अपनों से अपनी बात

March 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शान्ति-कुँज की प्रशिक्षण प्रक्रिया का प्रथम पाँच वर्षीय कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। उसमें प्रत्यावर्तन सत्र और जीवन साधना सत्र चले। उनमें प्रायः 10 हजार शिक्षार्थी सम्मिलित और लाभान्वित हुए। अब द्वितीय पंच वर्षीय प्रशिक्षण योजना आरम्भ होती है। इसे गायत्री की उच्चस्तरीय साधना समझा जाना चाहिए।

आरम्भिक छात्रों की कालेज स्नातकों की शिक्षा का उद्देश्य तो समान रहता है, पर उसकी व्यवहार पद्धति के स्वरूप में भारी अन्तर रहता है। गायत्री महामन्त्र की साधना का पूर्वार्ध आत्मिक है। उसमें वाचिक, मानसिक, उपाँशु पद्धति के अनुष्ठान पुरश्चरण करने पड़ते हैं। उनकी पूर्णाहुति होमात्मक होती है। ब्रह्मभोज; कन्याभोज जैसे दान-पुण्य भी साथ में जुड़ते हैं। इन साधनाओं में उपवास ब्रह्मचर्य आदि की तितीक्षाएँ भी करनी पड़ती है। जो इतना सब नहीं कर सकते उनके लिए भी द्वार बन्द नहीं है। वे किसी भी स्थिति में -रास्ता चलते -चारपाई पर पड़े -बिना स्नान किये भी गायत्री का मानसिक जप कर सकते हैं। गायत्री के 24 अक्षरों में सन्निहित शिक्षाओं का अवगाहन करते हुए धर्म-शास्त्र और अध्यात्म विज्ञान के सारतत्त्व को हृदयंगम कर सकते हैं। यह सुलभ मार्ग सदा ही आरम्भिक साधकों के लिए खुला रहेगा।

स्नातक शिक्षा उनके लिए उपयुक्त है जिन्होंने प्रारम्भिक कक्षाओं में गति प्राप्त कर ली है। पहला प्रवेश कालेज में नहीं मिलता, प्रवेशिका की योग्यता प्राप्त कर लेने के उपरान्त ही उसमें स्थान मिलता है। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना उन्हीं के लिए अभीष्ट है जो पहले से ही गायत्री उपासना करते रहे हैं अथवा अन्य प्रकार से अपनी आत्मिक स्थिति को ऊँची उठा चुके है। गायत्री विद्या का योग पक्ष और ब्रह्म तेज का तपश्चर्या पक्ष दोनों ही समन्वित है। सविता का भर्ग तत्त्व ब्रह्म तेज है और धियः तत्त्व की प्रेरणा ब्रह्म विद्या कहलाती है। इन दोनों का समन्वय ब्रह्म वर्चस् है।

उच्चस्तरीय साधना के लिए उपयुक्त वातावरण एवं साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। ब्रह्म वर्चस् आरण्यक नाम से जो नया आश्रम इन दिनों बन रहा है उसमें इसी प्रकार की व्यवस्था की गई हैं। यह स्थान बिलकुल गंगा तट पर है। कुछ ही गज दूरी पर भगवती जाह्नवी की पुनीत धारा बहती है। उसी में स्नान, उसी का जल-पान सातों ऋषियों ने जिस भूमि पर बैठकर तप किया था, गंगा ने उनके व्यक्तित्व और प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए स्वयं ही मार्ग छोड़ दिया था और सात धाराओं में बहने लगी थीं। इस आख्यायिका का कई पुराणों में वर्णन है। अभी भी ऋषियों के वे तप स्थान छोटे-छोटे टापुओं के रूप में गंगा के मध्य विद्यमान् है। उन पर वृक्ष भी हैं। प्रयत्न यह किया जाएगा कि साधकों को उन द्वीपों में जाकर साधनाएँ करने का अवसर मिले। इसके लिए एक नाव का प्रबन्ध भी किया जाएगा जो साधकों को उनमें पहुँचाने और लाने के काम आती रहे। सप्त ऋषियों से लेकर अन्यान्य अध्यात्म साधक चिरकाल से इसी दिव्य वातावरण का लाभ लेते और लक्ष्य में सफल होते रहे हैं । देवताओं , ऋषियों और महामानवों ने इस भूमि से महत्त्वपूर्ण अनुदान पाये हैं। ब्रह्म वर्चस् आरण्यक का निर्माण भी ऐसे ही श्रेष्ठतम स्थान पर किया गया है। संस्कारवान भूमि का प्रभाव साधना की प्रगति में दृष्टिगोचर होकर रहता है। जिस दिव्य संरक्षण, मार्ग-दर्शन प्रकाश और अनुदान की इसमें व्यवस्था रहेगी उससे इस साधना स्थल का महत्त्व और भी बढ़ा है।

ब्रह्म वर्चस् आरण्यक का निर्माण कार्य इन दिनों चल रहा है। आर्थिक तंगी के कारण निर्माण की गति धीमी है। सुविधा होती तो निर्माण और भी जल्दी हो सकता था। जैसे जितने साधन हैं उस क्रम से काम हो रहा है। आशा की गई है कि जून के अन्त तक एक सीमित संख्या में साधकों के निवास का प्रबन्ध वहाँ हो जाएगा और क्रमबद्ध ‘ ब्रह्म वर्चस्’ प्रशिक्षण 1 जुलाई 77 से उसी भूमि से चल पड़ेगा। तब तक के सत्र शान्ति-कुँज में ही चलते रहेंगे। इनमें साधना प्रशिक्षण और अनुदान की विविध धाराएँ बहेंगी। हर साधक को निर्धारित साधना करनी पड़ेगी। मार्ग-दर्शन प्रशिक्षण की कक्षाएँ चलेंगी। साथ ही अतिरिक्त सहयोग के रूप में आध्यात्मिक अनुदानों का भी समन्वय रहेगा। इस प्रकार ब्रह्म वर्चस् प्रक्रिया को तीन धाराओं के संगम की त्रिवेणी ही कहना चाहिए। यह अपने ढंग का अनोखा अवसर है।

एक समय में 100 साधकों की साधना चलती रह सके ऐसी व्यवस्था बनाई जा रही है। गत साधना स्वर्ण जयन्ती वर्श के साधक एक लाख है। इसके अतिरिक्त भी अन्य अधिकारी सत्पात्र है जिन्हें इस साधना का लाभ उठाने का अवसर दिया जाना है। स्थान और संख्या का सन्तुलन मिलाते हुए यह व्यवस्था बनाई गई है कि व्यस्त व्यक्तियों के लिए दस-दस दिन के और थोड़ी अधिक सुविधा वालों के लिए एक-एक महीने के सत्र चलें। इसके लिए सन् 77 के शेष 6 महीनों का कार्यक्रम अभी घोषित किया जा रहा है। सन् 78 के लिए स्थिति के अनुरूप कार्यक्रम निर्धारित किया जायेगा।

सन् 77 में अप्रैल, मई, जून के लिए पूर्व घोषित कार्यक्रम शान्ति-कुंज में ही चलेंगे। अप्रैल में 1 से 10 , 11 से 20 , 21 से 30 तक के दस-दस दिवसीय सत्र हैं। मई, जून में एक-एक महीने के वानप्रस्थ सत्र हैं। उन्हें भी ब्रह्म वर्चस् साधना युक्त कर दिया गया है। सभी शिक्षार्थियों को सचेत कर दिया गया है कि अपने साथ दर्शनार्थियों , पर्यटकों, सैलानियों, आशीर्वाद-इच्छुकों बाल-बच्चों को लेकर न चलें। इस प्रकार के साधना महत्त्व से अपरिचित लोग यहाँ धर्मशाला की तरह आ ठहरते हैं और वे थोड़े से व्यक्ति ही यहाँ के अनुशासन एवं वातावरण का सर्वनाश कर देते हैं। पिछले दिनों हर सत्र में दो-चार व्यक्ति ऐसी गड़बड़ी उत्पन्न करते रहे हैं। अब की बार अत्यन्त कठोरतापूर्वक इस प्रकार की घुस-पैठ को रोक दिया गया है। स्पष्ट कर दिया गया है कि जो मात्र कठोर साधना की दृष्टि से आना चाहें वे ही पूर्व स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयत्न करें। अन्य लोग अन्यत्र ठहरें और दोपहर बाद जैसा कि सामान्यतः मिलने-जुलने का समय निर्धारित हो, मिलकर चले जाय। धर्मशाला और होटल की सुविधा पाने की दृष्टि से इन सत्रों में घुस-पैठ करने वालों को इस बार निश्चित रूप से रोक दिया जाएगा। भले ही नाराजी या वापिस लौटाने का कटु प्रसंग ही क्यों न आ जाय। वातावरण को विशुद्ध साधनात्मक बनाये रहने की दृष्टि से परिजनों की नाराजगी की जोखिम उठाते हुए भी इस बार यह कठोर व्यवस्था बना दी गई है और भविष्य में भी वह बनी ही रहेगी।

जुलाई 77 में दस-दस दिवसीय सत्र चलेंगे। (1) 1 से 10 तक (2) 11 से 20 तक (3) 21 से 30 तक। अगस्त और सितम्बर में एक-एक महीने के सत्र रहेंगे। अक्टूबर में फिर दस-दस दिन के सत्र रहेंगे। 1 से 10, 11 से 20 , 21 से 30 । नवम्बर और दिसम्बर फिर एक-एक महीने के सत्र है। वे पहली तारीख से लेकर तीस तक चला करेंगे। आगन्तुकों को सत्र आरम्भ होने से एक दिन पूर्व सायंकाल तक शान्तिकुञ्ज आ जाना चाहिए, ताकि रात्रि की गोष्ठी में सारे नियमोपनियम समझ सकें और दूसरे दिन प्रातः चार बजे से ही कार्यक्रम में सम्मिलित रह सकें। कई दिन पहले आ जाना अथवा साधना-क्रम चल पड़ने के बाद पहुँचना अनुपयुक्त हैं। इससे अनुशासन बिगड़ता है और साधना का महत्त्व घटता है। इन प्रतिबन्धों से परिजनों को थोड़ी असुविधा तो रहेगी पर साधना के उपयुक्त वातावरण भी और किसी प्रकार यहाँ बन नहीं सकेगा। व्यक्तिगत मैत्री के आधार पर अव्यवस्था फैलाने की छूट नहीं ही माँगी जानी चाहिए।

ब्रह्म वर्चस् साधना गायत्री पुरश्चरणों के साथ जुड़ी रहेगी। दस-दस दिन वालों को 24 हजार का एक पुरश्चरण करना होगा और एक-एक महीने वालों को 24-24 हजार के तीन अनुष्ठान करने होंगे। सोऽहम् उपासना जप, ध्यान, खेचरी मुद्रा की चतुर्विधि उपासना की जो पद्धति गत वर्श काम में लाई जाती रही है। वह तो यथावत् रहेगी ही। साथ ही त्राटक और प्राणायाम के दो प्रयोग अतिरिक्त रूप से सम्मिलित रहेंगे। पंचकोशों को प्रकाशवान् बनाने के लिए घृत दीप के माध्यम से त्राटक को और कुण्डलिनी जागरण के सन्दर्भ में अनुलोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम की क्रिया कराई जायेगी। एक घण्टे का विशेष ध्यान, विशेष निर्देशनों के साथ-साधक और शिक्षक साथ-साथ सम्पन्न करेंगे। अनुदान का आदान-प्रदान का माध्यम यह विशेष ध्यान होगा।

योगाभ्यास में नाड़ी शोधन प्रक्रिया प्रधान हैं। इसे आत्म-शोधन भी कहा जा सकता है। जीवन में अब तक हुए पाप कर्मों का विवरण बताना और तद्नुरूप प्रायश्चित का उपाय जानना ब्रह्म वर्चस् साधना का अविच्छिन्न अंग हैं। धुलाई के बिना रँगाई कहाँ हो पाती है ? साधना रँगाई है और प्रायश्चित प्रक्रिया धुलाई। यह सब व्यक्तिगत परामर्श के उपरान्त ही निर्धारित होगा। साधनाएँ भी सब की एक जैसी नहीं हो सकती। सभी मरीजों को एक दवा नहीं दी जा सकती उनकी स्थिति के अनुरूप ही साधना प्रक्रिया निर्धारित होती है। साधकों को शान्तिकुञ्ज बुलाने की आवश्यकता का एक कारण यह व्यक्तिगत पर्यवेक्षण भी है। वातावरण एवं संरक्षण की विशेषता वाली बात तो पहले ही कही जा चुकी है।

मन की स्थिरता- साधना का मूल आधार है। मन अन्न से बनता है। अस्तु ब्रह्म वर्चस् साधना काल में साधकों के आहार का विशेष निर्धारण रहेगा। वह उपवास स्तर का होगा। हमें भी जो की रोटी और छाछ पर अपनी लम्बी उपासना अवधि पूरी करनी पड़ी है। ब्रह्म वर्चस् साधकों को भी इस प्रकार की तपश्चर्या के लिए तैयार होकर आना चाहिए। एक दिन दाल-चावल शाक-दूसरे दिन दलिया, दाल-चावल आँवला, शंख-पुष्पी ब्राह्मी, गोरखमुण्डी, तच, शतावरी की चटनी दोनों समय। यही सामान्य आहार रहेगा। प्रातःकाल पंचगव्य। उपरोक्त भोजन बनाने, पकाने का उत्तरदायित्व माता जी निर्वाहेंगी। ताकि आहार की सात्विकता का प्रभाव साधना काल में परिलक्षित होता रहे।

दिनचर्या प्रातः 4 बजे से आरम्भ होकर रात्रि के नौ बजे तक चलेगी। इसी बीच तीन घण्टे का मौन भी रहा करेगा। आश्रम से गंगा तट तक का ही आवागमन रहेगा। ऋषिकेश आदि देखने की-बाज़ार से खरीद फरोख्त की व्यवस्था साधना काल में नहीं बनेगी। इससे आगे या पीछे ही वह सब करना होगा। बाज़ार में कुछ भी चाटते पीते रहने की छूट किसी को भी न मिलेगी। इसलिए चटोरे, अनुशासन हीन व्यक्तियों को या तो नहीं ही आना चाहिए अन्यथा साधना काल में अपने ऊपर अंकुश रखे रहने की बात सोचनी चाहिए। तपश्चर्या का महत्त्व और गौरव जो समझ सके उसमें समुचित श्रद्धा बनाये रह सके उन्हीं के लिए इस साधना की सार्थकता है। अव्यवस्था फैलाने में तो साधक, शिक्षक तब सभी निंदित होते हैं।

जो लोग पिछले पाँच वर्षों में किसी सत्र में सम्मिलित हो चुके हैं । साधनारत रहे । स्वर्ण जयन्ती वर्श में सम्मिलित हुए हैं उन्हें ब्रह्म वर्चस् सत्रों में प्राथमिकता दी जाएगी। यों प्रतिबन्ध किन्हीं भी सत्पात्रों पर नहीं है। हर हालत में -किस सत्र में आना है इसका आवेदन पत्र भेजते हुए पूर्व स्वीकृति के कोई न आवे। आवेदन पत्र में (1) प्रवेशार्थी का पूरा नाम पता (2) आयु (3) जन्मजाति (4) शिक्षा (5) व्यवसाय (6) मिशन से परिचय एवं सम्बन्ध का विवरण (7) अब तक की साधनाओं का परिचय (9) साधना काल में अनुशासन पालन करने का आश्वासन इन सभी बातों का विस्तृत विवरण लिखकर भेजा जाना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118