सूर्य मण्डल की आभा को गायत्री के प्रतीक में ध्यान में अनिवार्य रूप से प्रयुक्त किया जाता है। उसे ‘सूर्य’ मण्डल मध्यस्था कहा गया है। अस्तु गायत्री माता के नारी स्वरूप को सूर्य मण्डल के बीच में प्रतिष्ठापित वित्रित किया जाता है। उसके चेहरे पर तेजोवलय के रूप में सूर्य मण्डल का संयुक्त किया जाना तो अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। गायत्री माता का ऐसा चित्र कदाचित ही किसी ने बनाने की भूल की होगी जिसमें सूर्य के तेजो मंडल का उसमें समावेश किया गया हो। गायत्री उपासना के अन्त में ‘सूर्यार्घदान’ के रूप में जप की पूर्णाहुति की जाती है। अनुष्ठान काल में दीपक की-अगरबत्ती की अग्नि स्थापना की आवश्यकता भी सूर्य शक्ति का प्रतिनिधित्व रखने के रूप में ही की जाती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने का विधान पुरश्चरणों का अंग है। इसमें भी दूरस्थ सूर्य की निकटस्थ प्रतिनिधि अग्नि की प्रतिष्ठा करने की भावना है। सूर्य को गायत्री का देव-प्राण-मान कर “यन्मंडलं दीप्ति करं विशालं ..................” पुनात माँ तत्सवितुर्वरेण्यम्।” के आठ स्तवन मन्त्रों में सूर्य के साथ-साथ गायत्री को संयुक्त किया गया है।

सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतन ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान् है। उसी के साथ आत्म चेतना की घनिष्ठता बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप से सूर्य का अग्नि पिण्ड, ध्यान साधना में प्रयुक्त किया जाता है। प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का तात्पर्य ब्रह्म तेज का अवतरण आत्म चेतना की पृष्ठ भूमि पर सम्पन्न कराना है। आत्मा को पृथ्वी और ब्रह्म तेज को सूर्य की उपमा दी जा सकती है। पृथ्वी पर जो जीवन दृष्टिगोचर होता है वह सूर्य का ही अनुदान है। सूर्य आत्मा जगतस्थुश्च’ सूर्य को जगत् की आत्मा बताया गया है। पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य केन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्म सत्ता के प्राण तेज की वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि पर विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति-ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।

ब्रह्म वर्चस् साधना में उपासनात्मक इष्ट देव सविता रखा गया है। कलेवर की प्रतीक पूजा नारी रूप में करने के साथ ही उच्च स्तरीय ध्यान में स्थापना भी प्राण की करनी पड़ेगी। गायत्री का प्राण सविता है। शरीर को देख लेने के बाद किसी भी वस्तु स्थिति उसके आन्तरिक स्तर को समझने में ही विदित होती है। सविता सम्पर्क के लिये अग्रिम कदम बढ़ाने के पीछे भी यही कारण है। इसमें विरोध विग्रह एवं सामंजस्य जैसी कोई बात नहीं है। इसे क्रमिक प्रगति के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा चाहिए।

गायत्री को प्राण-प्राण को सविता कहा गया है। इस त्रिकोण विवेचन से गायत्री के सवितामय होने का ही निष्कर्ष निकलता है। गायत्री सद्बुद्धि की ऋतम्भरा प्रज्ञा की देवी है। प्राण और सविता को भी इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला बताया गया है। शास्त्र वचनों में इस त्रिकोण को रेखा गणित के त्रिभुज की तरह एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। गायत्री का देवता सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं -

दैवतं सविताप्यस्याँ गायत्रं छनद एव च। विश्वामित्र ऋषिश्चैव प्रोच्यते ऋषिसत्तम ॥

हे ऋषि श्रेष्ठ ! इसका देवता सविता है - गायत्र छनद है और विश्वामित्र इसका ऋषि कहा जाता है।

सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदानाँ सावित्री तेन कीर्तिता-देवी भागवत

इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता (सूर्य) है। वेद मन्त्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है इसी से उसे सावित्री कहते हैं।

यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद भर्गः तं वरेण्यमुपास्महे॥

“जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उससे श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।”

सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवना देवी सावित्रीत्युच्यते ततः ॥ -अमरकोश

“वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इस लिए सविता कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ है। इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।”

मनो वै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3।6।1।13

प्राण एक सविता, विद्युरेव सविता । -शतपथ 7।7।9

यो देवः सविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयत्तस्य तर्द्भगस्तध्वरेण्यमुपास्महे॥

“जो देव सविता सूर्य मण्डल के रूप में प्रत्यक्ष होकर धर्माधर्म संस्कारों को देखता हुआ हमारी बुद्धि को प्रेरणा देता है, उसका प्रसिद्ध भर्ग (स्वप्रकाश चेतन रूप तेज) स्पृहा करने योग्य है, उसी की हम उपासना, ध्यान करते हैं।”

यो वैस प्राण एषा सा गायत्री-शत॰ 1।3।5।15

जो प्राण है उसे ही निश्चित रूप से गायत्री जानना।

गायत्री को प्राण कहा गया है और प्राण ही सूर्य है। श्रुति कहती है- ‘प्राण प्रजाना उदयत्येष सूर्यः” अर्थात् यह उदीयमान सूर्य ही जीवधारियों में प्राण शक्ति के रूप में प्रकट होता है।

यह सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही है। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है-

तेनसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्रं दाधार

पदैद्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। ता0 10।5।3

तेजो वै गायत्री। गो0 उ॰ 5।3

ज्योतिर्वै गायत्री चन्दसाम् । ताँ0 13।7।2

ज्योतिर्वै गायत्री। को0 17।6

दविद्युतती वै गायत्री । ताँ0 12।1।12

गाय«येव भर्गः । गो0पू0 5।15

गायत्री वै रथनतरस्य योनिः॥

ताँ0ब्रा0 15।10।5

तेजो वै गायत्री । -कपि0 सं0 30।2

सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम न रह जाय उसे भौतिक अग्नि प्रकाश न मान लिया जाय इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया कि यह ‘तेजस्’ विशुद्ध रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता तेज के ब्रह्म तेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है -

सविता सर्वभूतानाँ सर्वभावान् प्रसूयते। सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चेच्यते।

सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते हैं।

आदित्यो ब्रह्मेत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्। -छान्दोग्योपनिषद् 3प्र019।1

सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।

यद्वै तद् ब्रह्मेतीदं वसव तद्योऽयं बहिर्धा पुरुषा-दाकाशो यो वे स बहिर्धा पुरुषादाकाशः ॥ 7॥ - छान्दोग्योपनिषद् 3 प्र0 12।7

जो ही वह ब्रह्म है। यह ही वह गायत्री वर्णित सविता है जो वह पुरुष से बाहर ‘आकाश’ प्रकाशमान है, जो ही वह पुरुष से बाहर ‘आकाश’ प्रकाशमान है।

यौ असौ आदित्य पुरुषः सो असौ अहम्। -यजु040।17

सूर्यमण्डल में जो पुरुष है, वही मैं हूँ।

ब्रह्म सूर्य सम्र ज्योतिः । -यजु0 23।48

ब्रह्म सूर्य ज्योति के समतुल्य है।

युज्जते मन उत युज्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। विं होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितु परिष्टुतिः॥ -श्वेताश्वतर 2।4

जिस सविता देवता में विद्वान् अपने मन को बुद्धि को लगाते हैं और यज्ञादि शुभ कर्म करते हैं। वह सर्व ज्ञाता एक है। उस सर्व व्यापक सर्व देव की हम स्तुत करते हैं।

तदित्यवाड्ः मनोगम्यं ध्येयं यत्सूर्य मंडले।

उस पर ब्रह्म का ध्यान सूर्य मण्डल में वाक् और मन द्वारा किया जाता है।

गायत्री उपनिषद् से अनेकों उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि वे काया और प्राण की तरह एक दूसरे के साथ सुसम्बद्ध है। दोनों को दो योनि एक मिथुन की संज्ञा दी गई।

गायत्री के भर्ग तेज की उपासना करने से साधक तेजस्वी बनता है। जो तेजवान है वस्तुतः वही बलवान है। मोटी काया बना लेने भर से कोई तेज रहित दुर्बल मनः स्थिति का व्यक्ति बलवान नहीं कहला सकता ह।

तेजोयस्य विराजते स बलवान्। स्थूलेषु कः प्रत्ययः । -नीति

जिसमें तेज है वही बलवान। स्थूल काया के पुष्ट होने से क्या प्रयोजन सधता है।

गायत्री साधना वस्तुतः तेजस्विता की -प्राण शक्ति की ब्रह्मबल की उपासना । इसी से उसकी उच्च स्तरीय साधन प्रक्रिया को ‘ब्रह्म वर्चस्’ विद्या कहा जाता है। इस उपार्जन में संलग्न व्यक्ति को सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होने का अवसर मिलता है। श्रुति कहती है -

यो हवा एववित् ब्रह्मवित् पुण्याँ च कीर्ति लभते। सुरभीज्च गन्धान्। सोऽपहृतपास्या अनन्ताश्रिय न श्रुते। स एवं वेद यश्चैव विद्वान् एवमेताँ वेदानाँ मातरम्। सावित्री सपदमुपनिषद् मुपास्ते-गोपथ ब्रह्मण

जो गायत्री के गहन तत्त्व को जानता है, वह पुण्य, कीर्ति, लक्ष्मी आदि को प्राप्त करता हुआ परम श्रेय को प्राप्त करता है।


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