प्राणायाम से प्राणमय कोश का परिष्कार

March 1977

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प्राणमय कोश आत्मा पर चढ़ा हुआ दूसरा आवरण है। अन्नमय कलेवर खाने-पीने काम करने जैसे प्रयोजन पूरे करता है। इसके भीतर जो ऊर्जा, स्फूर्ति, उमंग काम करती है वह प्राण है। प्राण से ही शरीर चलता और जीवित रहता है। जिसका यह कोश जितना समर्थ है वह उतना ही प्रतापी , पराक्रमी, शूर, साहसी प्रतीत होगा। उसका बढ़ा-चढ़ा चुम्बकत्व दूसरों का सहयोग, सद्भाव अनायास ही आकर्षित करता रहेगा। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी व्यक्तियों में यही प्राण प्रखरता आलोकित रहती है।

स्थूल अन्नमय कोश के कण-कण में प्राण ऊर्जा संव्याप्त है , पर उसका केन्द्र संस्थान प्रवेश द्वार जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित मूलाधार चक्र है। इसकी उमंगें कामेच्छा के रूप में मन को और रति कर्म की ललक बनकर शरीर को उत्तेजित करती रहती है। इसी केन्द्र के रस-रज वीर्य के अंतर्गत छोटे-छोटे कीटाणुओं में समूचे मनुष्य की आकृति-प्रकृति बीज रूप से विद्यमान् रहती है। सरसता की विविध-विधि उमंगें यहीं से उठती है। कला केन्द्र इसी को कहा जाता है। सौंदर्य बोध से लेकर उल्लास भरे भविष्य की आशा यहीं से निसृत होती है। डार्विन के अनुसार विकासवाद के मूल तत्त्व कामुकता के विविध रूपों में प्राणी को प्रेरित प्रभावित करते हैं। निस्तेज, निरुत्साही, व्यक्ति को नपुंसक कहा जाता है। यह एक गाली है। जिसका अर्थ मनुष्य को नीरस निराश बनकर रहना होता है।

मूलाधार चक्र की विशेष व्याख्या कुण्डलिनी जागरण के सन्दर्भ में की जाएगी। यहाँ तो इतना ही कहा जा सकता है कि शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य को साधना करते हुए इस प्रचण्ड शक्ति को निग्रहित किया जा सकता है और उसे भक्ति भावना में कला सम्वेदना में, लोक साधना में तथा अन्यान्य उल्लास वर्धक सत्प्रयोजनों में लगाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त प्राणायाम साधना का अपना महत्त्व है। दैनिक कृत्यों में उसे ऐसे ही रेचक, कुम्भक, पूरक के नित्य कर्म में संयुक्त रखा जाता है। फेफड़ों के व्यायाम के लिए -डीप ब्रीदिंग- लम्बी साँस लेने की कई पद्धतियाँ देश-विदेश में इन दिनों बहुत लोकप्रिय और लाभप्रद सिद्ध हो रही है। शिथिलासन के साथ किया जाने वाला प्राणाकर्षण प्राणायाम अपनी उपयोगिता के लिए प्रख्यात है। चौरासी सामान्य और उनमें से चुने हुए आठ विशिष्टों की चर्चा साधना ग्रन्थों में मिलती है। नाड़ी शोधन, लोम विलोम, सूर्यभेदन साधनाएँ भी प्राण विद्या के अंतर्गत ही आती है। इनमें से पंचकोशी साधना के अंतर्गत प्राणमय कोश के परिष्कार के लिए किसे कौन-सा प्राणायाम करना चाहिए, उसका विधान साधकों की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्थिति को परख करके ही बताया जा सकता है। कोश साधना में सभी को एक लाठी से नहीं हाँका जा सकता ।

इड़ा, पिंगला, सुशुम्ना तीन प्राण नाड़ियाँ प्रधान है। इसके अतिरिक्त दस विशिष्ट है। सामान्यों की संख्या बहुत अधिक है। इन्हें किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उपयोग में लाकर प्राणमय कोश का कौन-सा पक्ष तीव्र एवं मन्द किया जाना चाहिए इसका उल्लेख यहाँ न करके इन पंक्तियों में इतना ही कहा जा सकता है कि प्राण विद्या के अंतर्गत प्राणायाम प्रक्रिया का सहारा लेकर प्राणमय कोश की समग्र एवं आँशिक साधना की जा सकती है। प्राणायाम दीखने में ही सामान्य लगता है, पर यदि उच्चस्तरीय विधान के आधार पर साधा जाय तो शारीरिक , मानसिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए उससे महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है।

प्राण तत्त्व का मनःसंस्थान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहसिकता के अभाव में मन दुर्बल पड़ता है, उसकी चिंतनशीलता व सक्रियता शिथिल पड़ जाती है। शरीर से दुर्बल होने पर भी मनस्वी व्यक्ति सुदृढ़ व्यक्ति भी मनोबल के अभाव में दीन-हीन अकर्मण्य, निराश, भयभीत बना रहता है। प्राण-शक्ति ही साहस बनकर उभरती और मनोबल का आधार बनती है।

मन पर नियन्त्रण कर सकने वाला अंकुश उसके साथी प्राण के ही हाथ में है । मन की चंचलता प्रसिद्ध है, वह क्षण-क्षण में अस्त-व्यस्त बना इतस्ततः उड़ता रहता है। एक स्थान पर न टिक पाने से किसी महत्त्वपूर्ण दिशा में गम्भीरतापूर्वक सोच सकना और तन्मयतापूर्वक प्रस्तुत कार्य कर सकता संभव नहीं होता। एकाग्रता और तत्परता बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती । जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य दत्त-चित्त होकर करने से ही सम्पन्न होते हैं। चंचलता प्रगति पथ को सबसे बड़ी बाधा है। इसके रहते हुए सुयोग्य व्यक्ति भी पग-पग पर ठोकरें खाते और असफल रहते देखे जाते हैं। भौतिक क्षेत्र की भाँति आत्मिक क्षेत्र की सफलताएँ भी चंचलता के निरोध पर निर्भर है। योग का परिभाषा करते हुए महर्षि पतंजलि ने उसे चित्त-वृत्तियों का विरोध बताया है। इस चित्त-प्रवृत्ति को दो रूपों में देखा जाता है- एक तो अस्थिर चंचलता, दूसरे पाशविक कुसंस्कारों की ओर रुझान । इन दोनों ही अवांछनीयताओं पर नियन्त्रण स्थापित करने से चित्त-वृत्ति निरोध की योग-साधना सम्भव होती है।

मन पर नियन्त्रण करने के नियन्त्रण करने के लिए शास्त्रकारों ने प्राणायाम साधना पर बहुत बल दिया है । दोनों की परस्पर घनिष्ठता बताते हुए कहा गया है कि यदि प्राण पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो मनोनिग्रह जैसा कठिन कार्य सरल बन जायेगा।

पवनो बध्यते ये मनस्तेनैव बव्यते। मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते॥

हेतुद्वयं तु चित्तस्य वासना स समीरणः। तथोविनश्ट एकस्िमस्तौ द्वावपि विनश्यतः॥ -हठयोग प्रदीपिक 4।21

जिसने प्राण वायु को जीता उसने मन जीत लिया। जिसने मन जीता उसने प्राण जीत लिया । चित्त की चंचलता के दो ही कारण हैं-एक वासना का दूसरा प्राण वायु का चंचल होना। इनमें से एक के नष्ट हो जाने पर दोनों का नाश हो जाता है।

चले वाते चला बिन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत्। योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुँ निरुंधयेत्-गोरक्ष प0 1।90

प्राण वायु चलायमान रहने से बिन्दु चलायमान रहता है। प्राण निश्चल हो जाने से वीर्य भी निश्चल हो जाता है। समर्थ स्थिरता प्राप्त करने के लिए योगी प्राणायाम करे।

मनो यत्न विलीयते पवनस्तभ लीयते। पवनो लीयते यत्र मनस्तभ विलीयते-ह-प्र 4।23

अर्थ- जिस जगह मन विलीन हो जाता है उस जगह प्राण वायु लीन हो जाता है और जहाँ वायु विलीन हो जाती है वहाँ मन लीन हो जाता है।

दुग्धाम्बुबत्यं मिलिताबुभौ तो तुल्य क्रियौ-मानस मारुती हि। यतो मरुचत्र मनः प्रवृत्तिर्यतो मनस्तत्र-मरुत्प्रवृत्तिः-हठ॰ प्रदी0 4।24

अर्थ- एक क्रिया वाले दोनों मन एवं वायु, दूध और पानी के समान मिले हुए हैं, इसी से जहाँ वायु है वहाँ मन की प्रवृत्ति होती है और जहाँ मन है वहाँ वायु की प्रवृत्ति है।

याव द्वायुः स्थिरो देहे तावज्जीवन मुच्यते। मरणं तस्यनिश्क्राँतिस्ततो वायु निरोधयेत्-ह-प्र 2।3

अर्थ- जब तक शरीर में प्राण वायु विद्यमान् है, तब तक की वह जीवित है और शरीर से प्राण वायु का निकलना ही मृत्यु है इसलिए प्राण वायु का निरोध करना चाहिए।

स यथा शकुनिः सूत्रे प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वा न्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्चयते, एवमेव खलु

सोम्यैतन्मनो दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा-प्राणमेवोपश्चयते प्राणबन्धन हि सोम्य मन इति-छान्दो 6।8।2

जिस प्रकार डोरी से बँधा हुआ पक्षी घूमघाम कर अपने मूल आश्रय पर ही आ जाता है, उसी तरह हे सौम्य मन कहीं दूसरी जगह आश्रय न पाने पर घूमघाम कर प्राण का ही आश्रय लेता है। क्योंकि मन प्राण से ही बँधा हुआ है।

नानविधैर्विचारैस्तु न साध्यं जायते मनः। तस्मात्तस्य जयः प्रायः प्राणस्य जय एव हि-योग बीज

अनेकों प्रकार के विचारों से मन साध्य नहीं होता है इससे प्राण वायु के जीतने से ही मन जीता जाता है।

चित्तं न साध्यं विविधैर्विचारैर्वितर्कवादैरपि वेदवादिभिः।

तस्मात्तु तस्यैव हि केवलं जयः प्राणो हि विद्येत न कश्चिदन्यः-योग रहस्य

विविध विचारों, तर्कों और अध्ययन श्रवण आदि से चित्त का समाधान नहीं होता, मनोनिग्रह तो प्राणायाम से ही सम्भव है।

हठिनामधिकस्त्वेकः प्राणायाम परिश्रमः। प्राणायामे मनः स्थैर्य स तु कस्य न सम्मतः ॥ -बोधसार

हठयोगियों का मुख्य साधन श्रम-साध्य प्राणायाम है। यह अन्यान्य योगियों की साधना से अधिक है। परन्तु वह प्राणायाम सिद्ध हो जाने पर मन स्थिर हो जाता है, यह कौन स्वीकार नहीं करेगा।

इन्द्रिय विकार-अनियन्त्रित वासना प्रवाह का कारण शारीरिक नहीं मानसिक ही होता है। इन्द्रियों पर मन का नियन्त्रण है। मन विकारग्रस्त होगा तो इन्द्रियों की चंचलता भी उभरेगी और वे कुकृत्य कर सकेंगी। यदि मन पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो वासना पर अंकुश स्वयमेव लग जाता है। प्राणायाम से मनोनिग्रह-से वासनाजन्य विकारों की रोकथाम सम्भव होती है। असंयम के लिए उत्तेजित करने वाले विकृत मन को कुमार्ग त्यागने के लिए सहमत करना प्राणायाम की सुनियोजित साधन-पद्धति अपनाने से सम्भव हो सकता है। इस सम्बन्ध में साधना विज्ञान का मन्तव्य इस प्रकार है-

प्राणायामो भवेदेवं पातकेन्धनपावकः । भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभि सदा-योग चूडा़मणि उप॰ 108।109

प्राणायाम की अग्नि पाप रूपी ईंधन को जलाकर पार कर देती है और वह सेतु के समान संसार सागर से पार होने का मार्ग खोलता है।

रसस्य मनसश्चैव चंचलत्वं स्वभावतः। रसो वद्धो मनो बद्धं कि न सिद्ध यति भूतले॥

मूर्च्छितो हरते व्याधीन् मृतो जीवयति स्वयंम्। बद्धः खेचरताँ धत्ते रसो वायुश्च पार्वति।

मनःस्थैर्ये स्थिरो वायुस्ततो बिन्दुः स्थिरो भवेत। बिन्दुस्थैर्यात्सदा सत्वं पिण्डस्थैर्य प्रजायते॥ हठ॰ प्रो0 प्रदी0 4।26 से 28

रस और मन यह दोनों ही स्वभावतः चंचल हैं। रस के बँध जाने से मन बँध जाता है। इनके बँध जाने पर भला क्या सिद्धि नहीं मिल सकती । 26।

यह रस और प्राण मूर्छित होने पर समस्त रोगों को हर लेते हैं, मरने पर दूसरों को जला देते हैं, बँधने पर आकाश में गमन करते लगते हैं।27।

मन के स्थिर हो जाने पर प्राण स्थिर हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से वीर्य स्थिर होता है। वीर्य के स्थिर होने से शरीर में सदा सत्व स्थिर रहता है।28।

इन्द्रियाणा मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः। मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ॥ ह0प्र0 4।29

अर्थ- इन्द्रियों का प्रवर्तक मन है और मन का प्रवर्तक वायु है और प्राण का नाथ मन का लय है और वह मन का लय नाद से आश्रित है।

हेतु द्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः । तपोर्विनश्ट एकस्मिस्तौ द्वावपि विनश्यतः-ह-प्र 4।22

अर्थ- वित्त की प्रवृत्ति में दो कारण है- एक वासना, दूसरी प्राण वायु। उन दोनों में से एक के नष्ट हो जाने पर दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।

अध्यात्म साधना में प्राणायाम की योगाभ्यास का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। उससे मात्र मनोनिग्रह का लाभ ही नहीं मिलता अन्य सूक्ष्म संस्थानों का भी परिशोधन होता है। शारीरिक आरोग्य का लाभ सर्वविदित है। फेफड़े सुदृढ़ होने अधिक मात्रा में प्राण वायु के शरीर में प्रवेश करने से जीवन तत्त्व भी अधिक मिलते हैं और परिशोधन की गति भी तीव्र होती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीरों पर -स्वास्थ्य संवर्द्धन और मानसिक परिष्कार का प्राणायाम का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। कारण शरीर के भाव संस्थान पर भी इस साधना की उपयुक्त प्रतिक्रिया होती है। आत्मिक पवित्रता बढ़ती है। अन्तःकरण में श्रेष्ठ संस्कारों का उभार होने लगता है। ऐसी स्थिति बनती चले तो आत्मिक प्रगति में किसी प्रकार का सन्देह न रह जाएगा। कहा भी है -

दह्यन्ते ध्यायमानानाँ धातूनाँ हि यथा मलाः। तथेन्द्रियाणाँ दह्यन्ते दोशाः प्राणस्य निग्रहात्-मनु

जैसे अग्नि में डालने से धातुओं के मल जल जाते हैं। वैसे ही प्राणायाम करने से इन्द्रियों के विकार दूर हो जाते हैं।

यथा पर्वतधातूनाँ दह्यन्ते धर्मनान्मलाः। तथेन्द्रियकृताँ दोशः दह्यन्ते प्राणधारणात्-अमृतनादोशनिशद्

जिस प्रकार सोने को तपाने से उसके खोट जल जाते हैं उसी प्रकार इन्द्रियों के विकार प्राणायाम से जल कर नष्ट होते हैं

प्राणायामेन युक्तस्य विप्रस्य नियतात्मनः। सर्वे दोशाः प्रथश्यन्ति सत्वस्थश्चैव जायते॥

तपाँसि यानि तप्यन्ते व्रतानि नियमाश्च ये। सर्वयज्ञफलश्चैव प्राणायामाश्च तत्समः ॥ -वायु पुराण

प्राणायाम से युक्त नियत आत्मा वाले विप्र के समस्त दोष नष्ट हो जाया करते हैं और फिर वह केवल सत्वगुण में ही स्थित रहा करता है। जो भी तपस्यायें तपी जाती है, व्रत लिए जाते हैं और नियम ग्रहण किये जाते हैं तथा समस्त यज्ञों के करने का जो भी कुछ फल होता है वह सब प्राणायाम के समान होता है।

तस्माद्युक्तः सदा योगी प्राणायामपरो भवेत्। सर्व पापविशुद्धात्मा परं ब्रह्माधिगच्छति-वायु पुराण

इसलिए योगी को सर्वदा युक्त होकर प्राणायाम में परायण होना चाहिए। वह फिर समस्त पापों से विशुद्ध आत्मा वाला होकर परब्रह्म को प्राप्त कर लिया करता है।

प्राणायामो भवत्येवं पातकेन्धनपावकः। भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा-योग सन्ध्या

प्राणायाम करने से जैसे पातक रूपी काष्ठ को भस्म करने वाला अग्नि होता है तैसे ही संसार रूपी समुद्र से तारने वाला बड़ा पुल योगियों ने प्राणायाम को कहा है।

तपो न परं प्राणायामात् ततो विशुद्धिर्मलानाँ दीप्तिश्च ज्ञानस्य-पज्च शिखाचार्य

प्राणायाम से बढ़कर और कोई तक नहीं। उससे मलों की शुद्धि होती है और ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त होता है।

सुशुम्नायाँ सदेवायं बहेत् प्राणसमीरणः। एतद् विज्ञान मात्रेण सर्व पापैः प्रमुच्यते-गोरखनाथ

यह प्राण वायु सुशुम्ना नाड़ी में सर्वदा ही प्रवाहित होता है। परन्तु जो योगी इसे जान जाते हैं वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।

प्राणायामेन चित्तं शुद्धं भवति सृव्रत। चित्ते शुद्धे शुचिः साक्षात्प्रत्यग्ज्योतिव्यवस्थितः॥ सर्वपापविनिर्मुक्तः सम्यग्ज्ञानमवाप्नुयात्। मनोजवत्वमाप्नोति पलितादि च नश्यति-जावाल दर्शनोपनिशत् 6।16।19

प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है। चित्त शुद्ध होने से अन्तःकरण में प्रकाश होता है और उस प्रकाश में आत्म-साक्षात्कार होता है।

प्राणायाम का साधक श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करता है। मनस्वी और मनोजयी बनता है।

मार्कंडेय पुराण में प्राणायाम के चार स्तर बताये गये हैं और उनके द्वारा उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति होने का प्रतिपादन किया गया है-

तस्माद्युक्तः सदा योगी प्राणायाम परो भवेत्। श्रूयताँ मुक्ति फलद तस्यावस्था चतुश्टयम्॥

ध्वनिस्तः प्राप्ति स्तथा संवित् प्रसादश्च महीयते। स्वरुपं श्रुणुचेतशाँ कथ्यमान मनु क्रमात्॥

कर्म्मणामिश्टदुश्टानाँजायतेफलसंक्षयं। चेतसोऽपकशायत्वयत्रसाध्वस्तिरुच्यते॥

ऐहिकामुऽमिकान्कामाँल्लोभोहात्मकान्स्वयम्। निरुध्यास्तेसदायोगीप्राप्तिः सासार्वकालिकी॥

अतीतानागतानर्थान्विप्रकृष्टतिरोहितान्। विजानातीन्दुसूर्य्यर्क्षग्रहाणाँज्ञानसम्पदा॥

तुल्यप्रभावस्तुयदायोगीप्राप्नोतिस विदम्। तदासम्विदितिख्याताप्राणायाम स्यसास्थितिः॥

यान्तिप्रसादयेनास्यमनः पंचचवायवः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्चसप्रसादइतिस्मृतः॥

जैसे सिंह, व्याघ्र और हाथी को सिखा सधा कर नम्र बना लिया जाता है, वैसे ही प्राणायाम से प्राण वश में होते हैं।

जैसे महावत हाथी को अंकुश के बल पर इच्छानुसार चलाता है, वैसे ही योगीजन प्राण से इच्छानुसार काम लेते हैं।

जैसे पाला हुआ चीता मृगों को ही मारता है, पालने वाले को नहीं। उसी प्रकार प्राणायाम से सँभाला हुआ प्राण पापों को नष्ट करता है, जीवन को नहीं।

प्राणायाम की चार स्थिति हैं - (1) ध्वस्ति (2) प्राप्ति (3) सवित् (4) प्रसाद।

जिससे दूषित कर्मों और मनोविकारों का शमन होता है, उसे ध्वस्ति कहते हैं।

जिससे लोभ, मोह आदि से भरी कामनाएँ समाप्त हो जाती हैं उसे प्राप्ति कहते हैं।

जिससे ग्रह-नक्षत्र और सूक्ष्म लोकों से सम्बन्ध जुड़ जाता है तथा दिव्य ज्ञान की ज्योति दीप्तिमान होती है। अतीत अनागत और तिरोहित जान लिया जाता है उसे संवित कहते हैं।

जिस स्थिति में पाँचों प्राण तथा दसों इन्द्रियाँ वश में हो जाती है, चित्त में आनन्द, उल्लास अनुभव होता है उसे प्रसाद कहते हैं।

प्राणायाम की पहुँच अध्यात्म क्षेत्र के अति महत्त्वपूर्ण परतों तक है। उसे शारीरिक , मानसिक, व्यायामों का उपचार मात्र नहीं समझना चाहिए। वरन् उसे उच्चस्तरीय योग साध नहीं मानकर चलना चाहिए। पुरश्चरण अनुष्ठानों की सफलता के लिए पूर्व भूमिका के रूप में प्राणायाम विज्ञान की विशेष साधनाएँ कराई जाती है। कहा गया है-

विना प्राणं यथा देहः सर्व कर्मसु न क्षमः। बिना प्राणं तथा मंत्रः पुरश्चर्याशतैरपि॥

प्राण रहित होने पर जैसे शरीर में काम करने की कुछ भी क्षमता नहीं रहती, उसी तरह मन्त्र की प्राण शक्ति को जब तक जागृत नहीं कर लिया जाता तब तक सैकड़ों पुरश्चरण करने पर भी मन्त्र शक्ति से अभीष्ट लाभ की आशा नहीं की जा सकती ह।

या ते तनूर्वाचि प्रतिश्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुशि। या च मनसि सन्तता शिवा ताँ कुरु मोत्क्रमीः॥ प्राणस्येदं वशे सर्व त्रिदिवे यत्प्रतिश्ठितम्। मातेव पुत्रान् रक्षस्त श्रीश्च प्रज्ञाँ च विधेहि न इति-प्रश्नोपनिषद् 2।12।13

हे प्राण, तेरा ही रूप वाणी में निहित है तू ही श्रोत, नेत्र, मन में विद्यमान् है। तू उन्हें कल्याणकारी बना। इस शरीर में ही विद्यमान् रह। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है सो सब तुझ प्राण के ही आश्रित है। तू माता-पिता के समान हमारी रक्षा कर और हमें सम्पदाओं तथा विभूतियों से सम्पन्न कर।


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