महाशक्ति की लोकयात्रा

शिष्यों की करुण याचना—क्षमा-प्रार्थना

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हमें क्षमा कर दो मां! बड़ी गहरी आत्मपीड़ा और सघन अंतर्वेदना से घिरे हम आपसे यह याचना कर रहे हैं। आज आप स्थूल रूप से हमारे बीच नहीं हैं, पर आपके साथ बिताए गए हर पल का कोमल अहसास हृदय में जस का तस है। आपकी हर याद की छुअन मन में अगणित अनुभूतियों का रस घोलती है। कभी-कभी तो स्वयं को देखकर स्वयं पर विश्वास ही नहीं होता। भरोसा ही नहीं आता कि क्या ये हाथ वही हैं, जिन्होंने सर्वेश्वरी मां के चरणों में झुका है! जिस पर माता ने अपने कृपालु वरद्हस्त रखे हैं। यह कथा किसी एक की नहीं है, आपके अगणित बच्चों की है, जो अपने अंतर्गगन में उमड़ती-घुमड़ती और मूसलाधार बरसती आपकी यादों की झड़ी में भीग रहे हैं। जिन्हें याद आता है आपसे मिलना, आपसे बातें करना और आपके हाथों से कुछ खाने-पीने की चीजें पाना।

हे माता! आपकी यादों के कई रूप हैं और सभी अनूठे हैं, अनोखे हैं। हममें से कइयों को गुरुदेव विभिन्न कामों के सिलसिले में बुलाते थे। हम सबको अपने ही आलस्य एवं प्रमाद के कारण जब-तब डांट-फटकार भी पड़ती थी। सीढ़ियों से उतरते ही जब हम सब आपके कमरे में प्रवेश करते, तो आप हंसकर हम सभी से कहतीं, लगता है, तुम लोगों को आज कुछ ज्यादा ही डांट पड़ गई। चलो खैर कोई बात नहीं, अभी तो तुम लोग यह थोड़ा खा-पी लो। ऐसे एक नहीं अनेक अवसरों की यादें हमारे मनों में घुली हैं। आपके प्यार-दुलार के अनेकों रूप मन के आंगन में अपनी दिव्य आभा फैला रहे हैं। जहां तक आपकी डांट-फटकार की बात है, तो वह प्रायः होती ही नहीं थी। यदि होती भी, तो बहुत कम अवसरों पर। ऐसे अवसरों पर जितना आप डांटतीं, उससे ज्यादा हम सबकी मान-मनुहार करतीं। हमें यह समझातीं कि आपकी इस डांट में हम सबका कितना भला छुपा है। इतना ही नहीं, डांटने के बाद अवश्य ही अपने सामने बिठाकर कुछ खिलाती-पिलातीं।

हे भावमयी! हम आपके भाव भरे मातृत्व की कैसे? क्या? और कितनी चर्चा करें? इसकी कथा तो असीम-अनंत है। हम जैसे अज्ञानी बालक तो क्या, दिव्य लोकों के देवगण भी इसे पूरी तरह से कहने में अक्षम हैं। इन क्षणों में हम सब तो बस यह महसूस कर रहे हैं कि हमने आपके कोमल हृदय को जाने-अनजाने अनेकों तरह से दुःखी किया है, चोट पहुंचाई है। आप कितना कुछ सहकर हमारी जिदों व हठों को पूरा करती रहीं और हम इसे अपना सौभाग्य मानकर इतराते रहे। हमने उस समय यह सोचने की तनिक-सी भी जहमत नहीं उठाई कि इससे आपको कितना कष्ट होता होगा। सच में मां! आज हम अपने किए पर शर्मिंदा हैं। हमको उन पलों की अच्छी तरह से याद है, जब हमने अपने अज्ञानी बाल स्वभाव के कारण आप से लड़-झगड़ लिया। पर आश्चर्य! बदले में आपने हमें डांटने-डपटने की बजाय भरपूर प्यार दिया। झगड़ा भी हमीं ने किया और रूठे भी हमीं, पर आप सदा ही हम पर सदय और कृपालु बनी रहीं। कभी भी भूल से भी हममें से किसी पर कभी भी कुपित नहीं हुईं, क्योंकि इस सत्य को आप ही जानती थीं कि आपके कुपित होने पर तीनों लोकों में कोई भी हमारा शरणदाता न होगा। कहीं भी हमको ठिकाना न मिलेगा।

कर्म से, वाणी से और चिंतन से हम सबके अपराध कई हैं और इनमें से हर एक अक्षम्य हैं। हमें यह अच्छी तरह से मालूम है कि क्रूर कर्म में प्रवीण कालदेवता, निष्ठुरता में निष्णात विधि का विधान हमारे किसी भी अपराध के थोड़े से अंश को भी क्षमा न करेगा, परंतु हमारी इनसे कोई आशा भी नहीं है। हम सबकी प्रत्येक आशा का केंद्रबिंदु तो आप हैं। अब तक हमने अपनी हर चाहत को पूरा करने के लिए सिर्फ-सिर्फ मां! मां!! कहना सीखा है। आज फिर से वही मां! मां!! कहते हुए आपसे अपने किए हुए कृत्यों के लिए, अपने समस्त अपराधों के लिए क्षमा की याचना कर रहे हैं। अपने द्वार पर आए सभी याचकों की झोली भरने वाली माता, आज हम बच्चों की झोली अपनी क्षमा से भर दो। आपकी क्षमाशक्ति ही हम सबकी जीवन नौका को पार लगा सकती है। हम सबको भवसागर से पार उतार सकती है।

हे माता, यदि हममें से किसी के द्वारा कोई ऐसा अपराध बन पड़ा है, जो किसी भी तरह से क्षमा करने लायक नहीं है, तो उसके लिए आप स्वयं ही दंड विधान तय करना। हमको काल के क्रूर हाथों में अथवा विधाता के निष्ठुर विधान-पाश के हवाले मत करना। हमें कुछ भी सजा देना मां, पर अपने से दूर मत करना। हम आपके चरणों के सान्निध्य से कभी भी किसी भी हाल में दूर नहीं होना चाहते। आपकी कृपा छांव में हम सारे कष्ट प्रसन्नतापूर्वक सह लेंगे। मुंह से कभी कोई उफ तक न निकलेगी। होठों पर कभी कोई शिकायत न आएगी। आपके बिना, आपसे थोड़ा भी दूर होकर हमें इस समस्त विश्व–ब्रह्मांड का कोई भी बड़े से बड़ा श्रेय-सौभाग्य नहीं चाहिए। इन तुच्छ सांसारिक धन-वैभव, यश-प्रतिष्ठा, पद-सम्मान की बात कौन कहे, माता हमें आपसे दूर होकर देवराज इंद्र और सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा का पद भी नहीं चाहिए। दंड हो या पुरस्कार, हमारा समस्त संसार आपके श्रीचरणों में सिमटा हुआ है। हमारे मन व बुद्धि आपके सिवा अन्य कुछ भी सोचने-समझने और जानने में असमर्थ है।

पहले जब आप स्थूल देह में थीं, तब हम बच्चे रूठा करते थे और आप हमें मनाया करती थीं। आज आप जब सूक्ष्म हैं, तो हमारा शंकालु मन यह सोचने लगता है कि कहीं हमारी मां हमसे रूठ तो नहीं गईं। हालांकि हम यह जानते हैं कि भौतिक जीवन की अनेकों रस्सियों में कसा-बंधा यह मन आपकी सूक्ष्म चेतना का स्पर्श करने में असमर्थ है, फिर भी अपने इर्द-गिर्द आपकी ढूंढ़-खोज में हमेशा जुटा रहता है। आपके जीवनकाल में इसे आपको रोज-रोज देखते रहने की आदत जो पड़ गई है। इसको अभी तक यह ठीक से समझ में नहीं आ पाया कि अपने बच्चों पर प्राण निछावर करने वाली मां अचानक सूक्ष्म में क्यों जा बैठी? कहीं ऐसा उन्होंने हम सबसे रूठकर तो नहीं किया, पर हृदय की उफनती भावनाओं में विश्वास के यही स्वर उमड़ते हैं कि वात्सल्यमयी माता कभी भी अपनी संतानों से रूठ नहीं सकती। वह जरूर अपने किसी विशेष प्रयोजनवश हमारी स्थूल आंखों से ओझल हुई है।

इस विश्वास को तब बल मिलता है, जब स्वप्नों में आपकी दिव्य झलक मिलती है। वही हंसती-मुस्कराती, प्रसन्नता की प्रदीप्ति से ओत-प्रोत दिव्य भावमूर्ति। वही चिर-परिचित वात्सल्य का भावभरा अंदाज। वही स्नेहमय आश्वासन, वही प्रेम छलकाते शब्द। जगने पर लगता है कि अरे मां तो अपने एकदम आस-पास है। बस वह तो केवल चर्मचक्षुओं से ओझल हुई है। उसकी सूक्ष्म चेतना तो विराट-विस्तार लिए आंचल की तरह हम सब पर एक साथ छाया कर रही है। संकट में, आपत्ति में, मुसीबत-परेशानी में जब कभी प्राण पुकारते हैं, सर्वशक्तिमयी अपनी समस्त शक्तियों के साथ आकर उपस्थित हो जाती है। माता के स्मरण मात्र से क्रूर काल के बढ़ते कदम भी पीछे वापस होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। सच है मां महाकाली के शिशुओं के सामने बेचारा काल करेगा भी तो क्या? उसके लिए तो जगदंबा की एक हुंकार ही पर्याप्त है। इस सत्य का अनुभव हम बच्चों ने अपने इस छोटे से जीवन में अनेकों बार किया है।

सारी कामनाओं को पूरा करने वाली हे कामेश्वरी मां! आपने हम बच्चों की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति की है। हम में से जिसने जो चाहा, उसे आपने वही दिया है। आपके वरदानों को नित्यप्रति अपने जीवन में अनुभव करने वाले हम सभी जनों को यह अनुभूतिजन्य विश्वास हो चला है कि जैसे हमारे लिए अब कुछ भी पाना असंभव नहीं रहा। हम जो भी इच्छा करेंगे, हमारी मां हमें वही दे देगी। अपने इसी विश्वास के बल पर हे माता! हम आपसे सिर्फ एक अंतिम याचना कर रहे हैं कि हमें अब किसी और की नहीं, बस आपकी और सिर्फ आपकी चाहत है। हम केवल और केवल आपको चाहते हैं। आपके सिवा अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे बिलखते हुए हृदय और आंसू भरी आंखों पर दृष्टि डालकर अब हमें अपनी गोद में उठा लो। संसार के भीषण अरण्य में भटकते हुए हे माता! अब हमारा तन-मन पूरी तरह से तार-तार हो गया है। वेदना से जीवन का अणु-अणु व्यथित है। हे वात्सल्यमयी! ऐसे में सिर्फ आपकी गोद ही हमें त्राण दे सकती है। हे भावमयी भगवती! हम अतीत और आगत के अपने समस्त अपराधों के लिए आपसे क्षमा-प्रार्थना करते हुए बस अपने लिए आपकी गोद की याचना करते हैं। साथ ही जीवन की शेष सांसों को पूरी तरह आप पर निछावर करने का संकल्प लेते हैं।

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