महाशक्ति की लोकयात्रा

बालक्रीड़ा में झलकती दिव्य भावनाएं

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भगवती की बालक्रीड़ा में उनकी दिव्य भावनाओं की झलक दिखाई देती थी। कई तरह के खेलों में उनका सबसे अधिक प्रिय खेल था, ‘शिव-पूजा’। इस खेल को वह दिनभर कम-से-कम एक बार अवश्य खेला करतीं। कभी-कभी तो उनका यह प्रिय खेल दिन में दो से भी ज्यादा बार दोहरा लिया जाता। खेल की शुरुआत भगवान महादेव के प्रतीक चिह्न बनाने से होती। वह अपनी बहन ओमवती और बालसखी सुखमती के साथ मिट्टी के शिव प्रतीक का निर्माण करती। उसकी विधिवत् स्थापना करने के बाद पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य एवं वेलपत्री से पूजा का क्रम चलता। यह पूजा बड़ी भक्ति और अनुराग से होती। पूजन के अंत में सभी को भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करना होता।

खेल में सहभागिनी अन्य बालिकाओं का जप तो थोड़ी देर में समाप्त हो जाता, लेकिन भाव-समाधि में डूबी भगवती काफी देर तक ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करती रहती। कभी-कभी तो उन्हें यह सब करते हुए घंटों बीत जाते। साथी बालिकाएं थकने और ऊबने लगतीं। यदा-कदा तो उनको इसी तरह अकेला छोड़कर चुपचाप चली जातीं। उस दिन या दूसरे दिन जब दुबारा मिलना होता, तो वे पूछतीं कि तुम्हें शिव-पूजा करते-करते यह अचानक क्या हो जाता है? जप करने के लिए आंखें बंद करके जो बैठती हो, तो बस उठने का नाम ही नहीं लेतीं। अरे भई, पूजा तो हम लोग भी तुम्हारे साथ करती हैं, पर इस तरह होश-हवास नहीं खोतीं। उत्तर में भगवती के बालमुख पर हल्की-सी रहस्यात्मक मुस्कान तैर जाती।

इस हल्की-सी हंसी में जो कुछ छिपा होता, उसे साथ खेलने वाली बालिकाएं कभी न जान पातीं। किसी को भी पता न चलता कि यह पूजा महाशक्ति की अपने आराध्य महाशिव के प्रति आंतरिक अनुराग की अभिव्यक्ति है। इस पूजा में ‘प्रीति पुरातन लखै न कोई’ वाली बात सार्थक होती। जब कभी उनकी बड़ी भाभी उनसे जरूर पूछ लिया करतीं, ‘‘लाली, तू इतनी पूजा क्यों किया करती है? जब देखो, तो भगवान शिव के चित्र या प्रतीक के सामने आंखें बंद करके बैठी रहती है।’’ भाभी के इन सवालों के जवाब में वह हंस देती और कहती, ‘‘अरे मैं कोई पूजा थोड़े ही करती हूं, यह तो बस खेल है। मुझे सब खेलों में यह खेल सबसे ज्यादा पसंद है।’’ उनकी इस बात की किसी के पास कोई काट न होती और खेल का सिलसिला इसी तरह से रोज चलता रहता।

इसी सिलसिले में नयापन जोड़ने के लिए वह अपने पिता जसवंतराव का सहारा लेती। वह उनसे शिव पुराण की कथाओं को सुनाने का आग्रह करती। भगवान शिव के लीलाचरित सुनना उन्हें परमप्रिय था। भगवान महाकाल के दिव्य चरित्र का श्रवण उनके मन-प्राण एवं अंतरात्मा को भारी सुख पहुंचाता था। वह बार-बार इन्हें सुनने का आग्रह-अनुरोध करती। जसवंतराव भी अपनी लाड़ली को बड़े ही रसपूर्ण ढंग से महाशिव की लीलाएं सुनाया करते, लेकिन उन्हें यह अहसास कभी न हो पाता कि लीलामयी उनके सामने स्वयं बालरूप में उपस्थित होकर अपने आराध्य, अपने सर्वस्व का चरित सुन रही हैं। इस आंतरिक भाव सत्य से सभी अनजान थे। प्रत्यक्ष सत्य बस इतना ही था कि श्रोता एवं वक्ता दोनों भगवान की लीलाओं को सुनते और कहते हुए भक्तिरस में डूबे रहते।

इन शिव लीलाओं के कोई-न-कोई अंश अगले दिन की शिव-पूजा में जुड़ जाते। कभी तो इसमें शिवरात्रि का प्रसंग जुड़ता, कभी इसमें शिव-विवाह की कथा जुड़ती। इस तरह खेल में नयापन आता। साथ खेलने वाली बालिकाओं का उत्साह भी बढ़ जाता। सभी को खेल के लिए पूरे जोर-शोर से तैयारी करनी पड़ती। उनकी बालसखी सुखमती तो उनकी सहचरी ही नहीं, अनुचरी भी थी। उसे वह प्यार से सुखमन बुलाया करती थीं। सुखमन वही करती, जो उसकी प्राणप्रिय सखी भगवती को प्रिय लगता। भगवती के सान्निध्य में उसका भी शिव-पूजा पर विश्वास जम गया था। शिव-पूजा के प्रत्येक कार्य में उसे भी रस मिलने लगा था।

बालिका भगवती को तो इस खेल में कई तरह की दिव्य अनुभूतियां भी होने लगी थीं। जिनके अर्थ एवं रहस्य अभी पूरी तरह से प्रकट नहीं हो पाते थे। शिव-पूजन करते हुए जब वह भावमग्न होती, तो उनकी अंतर्चेतना में कई तरह के दृश्य उभरते थे। उन्हें ऐसा लगता जैसे कि भगवान शिव ने एक गौरवर्ण के लंबे-दुबले युवक का रूप ले लिया है। इस युवक की छवि पहले तो थोड़ी अस्पष्ट होती, पर बाद में काफी स्पष्ट हो जाती। यह युवक उन्हें प्रायः एक कोठरी में पूजा वेदी पर प्रज्वलित साधना दीप के सामने ध्यानस्थ नजर आता। उसके मुखमंडल पर उन्हें अपूर्व तेजस्विता दिखाई देती। यह दृश्य उनके अंतर्मन में बार-बार उभरता।

वह बार-बार इस दृश्य को देखकर अचरज में पड़ जाती। वह सोचती कि शिव-पूजा करते हुए उन्हें यह कैसी विचित्र अनुभूति होती है। जब-तब यह भी मन में आता कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भगवान शिव ने स्वयं अवतार ले लिया है। अपनी सृष्टि में युग प्रत्यावर्तन करने, एक नए युग का प्रवर्तन करने के लिए प्रभु स्वयं आ गए हैं। अपने इस विचार के बारे में वह जब-जब सोचती, उन्हें सचाई नजर आती। बार-बार उस महायोगी युवक के रूप में उन्हें भगवान शिव का स्वरूप प्रत्यक्ष होता। मन-ही-मन वह उसे शिव-शिव कहते हुए प्रणाम भी कर लेती। पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हुए जब वह प्रगाढ़ भावदशा में होती, तो उनके मानस-पटल पर यह दृश्य प्रत्यक्ष हो जाता।

अपनी अंतर्चेतना में रोज-रोज उपस्थित होने वाले इस साधनारत युवक का उन्होंने अब नामकरण भी कर दिया। ‘महायोगी शिव’ यही नाम दिया उन्होंने अपनी भाव-समाधि में साक्षात्कार होने वाले सत्य का। हालांकि यह ‘महायोगी शिव’ रोज ही उनकी अंतर्भावनाओं में प्रत्यक्ष होते, परंतु अभी तक वह यह नहीं जान पाई थीं कि ये कौन हैं? कहां हैं और क्या करते हैं? लेकिन जब कभी वह ध्यानरत होतीं अथवा अपनी शिव-पूजा में भावमग्न होतीं, तब उनके हृदय में यह तीव्र स्फुरण होता था कि ये ‘महायोगी शिव’ जो कोई भी हों, पर ये हैं भगवान शिव ही। साथ ही यह भी स्पष्ट होता कि किसी-न-किसी तरह इनसे उनका अपना भविष्य जुड़ा हुआ है। शायद वह इन्हीं के द्वारा किए जाने वाले किसी कार्य में सहयोग करने के लिए आई हैं।

खेल-खेल में उन्होंने जो शिव-पूजा शुरू की थी, वह उन्हें दिव्य भावानुभूतियों में डुबोती जा रही थी। उन्हें अपने जीवन और भविष्य के प्रति जागरूक बना रही थी। उनकी बालक्रीड़ा में दिव्यता के तत्त्व सघन हो गए थे। इसी के साथ उनका क्रीड़ामय बचपन किशोरावस्था की ओर बढ़ने लगा था। योग-साधना के जो तत्त्व खेल-खेल में अंकुरित हुए थे, वह अब पल्लवित होने लगे थे। उनके हृदय में साधनामय जीवन के लिए अभीप्सा बढ़ने लगी थी। अपने आराध्य से मिलन के लिए पुकार तीव्र होने लगी थी। इस पुकार में भक्ति की सघनता, प्रेम की तरलता एवं अनुराग की सजलता सभी कुछ था। बालिका भगवती एक प्रखर योग साधिका के रूप में रूपांतरित होने लगी थी। अपने प्रभु के प्रति भावभरी पुकार में उनकी योग साधना का स्वर संगीत गूंजने लगा था।

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