कुण्डलिनी महाशक्ति का स्वरूप और रहस्य

March 1977

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योग साधनाओं के अन्तर्गत कुण्डलिनी जागरण की फल श्रुतियों के सम्बन्ध में -समस्त संसार में लगभग एक जैसी ही मान्यताएँ प्रचलित है। इस साधना की सफलता से साधक में अनेकों दिव्य क्षमताएँ विकसित होने काक विश्वास किया जाता है। समझा जाता है कि ऐसा व्यक्ति सामान्य स्थिति से ऊँचा उठकर विशिष्ट सिद्ध पुरुषों की स्थिति में जा पहुँचता है। शरीरबल और मनोबल से भी ऊँची शक्ति आत्मबल की है। इसके आधार पर स्व पर कल्याण की अति महत्वपूर्ण दिव्य उपलब्धियाँ करतलगत होती है। इस विशेषता से दैवी शक्तियाँ आकर्षित होती है और साधक की पात्रता के अनुरूप अपनी अनुकम्पा बरसती है। आत्मतेज सम्पन्न मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा होता है जिससे दूसरों की मनःस्थिति को प्रभावित और परिस्थिति में भी परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सकता है।

कुण्डलिनी जागरण के महत्त्व की योगशास्त्रों में जितनी चर्चा हुई है उतनी और किसी साधना के सम्बन्ध में सार्वभौम स्तर पर नहीं मिलती। उसके विधानों और विवरणों में तो थोड़ा बहुत अन्तर है, पर यह मान्यता सर्वविदित है किन्तु आन्तरिक आत्मिक शक्तियों को प्रसुप्ति से जागृति में बदलने -जागृत को प्रचण्ड बनाने में कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया से असाधारण सहायता मिलती है।

कुण्डलिनी साधक की जागृत होती है, पर यह नहीं कहा जाता कि वह साधक की अपनी उपार्जित पूँजी है। यह एक प्रचण्ड विश्व-व्यापी शक्ति है जिसे उपयुक्त सत्पात्र अपनी साधना प्रक्रिया द्वारा आकर्षित करके अपनी आत्मिक सम्पदा सशक्तता बढ़ाते हैं । इस उपार्जित सम्पदा के आधा पर साँसारिक वैभव और आत्मिक वर्चस्व का दुहरा लाभ मिलता है।

कुण्डलिनी क्या है ? इसके सम्बन्ध में शास्त्रों और तत्त्वदर्शियों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर कई अभिमत व्यक्त किये हैं। ज्ञानार्णव तन्त्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है -”शक्ति कुण्डलिनी विश्व जननी व्यापार बद्धोद्यता।” विश्व व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों और आकाश गंगाओं तक की गति परिभ्रमण परक है। हमारे विचार और शब्द जिस स्थान से उद्भूत होते हैं-व्यापक परिभ्रमण करके वे अपने उद्गम केन्द्र पर लौट आते हैं। यही गति चक्र भगवान के चार आयुधों में से एक है। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी को कहा जा सकता है। जीव को चक्रारूढ़ मृतिका पिण्ड की तरह यही घुमाती है और कुम्हार जैसे अपनी मिट्टी से तरह-तरह के पात्र उपकरण बनाता है, उसी प्रकार आत्मा की स्थिति को उठाने, गिराने की भूमिका भी वही निभाती हैं। कुण्डलिनी सृष्टि सन्दर्भ में समष्टि और जीव सन्दर्भ में -व्यष्टि में शक्ति संचार करती है।

अध्यात्म ग्रन्थों में -विशेषता उपनिषदों में कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा हुई है। पर उतने को ही पूर्ण पक्ष नहीं मान लेना चाहिए। उतने से आगे एवं अधिक भी बहुत कुछ कहने, जानने और खोजने योग्य शेष रह जाता है। इन अपूर्ण घटकों को मिलाकर हमें वस्तु स्थिति समझने-अधिक जानने के लिए अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।

कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा हुई है । उसे कुण्डलिनी शक्ति की पंच विधि विवेचना कहा जा सकता है। श्वेताश्रवर उपनिषद् में उसे ‘योगाग्नि’ कहा गया है-

न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम्।

दैनिक योग प्रदीपिका में उसे ‘स्पिरिट फायर’ नाम दिया गया है। जानबुडतरफ सरीखे तन्त्रान्वेशी उसे ‘सर्पवत् वलयान्विता सर्पेन्ट पावर’ नाम देते रहे हैं।

ऋषि शिष्या मैडम व्लैवेटस्की ने उसे विश्व-व्यापी विद्युत शक्ति -’कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी’ नाम दिया है। वे उसकी विवेचना विश्व विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचण्ड प्रवाह के रूप में करती थीं। उन्होंने वायस आफ दि साइलेन्स’ ग्रन्थ में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है- सर्पवत् या वलायान्विता गति अपनाने के कारण इस दिव्य शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। इस सामान्य गति को योग साधक अपने शरीर में चक्राकार बना लेता है। इस अभ्यास से उसकी वैयक्तिक शक्ति बढ़ती है। कुण्डलिनी विद्युतीय अग्नियुक्त गुप्त शक्ति है। यह वह प्राकृत शक्ति है जो सेन्द्रिय एवं निरीन्द्रिय प्राणियों एवं पदार्थों के मूल में विद्यमान् है।

ब्रह्माण्ड में दो प्रकार की शक्तियाँ कार्य करती हैं- एक लौकिक सेकुलर, दूसरी आध्यात्मिक स्प्रिचुअल। इन्हें फिजीकल और मैटाफिजीकल भी कहते हैं। लोग प्रत्यक्ष शक्तियों का प्रमाण प्रत्यक्ष उपकरणों से प्राप्त कर लेते हैं, अस्तु उन्हीं की सत्ता स्वीकार करते हैं। जो उपकरणों की पकड़ में नहीं आती उनकी सत्ता अस्वीकार करना अतिवाद है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य से -प्रकृति से बहुत ही स्वल्प काम चलाऊ परिचय था। वन्य पशु जितने ज्ञान और जितने साधनों से शरीर यात्रा चलाते हैं प्रायः उतना ही मनुष्य को भी उपलब्ध था। प्रकृति के रहस्यों का परिचय और उस जानकारी का लाभदायक उपयोग क्रमशः ही सम्भव हुआ है। अग्नि को प्रकट करना और उसका उपयोग जानना, मनुष्य की उससे भी बड़ी उपलब्धि है जो आज बिजली जैसी शक्तियों के सहारे सम्भव हुई है। ज्ञान और विज्ञान का क्षेत्र क्रमशः ही बढ़ा है। आदिम मनुष्य अपनी उन दिनों की जानकारियों को ही समग्र मानता और कहता कि जो कुछ उसने जान पाया है उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसका वह दुराग्रह आज की स्थिति में उपहासास्पद ही माना जाता है। ठीक इसी प्रकार प्रत्यक्ष भर को अन्तिम मान लेने से शोध और प्रगति का मार्ग ही बन्द हो जाएगा। दुराग्रह के कारण ही सब कुछ भौतिक ही है मानकर चेतना की सत्ता को भी भौतिक स्फुरण मात्र कहने लगते हैं । विकास पर आगे बढ़ते हुए अब यह अनुभव किया जा रहा है कि चेतना की स्वतन्त्र सत्ता है और उसकी क्षमता एवं सम्भावना भौतिक पदार्थों और सामर्थ्यों से न्यून नहीं, अधिक ही है।

पिछले दिनों कुण्डलिनी दिव्य शक्ति की सत्ता तो स्वीकार की गई, पर वैज्ञानिक क्षेत्रों में उसे किन्हीं शारीरिक क्षमताओं का एक रूप देने का प्रयत्न किया है शरीर विज्ञानियों ने उसे नाड़ी संस्थान से उद्भूत -नर्वस् फोर्स कहा हैं। डा0 रेले ने अपने बहुचर्चित ग्रंथ ‘मिस्ट्रीरियस कुण्डलिनी’ में उसकी बेगस नर्व’ के रूप में व्याख्या की है। माँस-पेशियों और नाड़ी संस्थान के संचालन में काम आनी सामर्थ्य को ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम करने पर कुण्डलिनी संरक्षक बनने का वे प्रतिपादन करते हैं उनके मतानुसार यह शक्ति जब नियंत्रण में आ जाती है तो उसके सहारे शरीर की ऐच्छिक और अनैच्छिक गतिविधियों पर इच्छानुसार नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। यह आत्म-नियन्त्रण बहुत बड़ी बात है। इसे प्रकारान्तर से व्यक्तित्व के अभीष्ट निर्माण की तदनुसार भाग्य निर्माण की सामर्थ्य कह सकते हैं। वे इसी रूप में कुण्डलिनी का गुण-गान करते और उसकी उपयोगिता बताते हुए उसके जागरण का परामर्श देते हैं।

डाक्टर रेले की उपरोक्त पुस्तक ‘रहस्मयी कुण्डलिनी की भूमिका तन्त्र मर्मज्ञ सर जानबुडरफ ने लिखी है। जिसमें उन्होंने रेले के इस अभिमत से असहमति प्रकट की है कि वह शरीर संस्थान की विद्युत धारा मात्र है। उन्होंने लिखा है- “वह एक चेतन और महान् सामर्थ्यवान शक्ति -’ग्रान्ड पोटेन्शियल’ है जिसकी तुलना अन्य किसी पदार्थ या प्रवाह से नहीं की सकती । मेरी राय में नाड़ी शक्ति कुण्डलिनी का एक स्थूल रूप ही है, वह मूलतः नाड़ी संस्थान या उसका उत्पादन नहीं है। वह न कोई भौतिक पदार्थ है और न मानसिक शक्ति । वह स्वयं ही इन दोनों प्रवाहों को उत्पन्न करती है। स्थिर सत्य स्टेटिक-रियल गतिशील सत्य (फैनामिक रियल) एवं अवशे शक्ति (रैजीहुअल पावर) के समन्वित प्रवाह की तरह इस सृष्टि में काम करती है। व्यक्ति की चेतना में वह प्रसुप्त पड़ी रहती है। इसे प्रयत्नपूर्वक जगाने वाला विशिष्ट सामर्थ्यवान बन सकता है।”

विज्ञान की भाषा में कुण्डलिनी को जीवन शक्ति अथवा चुम्बकीय विद्युत कहते हैं। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है तो भी यह रहस्य अभी स्पष्ट नहीं हुआ कि मस्तिष्क को अपनी गतिविधियों के संचालन की क्षमता कहाँ से मिलती है। योगशास्त्र इसका उत्तर उस काम शक्ति की ओर संकेत करते हुए देता है और बताता है कि अव्यक्त मानवी सत्ता को व्यक्त होने का अवसर इसी केन्द्र से मिलता है। वही कामतन्त्र के विभिन्न क्रिया-कलापों के लिए आवश्यक प्रेरणा भी देती है। यह वही चुम्बकीय ‘क्रिस्टल’ है जो काया के ‘ट्रांजिस्टर’ को चलाने वाले आधार खड़े करता है। काम-शक्ति के प्रकटीकरण का अवसर जननेन्द्रिय के माध्यम से मिलता है, अस्तु उस स्थान पर अवस्थित मूलाधार चक्र को कुण्डलिनी केन्द्र एवं संक्षेप में ‘कुण्ड’ कहते हैं।

हठयोग में व्याख्याकारों ने वस्ति क्षेत्र के गह्वर में अण्डे की आकृति वाले ‘कन्द’ के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ा है। कइयों ने उसे माँस-पेशी कुछ ने जननेन्द्रिय और कुछ ने उसे पौरुष ग्रन्थियों के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। रीढ़ की हड्डी के निचले तिकोने भाग को ढकने वाले आवरण को भी किसी-किसी ने कुण्डलिनी का स्थान एवं उद्गम कहा है। एक व्याख्याकार ने ‘गैग्लियन इम्पार’ को कुण्डलिनी का स्थान माना है। ऐसी ही भ्रान्तियों के कारण कतिपय शारीरिक व्यायाम , आसन, बन्ध, मुद्रा आदि को कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के साथ जोड़ा गया है। नाड़ी संस्थान के उत्तेजित होने पर शक्ति उत्पन्न होती है वह सामयिक एवं क्षणिक ही अपने प्रभाव का परिचय दे सकती है। किन्तु कुण्डलिनी चिरस्थायी है। ऐसी दशा में उसे स्नायविक या नाड़ी शक्ति की संज्ञा देना उपयुक्त नहीं हो सकता।

कुण्डलिनी चेतनात्मक शक्ति है। उसे जीवनी शक्ति के -जिजीविषा के रूप में, शरीर में, अन्तःकरण चतुष्टय के रूप में सामान्य काम करने में संलग्न देखा जा सकता है। उससे आगे के स्तर प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं । यह विद्युत शक्ति तो हैं, पर जनरेटर, डायनेमो, बैटरी, चुम्बक आदि के सहारे काम करने वाली भौतिक बिजली से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती । जिसके कारण आत्म-स्वरूप के सम्बन्ध में आस्था-आकांक्षाओं का केन्द्र लोक -व्यवहार का दृष्टिकोण काया-कल्प की तरह बदल जाता हो उसे भौतिक सामर्थ्य नहीं कह सकते। आत्मा और परमात्मा के एकीकरण-आनन्द उल्लास के अभिवर्धन एवं चमत्कारी दिव्य क्षमताओं के उत्पादन में जिसकी असाधारण भूमिका प्रस्तुत होती है वह कुण्डलिनी भौतिकी नहीं, आत्मिकी ही मानी जाएगी।

कुण्डलिनी महाशक्ति की चर्चा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से हुई है। इनमें लगती तो भिन्नता है, पर वस्तुतः उसे परस्पर पूरक ही समझा जाना चाहिए। ईश्वर का भी समस्त वर्णन नहीं हो सका, उसके असंख्य पक्षों में से आत्म-प्रगति के लिए उपयोगी अंशों की ही चर्चा ब्रह्म विद्या के अन्तर्गत की जाती है। उसे समग्र नहीं माना जा सकता। ईश्वर के उसी पक्ष भी तो है। पदार्थ विज्ञानी अपने ढंग से ईश्वर के उसी पक्ष का अनुसंधान करते हैं। प्रत्येक प्राणी और पदार्थ पर जो चेतन तत्त्व की प्रतिक्रिया होती है उसका वर्णन किया जाने लगे तो असंख्यों अनुसन्धान करते हैं। प्रत्येक प्राणी और पदार्थ पर जो चेतन तत्त्व की प्रतिक्रिया होती है उसका वर्णन किया जाने लगे तो असंख्यों अनुसन्धान शास्त्र विनिर्मित करने पड़ेंगे। ईश्वर की भाँति ही जीवसत्ता और प्रकृति सत्ता का सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म स्थूल-अतिस्थूल विस्तार-विवेचन हो सकता है। अणोरणीयान् महतो महीयान् की उक्ति सर्वथा सत्य है। जो हम जानते हैं वह किसी भी प्राणी, पदार्थ या परिस्थिति के सम्बन्ध में एक अत्यन्त तुच्छ भाग है। हमारा अविशात अज्ञान ज्ञान-विज्ञान से कहीं अधिक बड़ा है। हम ज्ञानोपार्जन की दिशा में क्रमशः बढ़ रहे हैं।

प्रो० हडसन का कथन है कि आमतौर से जीवन शक्ति का प्रयोग, मात्र शरीर साधना में ही होता रहता है, पर यदि उसके प्रसुप्त पक्ष को जागृत किया जा सके और उस जागरण को महत्त्वपूर्ण आत्मिक उद्देश्यों में लगाया जा सके तो चेतना क्षेत्र की चमत्कारी शक्तियाँ हस्तगत हो सकती है।

कुण्डलिनी को ‘सार्वभौमिक, जीव तत्त्व भी कहते हैं। इसके भीतर आकर्षण (अट्रेक्शन) और विकर्षण (रिपल्शन) की दोनों ही धाराएँ विद्यमान् हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन प्रवाहों को जैवीय विद्युत एवं चुम्बकत्व वायो ‘इलेक्ट्रिसिटी एण्ड मैगनेटिज्म’ कह सकते हैं। दार्शनिक हर्वर्ट स्पेन्सर के अनुसार इसे जीवन सार-ऐसेन्स आफ लाइफ’ कहा जा सकता है। बाइबिल के अनुसार यही तत्त्व महान् सर्प है।

अध्यात्म शास्त्र इसे ब्रह्माग्नि कहते हैं और उसका केन्द्र संस्थान ब्रह्मरंध्र को मानते हैं। वहाँ से वह मूलाधार की ओर दौड़ती और वापिस आती है। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी को अपने आसन से नीचे की जल राशि तक कमल नाल के सहारे असंख्य बार चढ़ना-उतरना पड़ा तब यह सृष्टि बनी। इस गाथा में सहस्रार शक्ति को मूलाधार तक आते-जाते रहने का संकेत समझा जा सकता है।

आर्थर एवलन ने भी कुण्डलिनी को संगृहीत शक्ति बताया है। उनका कथन है कि - “जो महत् ब्रह्म सत्ता (ग्रेट कास्मिक पावर्स) ब्रह्माण्ड का सृजन एवं धारण करती है उसकी व्यक्ति देह में अवस्थित प्रतिनिधि सत्ता का नाम कुण्डलिनी शक्ति है।

स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक राजयोग में लिखा है - “वह केन्द्र जहाँ समस्त अवशिष्ट सम्वेदनाएँ (रेजिडुअल सेन्सेशन्स) संचित संगृहीत है, मूलाधार चक्र कहलाता है। वहाँ पर कुण्डलित क्रिया शक्ति (क्वाइल्ड अप एनर्जी आफ एक्शन्स) को कुण्डलिनी शक्ति कहा जाता है।

अवशिष्ट सम्वेदनाओं (रेजिडुअल सेन्सेशन्स) को सामान्य बची-खुची शक्ति नहीं समझनी चाहिए। वस्तुतः यह महाशक्ति के उद्भव का मूल कारण बीज है। यह क्या है तथा कैसे इसके द्वारा महाशक्ति का उद्भव हो सकता है ? इसके लिए विद्युत शक्ति उत्पादक यन्त्र (इलेक्ट्रिक जनरेटर) के सिद्धान्त से समझा जा सकता है।

जनरेटर में चुम्बकीय क्षेत्र में सुचालक धातु के तारों की कुण्डली (क्वाइल्स) घुमाने से उनमें विद्युत संवाहक शक्ति (ई०एम०एफ॰ अर्थात् इलैक्ट्रोमोटिव फोर्स) पैदा होती है। चुम्बकीय क्षेत्र बनाने के लिए अच्छे जनरेटरों में स्थाई चुम्बकों का प्रयोग नहीं किया जाता, उनमें विद्युत चुम्बकों का प्रयोग नहीं किया जाता, उनमें विद्युत चुम्बक (इलेक्ट्रो मैगनेट) प्रयुक्त होते हैं। चालू जनरेटर में उत्पादित विद्युत शक्ति का एक अंश इन विद्युत चुम्बकों को सशक्त बनाये रखने के लिए प्रयुक्त किया जाता रहता है। किन्तु जब जनरेटर बन्द होता है तो उससे कोई विद्युत प्रवाह प्राप्त नहीं किया जा सकता। समस्या उठती है कि विद्युत प्रवाह उपलब्ध न हो तो विद्युत चुम्बक कैसे कार्य करें ? और चुम्बकीय क्षेत्र के अभाव में विद्युत उत्पादन कैसे हो? इस समस्या का समाधान ‘रैजिडयल मैगनेटिज्म’ (अवशिष्ट चुम्बकत्व) से ही निकलता है। लोहे का गुण है कि उसके चारों ओर एक बार विद्युत प्रवाह पैदा किया जाय तो विद्युत प्रवाह की सबलता के अनुपात में उसके अन्दर चुम्बकत्व पैदा होता है। किन्तु यदि विद्युत प्रवाह रोक दिया जाय तो भी चुम्बकत्व एकदम समाप्त नहीं होता -थोड़ी मात्रा में बना ही रहता है। जब जनरेटर चालू किया जाता है तो यही काम मात्र का अवशिष्ट चुम्बकत्व थोड़ी-सी विद्युत शक्ति पैदा करता है। उसे बाहरी उपयोग की ओर न ले जाकर चुम्बकीय क्षेत्र बनाने वाली कुण्डलियों (क्वाइल्स) में ही प्रवाहित करते हैं। इससे चुम्बकीय क्षेत्र सबल होता चलता है तथा उसके प्रभाव से विद्युत शक्ति भी अधिक मात्रा में पैदा होने लगती है। यही क्रम थोड़े समय तक चलने से विद्युत को चुम्बक को विद्युत क्रमशः अधिकाधिक सशक्त बनाते हुए -जनरेटर को पूर्ण समर्थ उत्पादन की स्थिति में पहुँचा देते हैं

मूलाधार स्थित अवशिष्ट सम्वेदनाएँ जनरेटर के ‘रैजिडुल मैगनेटिज्म’ के समकक्ष कही जा सकती है तथा कुण्डलित क्रिया शक्ति- कुण्डलिनी शक्ति तार की कुण्डलियों क्वाइल्स में उत्पादित हो सकने वाली ई०एम॰ एफ॰ (विद्युत संवाहक शक्ति) के रूप में समझी जा सकती है। योग साधनाओं को जनरेटर चलाने की क्रिया विधि कहा जाना युक्ति संगत है। इनका सम्यक् प्रयोग मूलाधार क्षेत्र में सन्निहित शक्ति बीज को प्रचण्ड कुण्डलिनी ऊर्जा के रूप में विकसित कर सकता है।

प्राण शक्ति की व्याख्या कई रूपों में की जाती है। विभिन्न मनीषियों एवं संशोधकों द्वारा उसे (1) मानव विद्युदाकर्षण- ह्यूमन मैगनेटिज्म (2) जीव शक्ति-मेटाबोलिज्म (3) जीवन रस-प्रोटोप्लाज्म (4) जीवन रस एक्लोप्लाज्म (5) ब्रह्माण्डीय चेतना -कास्मिक एनर्जी आदि नाम दिये गये हैं। वस्तुतः यह सभी व्याख्याएँ प्राण शक्ति द्वारा उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं की है- स्वयं प्राण की नहीं।

जीवन क्षार- एनिमो ऐसिड के परमाणुओं को एक सिरा ऋण विद्युत और दूसरा धन विद्युत के आवेशों से युक्त होता है। इनके द्वारा जो आकर्षण डडडड बनता है उससे नये विद्युत अणु निकलते हैं। उन्हीं के आधार पर मानव शरीर में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति का संचार होता है । एनिमो ऐसिड की मूल प्रकृति में सन्निहित, रहस्यमयी क्षमता को वैज्ञानिक परिभाषा में ‘प्राण’ कहा गया है।

डा० हेनरी लिंडाल के अनुसार ब्रह्माण्ड में काम करने वाली अनेकों शक्तियों के मूल में प्राण शक्ति की प्रेरणा काम कर रही है। ईश्वर के परमाणुओं की अपेक्षा प्राण परमाणु कहीं अधिक सूक्ष्म है। विश्वव्यापी स्वाश्ट्रयुनिवर्मल ईथर की क्षमता को क्रियाशील करने का प्रयोजन प्राणशक्ति पूरा करती है।

डा० कार्रिगटन के ग्रन्थ ‘आधुनिक मनोविज्ञान और दृश्य’ में तथ्यों समेत यह बताया है कि मानवी चेतना का चिरस्थायी रूप ‘प्राण परमाणुओं से बना है और वह मरने के बाद भी बना रहता है। हेंग के डा० माल्ब की शोधों में इस प्राणमय शरीर को जानकारियों पर और भी अधिक प्रकाश पड़ता है।

सिलवान जे मुलडोन और हेरेबार्ड फैरिगटन द्वारा संयुक्त रूप से लिखित ‘दि प्रोजेक्शन आफ एस्ट्रल बाडी’ में प्राणमय शरीर और उसके स्वरूप एवं गतिविधियों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह भी पूर्ण सत्ता सम्पन्न हैं। “चाइनाज बुक आवदि डेय’ में उस देश की प्राचीन मान्यताओं एवं आधुनिक पर्यवेक्षकों का विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया गया है कि स्थूल शरीर ही नहीं प्राणमय शरीर का भी आवरण जीवात्मा को उपलब्ध है। डा० मैकडुगल ने प्राणमय शरीर का भार और विस्तार नापने में भी एक सीमा तक सफलता प्राप्त की है। फ्रांसीसी विज्ञान वेत्ता डुराबेल ने अपने ग्रन्थ में ऐसे चित्र छापे हैं जिनमें प्राणमय शरीर की स्थिति का अच्छा खासा परिचय प्राप्त होता है। प्रो० मुलडोन द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘प्रोजेक्शन आफ एस्ट्रल वाडी’ ग्रन्थ में प्राण सत्ता के अस्तित्व के विश्वस्त और अकाट्य प्रमाणों की भरमार है।

शरीर शास्त्र के अनुसार सुशुम्ना और इडा, पिंगला की संगति कुछ प्रत्यक्ष नाडियों के साथ बिठाने का प्रयत्न किया गया है। मेरुदण्ड की पोल में सुशुम्ना संचार है। सुशुम्ना के दोनों और स्नायु कोशों की जंजीरें ऊपर से नीचे तक फैली हुई है। दाहिनी ओर की जंजीर-राइट सिम्पैथिक कार्ड का पिंगला और बांये ओर की जंजीर लैफ्ट सिम्पैथिक कार्ड को इड़ा कहा गया है।

डा० राखाल दास राय की अपनी पुस्तक “रीजनल एक्स पोजिशन आफ भारतीय योग दर्शन’ में सुशुम्ना को उन्होंने -”स्पाइनल कार्ड’ बताया है। पिंगला को ‘राइट नर्बस् टर्मिनेल और इडा को लेफ्ट नर्वस टर्मिनेल नाम दिया है।

डा० व्रजेन्द्र नाथ सील ने अपनी पुस्तक ‘दि पॉजिटिव साँइसेज आब एनसियेन्ट हिन्दूज’ में प्राचीन और अर्वाचीन शरीर शास्त्र की विसंगतियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि दोनों प्रतिपादन शैलियों में ही अन्तर है। तथ्य लगभग मिलते-जुलते ही हैं। उसमें उनने बताया है कि योग शास्त्र के चक्र यद्यपि अदृश्य क्षमताओं के प्रतीक हैं तो भी उनका आधार स्थान प्रत्यक्ष नाडी गुच्छकों को मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वियोसोकिस्ट पत्रिका में मेजर वी०डी० वस्तु का एक लेख प्रकाशित हुआ था। “एनाटोमी आव तंत्राज” उसमें उनने योग संस्थानों को शरीर में पाये जाने वाले प्रत्यक्ष अवयव ही सिद्ध किया है और कहा है उन्हें अदृश्य या सूक्ष्म मानने की आवश्यकता नहीं है। से अवयव सामान्यतया शरीर यात्रा पूरी करते हैं पर असामान्य रूप से विकसित कर लिये जाने पर वे असाधारण कार्य भी कर सकते हैं जैसे कि मस्तिष्क और नेत्रों की परिष्कृत शक्ति से कई प्रकार के आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न किये जाते रहते हैं महा-महोपाध्याय गणनाथ सेन ने अपने ग्रन्थ प्रत्यक्ष शरीरम् तथा शरीर परिवेश में योग शास्त्र में वर्णित संस्थानों को इसी शरीर में विद्यमान् बताया है।

सरजन बुडरफ ने तन्त्र ‘पादुका पंचक और “षट्चक्र निरूपण’ की व्याख्या विवेचना पर एक विशद ग्रन्थ सर्पेन्ट पावर’ लिखा है। इसमें चक्रों की उपस्थिति प्रस्तुत शरीर में प्रत्यक्ष ही बताई गई है। वुडरफ ने इस ग्रन्थ के आधार पर एम०पी० पंडित ने एक छोटी पुस्तक कुण्डलिनी योग ‘अंग्रेजी में लिखी थी। इसमें वे चक्रों की उपस्थिति प्रत्यक्ष मानते हैं। थियोसोफी के आदि संचालकों में सी डब्ल्यू लेडवीटर का भी नाम है। उनके ग्रन्थ ‘चक्राज’ में चक्रों के अस्तित्व को मानवी काया में ही दृश्यमान बताया है। सूक्ष्य तो वे उनकी प्रसुप्त शक्तियों भर को कहते हैं।

कुण्डलिनी शक्ति को प्रायः जीवन अग्निफायर आफ लाइफ के रूप में ही प्रतिपादित किया गया है। उसकी अभिवृद्धि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से परिलक्षित होती है। शरीर क्षेत्र में उसके समर्थ आरोग्य के रूप में -मन में सन्तुलित विवेकशीलता के रूप में उसे देखा जा सकता है। काय कलेवर में वह बलिष्ठता-निरोगिता-स्फूर्ति क्रियाशीलता, उत्साह, तत्परता के साथ दृष्टिगोचर होती है। मस्तिष्क में उसका परिचय तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता, स्मरण शक्ति सूझ-बूझ कल्पना, निर्णय, क्षमता, कुशलता, व्यवस्था आदि के रूप में देखा जा सकता है। भावना क्षेत्र में वही श्रद्धा, निष्ठा, आस्था भाव संवेदन, करुणा, आत्मीयता, सौन्दर्यानुभूति के रूप में उभरती हैं। सब मिला कर उसे उच्चस्तरीय उत्कृष्टता को दिशा में जीव चेतना को धकेलते हुए देखा जा सकता है

जब वर्षा ऋतु आती है तो सूखे बीहड़ भी हरियाली से भर जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में जिनका कोई अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता, ऐसे दबे हुए बीज तथा सूखी जड़ इस प्रकार हरी भरी हो जाती हैं मानो किसी चतुर माली ने प्रयत्न पूर्वक इस वनस्पति सम्पदा को पावस का आगमन कह सकते हैं। मनुष्य शरीर एक विशाल उर्वर भूखंड कहा जा सकता है। इसमें एक से एक बहुमूल्य बीज दबे पड़े हैं। वर्षा न होने तक उनका अस्तित्व छिपा पड़ा रहता है किन्तु जैसे ही जागृत कुण्डलिनी का श्रावण बरसता है वैसे ही विशेषताओं और विभूतियों की सम्पदा अनायास ही अंकुरित और पल्लवित होने लगती है।


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