कुण्डलिनी जागरण से आत्मिक और भौतिक सिद्धियाँ

March 1977

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कुण्डलिनी आत्म शक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरणा है। यह जीव की ईश्वर प्रदत्त मौलिक शक्ति है। प्रसुप्त स्थिति में वह अविज्ञात बनी और मृत तुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठाना संभव नहीं हो पाता। यदि उसकी स्थिति को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि अपने ही भीतर वह भण्डार भरा पड़ा है जिसकी तलाश में जहाँ-जहाँ भटकना पड़ता है। वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अन्तराल में छिपी पड़ी हैं, जिसे कामधेनु कहा गया है। आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति का परिचय कराते हुए साधना शास्त्रों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने ही भीतर विद्यमान् इस महती क्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जाय और उससे सम्पर्क साधने का प्रयत्न किया जाय। कुण्डलिनी परिचय के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं -

मल-मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी का निवास माना गया है। उसे प्रचंड शक्ति स्वरूप समझा जाय। यह विद्युतीय प्रकृति की है। ध्यान से वह कौंधती बिजली के समान प्रकाशवान दृष्टिगोचर होती है। कुण्डलाकार है। उसका स्वरूप प्रसुप्त सर्पिणी के समान है।

यह उसका स्थानीय परिचय हुआ। अब उसका आधार, कारण, स्वरूप एवं प्रभाव समझने की आवश्यकता पड़ेगी। बताया गया है कि यह ब्राह्मी शक्ति हैं । स्वर्ग से गंगा अवतरित होकर पृथ्वी पर आई थी और इस लोक को धन्य बनाया था । इसी प्रकार यह ब्राह्मी शक्ति सत्पात्र साधकों की आत्म-सत्ता पर अवतरित होती है और उसे हर दृष्टि से सुसम्पन्न बनाती है। कहा गया है कि -

ज्ञेयाशक्तिरियं विश्णोर्निर्भया र्स्वगभास्वरा। सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रय प्रसूतिका॥

मूलाधारस्थ वन्ह्यात्मतेजो मध्ये व्यवस्थिता। जीव शक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तेजसी।

महाकुण्डलिनीप्रोक्ता परब्रह्मस्वरुपिणी। शब्दब्रह्ममयी देवी एकानेकाक्षराकृतिः।

शक्ति कुण्डलिनी नाम विसतन्तु निभा शुभा-महायोग विज्ञान

यह स्वर्ण समान आभा वाली महा शक्ति कुण्डलिनी निर्भयता प्रदान करने वाली है। वहीं वैष्णवी है। सत, रज, तम तत्त्वों को उत्पन्न करने वाली है। मूलाधार के मध्य में आत्म तेज रूपी अग्नि पुंज होकर विराजमान् है। जीवनी शक्ति वही है। तेजस्वी प्राण ही उसका आकार है। यह परब्रह्म स्वरूपिणी है। यह शब्द ब्रह्म मय है। इसकी अनेक आकृतियाँ हैं। इन शुभ कामनाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति का नाम कुण्डलिनी है।

स्वयं भू शिवलिंग में तीन लपेटे लगाकर सुप्त सर्पिणी की तरह पड़े होने की उपमा में यह संकेत है कि उसमें वे तीनों ही क्षमताएँ विद्यमान् हैं जो मानवी अस्तित्व को विकसित करने के लिए मूल भूत कारण समझी जाती है। आकांक्षा विचारणा, क्रिया एवं साधन सामग्री के आधार पर ही मनुष्य आगे बढ़ता, सफलता पाता और प्रसन्न होता है॥ इन तीनों के बीज अन्तरंग में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में विद्यमान् है। इन्हें विकसित करने पर यह तीनों क्षमताएँ भीतर से उमड़ती हैं तो बाहर के स्वल्प साधन मिलने पर भी उनको समुन्नत बनने का सहज अवसर मिल जाता है तो अन्तः क्षमता प्रसुप्त हो तो बाहर के विकास उपचार सफल नहीं होते किन्तु भीतर के स्रोत उमंगों का बाह्य क्षेत्र में उभरना कठिन नहीं है। गायत्री के तीन चरण कुण्डलिनी के तीन लपेटे हैं और उन्हें मानव जीवन की मूलभूत क्षमताओं के रूप में माना गया है।

प्रकृतिः निश्चला परावग्रूशिणी पर प्राणवात्मिका कुण्डलिनी शक्तिः। -प्रपंच सार मन्त्र

यह कुण्डलिनी महाशक्ति, अविचल प्रकृति और परावाणी है। यह पर ब्रह्म है।

इच्छाशक्तिश्च भूःकारः क्रिया शक्तिर्भुवस्तथा। स्वः कारः ज्ञान शक्तिश्र भूर्भुवः स्व स्वरुपकम्।

भूः - इच्छा शक्ति; भुवः- क्रिया शक्ति; स्वः -ज्ञान शक्ति , यह तीन व्याहृतियों का स्वरूप है।

सात्विकस्य ज्ञान शक्ति राजसस्य क्रियात्मिका। द्रव्य शक्तिस्तामसस्य तिस्रश्रामथिताभव-देवी भागवती

सात्विक ज्ञान शक्ति, राजस क्रिया शक्ति और तामस द्रव्य शक्ति यह तीन शक्तियाँ कही गई हैं।

ज्ञानेच्छाक्रियाणा तिमृणा व्यश्टीना महासरस्वती महाकाली महालक्ष्मीरित।

ज्ञान शक्ति इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति यह तीन ही शक्ति की प्रकृति हैं । इन्हें ही महा सरस्वती, महा कला और महा लक्ष्मी कहते हैं।

केचित्ताँ तप इत्याहुस्तमः केचिज्जडं परें । ज्ञानं मायाँ प्रधानं च प्रकृति शक्तिमप्यजान्। आनन्दरुपता चास्याः परप्रेमास्पदत्वतः । -देवी भागवत्

कोई मुझे तपः - शक्ति कहते हैं। कोई जड़। कोई ज्ञान कहते हैं कोई माया कोई प्रकृति । मैं ही परम प्रेमास्पद तथा आनन्द रूपा हूँ।

अहमेंव स्वयमिदं वदामि जुश्टं देवेभिरुत भानुशेभिः। य यं कामये तं तमुग्रं कृणोभि तं ब्रह्माण तमृशि तं सुमेधाम्॥ ऋ10125 ।5

देवताओं और मनुष्यों को अभीष्ट-प्राप्ति का मार्ग मैं ही बतलाती हूँ। जो मेरी विवेक-शक्ति की) उपासना का मुझे प्रसन्न करता है, उसे ही मैं प्रखर बनती हूँ। ब्राह्मण, ऋषि तथा मेधावी बनाती हूँ।

अपने में ही विद्यमान् परम वैभव के सम्बन्ध में अपरिचित रहना यही अध्यात्म की भाषा में अज्ञान या अन्धकार है। इसकी निवृत्ति को ही आत्म ज्ञान की आत्म साक्षात्कार की महान् उपलब्धि कहा गया है। प्रसुप्ति की जागृति में बदल देना खोये को तलाश कर लेना यही परम पुरुषार्थ है। आत्म साधनाओं को परम पुरुषार्थ कहा गया है। सामान्य पुरुषार्थों से धन, बल थोड़ी सी भौतिक उपलब्धियाँ स्वल्प मात्रा में उपार्जित की जा सकती है। वे भी अस्थिर होती है और मिलने के बाद उलटी अतृप्ति, भड़काती चलती हैं। किन्तु आत्मिक विभूतियों को उपार्जित करने की दिशा में बढ़ने पर प्रत्येक चरण क्रमशः अधिक उच्चस्तरीय प्रस्तुत करता चलता है। वे स्थायी भी होते हैं और तृप्ति कारक भी । उनसे अपना भी कल्याण होता और दूसरों का भी । इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आत्म साधना को परम पुरुषार्थ कहा गया है।

सोता हुआ मनुष्य मृत तुल्य निष्क्रिय पड़ा रहता है। जागृति होते ही उसकी समस्त क्षमताएँ जाग पड़ती हैं प्राण शक्ति कुण्डलिनी शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात है। जिसकी अन्तः शक्ति मूर्छित है समझना चाहिए कि वह तत्त्वतः सोया हुआ ही है। जिसका अन्तराल जग पड़ा उसकी महान् सक्रियता को कार्यान्वित होते हुए देखा जा सकता है। सोने की जागृति की , स्थिति में जितना अन्तर होता है उतना ही आत्म शक्ति के प्रसुप्त और जागृत होने की स्थिति में समझा जा सकता है। इसी प्रसुप्ति और जागृति के अन्तर की चर्चा ताण्डय ब्राह्मण में इस प्रकार हुई है-

कुण्डलिनी की प्रसुप्ति को जागृति में बदलने के लिए ‘साधना’ का उपाय अपनाना पड़ता है। इस जागरण प्रयास में लगने के लिए जो साहस करते हैं वे भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समुन्नत स्थिति प्राप्त करते चले जाते हैं। इस महान् जागरण के लिए प्रोत्साहित करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-

तदाहुः कोऽस्वप्नु यर्हतिः यद्वाव प्राण जागीत् देव जागरिम् इति। -ताण्ड्य

कौन सोता है? कौन जागता है ? जिसका प्राण जागता है, वस्तुतः वही जागता है ?

मूलाधारे आत्मशक्ति5 कुण्डलिनी परदेवता। शीयिता भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयान्विता॥

यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा। ज्ञान न जायते तावत् कोटियोग विधेरपि॥

आधार शक्ति निद्राया विश्वं भवति निद्रया। तस्या शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रति बुध्यते॥ -महायोग विज्ञान

आत्म शक्ति कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में साड़े तीन कुण्डलिनी लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। अब तक वह सोती है तब तक जीव पशुवत् बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी यह आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है, पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है।

विद्युल्लता परा जाता पंचानामातृ रूपिणी। अभ्यासा मार्ग योगात् सैका षोढा प्रजायते। पराचेत्तया ज्ञानाक्रिया कुण्डलिनि नीति च।

बिजली जैसी चमक वाली, पंचतत्वों एवं पंच प्राणों की माता, परम चेतना ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति कुण्डलिनी, योग साधना से उपलब्ध होती है।

प्रत्येककर्मसाफल्यं यत्प्रबोधे प्रजायते। अतस्तस्याः प्रबोधाय शक्तेर्यत्नवान भवेत्-महायोग विज्ञान

प्रत्येक कर्म की सफलता उस कुण्डलिनी के जागने से प्राप्त होती है। अतएव उस महाशक्ति को जगाने के लिए प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजंगाकार रूपिणी। जीवात्मा तिश्ठति तत्र प्रदीप कलिकाकृतिः। बहुभाग्यवशाद्यस्य कुण्डली जागृता भवेत्-घरेण्ड संहिता 6।16।18

मूलाधार चक्र में सर्पिणी आकार की कुण्डलिनी शक्ति है जो दीपक की लौ वैसी दीप्तिमान है। वहीं जीवात्मा का निवास है।

हे चण्ड, जिसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाए उसे बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए।

सुप्ता नागोपमाह्येश स्फुरन्ती प्रभवा स्वया। अहिवत् संधि संस्थाना वाग्देवी बीज सज्ञका। ज्ञेया शक्तिरियं विश्णोर्निभया र्स्वण भास्करा-शिव संहिता

यह कुण्डलिनी शक्ति सुप्त सर्पिणी के समान है। वही स्फुरणा, गति, ज्योति एवं वाक् है। यह विष्णु शक्ति है। स्वर्णिम सूर्य के समान दीप्तिवान् है।

सो यथा योज्यते यत्र तेन् निर्यात्यलं तथा॥ संवित्तिः सेव यात्यडं रसाद्यन्तं यथाक्रमम्। रसेनापूर्णतामेति तंत्रीभार इबाम्बुना॥ रसापूर्णा यमाकारं भावयत्याशु तत्तथा। धन्ते चित्रकृतो बुद्धो रेखा राम यथा कृतिम्-योग वशिश्ठ

यह कुण्डलिनी शक्ति रस भावना से ओत प्रोत है। उसके जागृत होने पर मनुष्य रस भावनाओं से ऐसे भर जाता है जैसे पानी भरने से चमड़े का चरस। यह रसिकता अनेक कलाओं के रूप में विकसित होते हुए जीवन को रससिक्त बना देती है।

इच्छा-ज्ञान क्रियात्मासौ तेजोरुपा गुणत्मिका। क्रमेणानेन सृजति कुण्डली पर देवता। विश्वात्मना प्रबुद्धा सा सूते मंत्रमयं जगत्॥ एकधा गणिता शक्तिः सर्व विश्वप्रवर्तिनी-महायोग विज्ञान

तेज स्वरूप कुण्डलिनी जागृत होने पर इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति को प्रखर बनाती है। सम्पूर्ण शरीर पर उसका प्रभाव दीखने लगता है। प्रसुप्त मन्त्रमय जगत जागृत हो उठता है। विश्वात्मा ज्ञान जागृत होता है। विश्व का प्रवर्तन करने वाली कुण्डलिनी साधक को अनेक गुण शक्ति सम्पन्न बना देती है।

कुण्डलिनी जागरण के प्रतिफल से परिचित होने पर साधक उसके लिए साधना प्रयास आरम्भ करता है और उस परम पुरुषार्थ का समुचित लाभ प्राप्त करता है कहा गया है कि -

शक्ति कुण्डलिनोति विश्व जनन व्यापार ब्रद्धोद्यमा ज्ञात्वे यं न तुनर्वशान्ति जननागर्मेकत्वं नराः-शक्ति तंत्र

कुण्डलिनी महा शक्ति के प्रयत्न से ही यह सारा संसार व्यापार चल रहा है जो इस तथ्य को जान लेता है वह शोक संतप्त भरे बंधनों से बँधा नहीं रहता ।

योग के आधार पर आध्यात्मिक और तन्त्र के आधार पर भौतिक उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। कुण्डलिनी जागरण में उभय पक्षीय संभावनाएँ सन्निहित है। यह दोनों ही प्रयोजन उससे सिद्ध होते हैं। गाड़ी के दो पहिये-पक्षी के दो पंख, मनुष्य के दो हाथ मिलकर जिस तरह उनकी क्षमता को मूर्तिमान् बताते हैं ; उसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण की प्रतिक्रिया जीवन के दोनों पक्षों को समुन्नत बनाती है। हठ योग प्रदीपिका में इसी तथ्य को इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है।

सशैलवन धात्रीणाँ यथाधीराऽहिनायकः। सर्वेशा योगतन्त्राणा तथा धारोहि कुण्डली॥ सप्ता गुरुप्रसादेन यथा जागति कुण्डली। तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यते ग्रंथयोऽपि च-हड योग प्रदीपिका

जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका आधार शेष नाग है उसी प्रकार समस्त योग साधनाओं का आधार भी कुण्डली ही है, जब गुस् की कृपा से सोयी हुई कुण्डली जागती है, तब सम्पूर्ण पद्य (षट्चक्र) और ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं।

योगिना हृदयाम्बुजे नृत्यन्ती नृत्यमज्जसा। आधारे सर्व भृताना स्फुरन्ति विद्युताकृति॥

अर्थात्- “योगियों के हृदय देश में वह नृत्य करती रहती है। यही सर्वदा प्रस्फुटित होने वाली विद्युत रूप महाशक्ति सब प्राणियों का आधार है।

सुप्ता सर्वोपमा मौला पाति साधकमीश्वरी। चैतन्या कुण्डलीशक्तिर्वायवी बलतेजसा। चैतन्या सिद्धिहेतुस्था ज्ञानमात्रं ददाति सा॥ ज्ञानमत्रेण् मोक्षः स्याद्वायवी ज्ञानमाश्रयेत्-महायोग सूत्र

अनन्त शक्तियों की भण्डार सुप्त सर्पिणी कुण्डलिनी अपने साधक का पालन और रक्षण करती है सो मुक्ति के आकांक्षी उसी की साधना करते हैं। प्राण वायु के द्वारा जागृत हुई यह कुण्डलिनी साधक के लिए सिद्धियों का आधार बनती है और उसे परम ज्ञान प्रदान करती है।

वेदाधीनं महायोगं योगाधीनं च कुण्डली। कुण्डल्यधीन् चित्तंतुचित्तासधीनं चराचरम्। मनसः सिद्धि मात्रेण शक्तिसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम्। यदि शक्तिवशीभूता त्रैलोक्यं स्यात्तदा वशे॥

वेद के आधीन योग है। योग के आधीन कुण्डलिनी। कुण्डलिनी के आधीन चित्त है और चित्त के आधीन चराचर जगत्।

मन की सिद्धि होने से शक्ति की सिद्धि हो जाती है और जिसने शक्ति को वश में कर लिया तीनों लोक उसके वश में होते हैं। -महायोग विज्ञान

उद्घाटयेत्कपाटं तु यथा कुडिडडचकया हठात्। कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत्॥

येन मार्गेण गंतव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम्। सुखेनाच्छाद्य तद्द्ववारं प्रसुप्ता परमेश्वरी॥

कदोर्ध्व कुण्डली शक्तिः सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्। बंधनाय च मूढ़ाना यस्ता वेत्ति स योगवित्-हठ योग प्रदीपिका 3।105 से 107

अर्थात् जिस प्रकार कुँजी से किवाड़ खोले जाते हैं, वैसे ही योगी कुण्डलिनी द्वारा मोक्ष द्वार को खोलते हैं।

निरामय ब्रह्म स्थान को जाने वाले मार्ग को अपने मुख से ढाँके कुण्डलिनी परमेश्वरी सोती रहती है। कन्द के ऊर्ध्व में सोयी पड़ी यह कुण्डलिनी ही (जागने पर) योगियों के मोक्ष का साधन बनती है और (सोती रहने पर) मूँ के बन्धन का कारण बनी रहती है। इस रहस्य को जानने वाला ही योगी होता है।

नमस्ते देवदेवेशि योगीश प्राणवल्लभे। सिद्धिदे वरदे मातः स्वयम्भूलिंगवेश्टिते॥

प्रसुप्तभुजगाकारे सर्वदा कारणप्रिये। कामकलान्विते देवि! मनोऽभीश्टं कुरुश्व च ॥

असारे घोरसंसारे भवरोगान्महेश्वरि। सर्वदा रक्ष माँ देवि! जन्मसंसाररुपकात्॥ इति कुण्डलिनीस्तोत्रं ध्यात्वा यः प्रपठेत्सुधीः-योग सार

योगियों की प्राण बल्लभा सिद्धि दायिनी, वरदायनी, स्वयं भू लिंग के साथ लिपटी हुई, सोई सर्पिणी के रूप वाली, काम कलाविन्त, अभीष्ट फलदायक है। हे देव देवेशि आपको नमस्कार। इस सार रहित घोर कष्ट दायक भव रोगों से घिरे, जन्म मरण रूपी संसार में हे देवि, मेरी रक्षा कीजिए। इन भावनाओं के साथ प्रज्ञावान साधक कुण्डलिनी महा शक्ति का ध्यान एवं स्तवन करें।


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