महाशक्ति की लोकयात्रा

महामाया समेटने लगीं अपनी योगमाया

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संतानों की पीड़ा के लगातार विषपान से वंदनीया माताजी का स्वास्थ्य जर्जर होता गया। उनकी देह निरंतर व्याधिग्रस्त होगी गई। यहां तक कि 16 से 20 अप्रैल 1994 को चित्रकूट में होने वाले अश्वमेध आयोजन में वह जाने की स्थिति में नहीं थीं। तब तक स्वास्थ्य काफी बिगड़ चुका था। काफी ऊहापोह था कि जाएं अथवा न जाएं। उनकी तबीयत को देखते हुए निकटस्थ जन भी यही सुझा रहे थे कि माताजी ऐसे में आपको पूरी तरह से विश्राम करना चाहिए। काफी देर वह सबकी बातें सुनती रहीं, फिर बोलीं, तबियत तो खैर जैसी है, वैसी है, पर इस बार मैं जाऊंगी। इसी बहाने फिर से चित्रकूट देखना हो जाएगा। इसके बाद कौन जाने, मेरा कहीं जाना हो या न हो। उनकी इन बातों के बाद किसी की कुछ ज्यादा कहने की हिम्मत नहीं पड़ी यात्रा की तैयारियां होने लगीं। निर्धारित समय पर उन्होंने जॉली ग्रांट हवाई अड्डे से म.प्र. सरकार द्वारा भेजे गए विमान से प्रस्थान किया।

चित्रकूट पहुंचकर वह जैसे देह के सभी कष्टों से अनजान हो गईं। कुछ यों जैसे कि उनकी देह उनकी न होकर किसी और की हो। इस यात्रा में उनके साथ शैल  दीदी, डॉ. प्रणव पंड्या, इनके सुपुत्र चिन्मय और माताजी की मानस पुत्री दुर्गा दीदी थीं। इन सभी को वंदनीया माताजी की सभी शारीरिक पीड़ाओं का ज्ञान था। इन सबमें से किसी को उस समय अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि कोई इस तरह अपनी दैहिक पीड़ाओं से मुंह मोड़ सकता है। स्थितप्रज्ञ की भावदशा की बातें गीता में बहुतों ने पढ़ी-सुनी होंगी, पर उस समय माताजी को देखकर सभी को इस सत्य की अनुभूति हो रही थी। इसी देहातीत दशा में उन्होंने चित्रकूट अश्वमेध के सभी कार्यक्रम पूरे किए। हजारों श्रद्धालुओं को दीक्षा देकर उनकी मुक्ति का मार्ग खोला। असंख्यों पर अपने आशीषों की वर्षा की।

उन्हें इस तरह कृपा-वर्षा करते हुए देखकर लग रहा था कि समस्त प्राणियों के भवरोग का हरण करने वाली कृपालु जननी ने स्वयं ही देह को रोगमुक्त कर लिया है। सबके आग्रह करने पर उन्होंने उत्साहपूर्वक तीर्थभूमि चित्रकूट के विभिन्न स्थलों पर जाने का कार्यक्रम बनाया। कामदगिरि, स्फटिकशिला आदि जगहों पर वह कुछ पलों के लिए भावसमाधि में डूबी रहीं। गुप्त गोदावरी के बाहर जब उनकी कार रुकी, तो वहीं कहीं पास से दस-बारह साल की एक छोटी-सी लड़की भागी-भागी आई। उसके हाथों में थोड़े से जंगली फल और कुछ खुले हुए पैसे थे। जब माताजी कार से उतरीं, तो ठीक उनके सामने खड़ी हो गई। साथ के लोग कुछ कह पाते, इससे पहले वह कहने लगी, आप शांतिकुंज वाली माताजी हो न। मैंने काफी दिनों से सुन रखा है कि शांतिकुंज हरिद्वार से माताजी आने वाली हैं। बालिका की इन भोली बातों के उत्तर में माताजी बोलीं, हां बेटी! मैं वही हूं।

माताजी के इस कथन पर वह बालिका पुलकित हो उठी और कहने लगी, आपको मालूम है मैंने दो दिनों पहले एक सपना देखा था कि सीता मैया फिर से चित्रकूट आई हैं। जगने पर मैंने सोचा कि यदि शांतिकुंज वाली माताजी हमारी सीता मैया हैं, तो वे जरूर यहां गुप्त गोदावरी आएंगी और देखो आप आ गईं। बालिका की इस बाल-श्रद्धा पर माताजी भाव विगलित हो गईं। वह छोटी-सी बच्ची कहे जा रही थी, मैया, मैं आपकी भिखारिन छोकरी हूं। आज मुझे भीख में बस इतने पैसे मिले हैं। ये जंगली फल मैंने आपके लिए इकट्ठे किए थे, इन सबको मैं आपको देने आई हूं। उसकी यह भेंट उन्होंने बड़े ही भाव भरे मन से स्वीकार की। वह कुछ बोलीं तो नहीं, पर उनकी मुख मुद्रा से लगा, जैसे वे कह रही हों कि बेटी मैं तेरे लिए ही यहां गुप्त गोदावरी आई हूं। उस बालिका की यह प्यार भरी भेंट स्वीकार करने के साथ उन्होंने उसके सिर पर अपना हाथ फेरा और वह चली गई। माताजी अपने परिकर के साथ गुप्त गोदावरी की गुफा में गईं। इसी के साथ उनका यह भ्रमण समाप्त हुआ। भव्य दीपयज्ञ के बाद में आयोजन स्थल से विदा लेकर वह शांतिकुंज आ गईं।

शांतिकुंज आने पर उनकी बीमारी फिर से यथावत् हो गई। निकटस्थजन डॉ. प्रणव पंड्या के निर्देशन में उनकी सेवा में जुट गए। विशेषज्ञ चिकित्सकों की भी सहायता ली गई। सभी के आग्रह-अनुरोध पर उन्होंने चिकित्सालय में भी भरती होना स्वीकार किया। इस क्रम में पहले वह कुछ दिन आगरा में रहीं, बाद में कुछ दिनों तक दिल्ली में भरती रहीं। चिकित्सक जो कर सकते थे, कर रहे थे। चिकित्सा विज्ञान में जो आधुनिकतम तकनीकें थीं, उन्हें प्रयोग में लाया जा रहा था, पर उनकी बीमारी भी अनोखी थी। एक के बाद दूसरी नई बीमारी की परत खुल जाती थी। वह सभी को प्रयत्न करते, परेशान होते हुए देख रही थीं। शैल दीदी के साथ उनके सुपुत्र मृत्युंजय शर्मा भी प्राण-पण से अपनी जन्मदात्री मां की सेवा में जुटे थे। सभी के सारे प्रयत्न निष्फल जा रहे थे। काफी दिन बीत चुकने पर उन्होंने एक दिन कहा, देखो तुम लोग बहुत परेशान हो चुके, अब मुझे शांतिकुंज ले चलो। जो सेवा करनी है, वहीं चलकर करते रहना।

उन्हें देखकर सभी यह अनुभव कर रहे थे कि महामाया अपनी योगमाया समेट रही हैं। उनका आदेश मानकर सभी लोग उन्हें लेकर शांतिकुंज आ गए। वह प्रसन्न भाव से असह्य कष्ट सहे जा रही थीं। ‘यस्मिन्सिथतो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ का गीता वाक्य उन दिनों उनके जीवन में पूरी तरह से चरितार्थ हो रहा था। आत्मचेतना में स्थित होने पर देह एक छिलके से ज्यादा कुछ नहीं रह जाती। इस बीच उन्हें एक-दो ऑपरेशनों से भी गुजरना पड़ा था, उनके घाव अभी भरे नहीं थे, पर वह जैसे इन सब से परे थीं। इच्छामयी ने स्वयं की इच्छा से अपनी असंख्य संतानों का कष्ट अपने ऊपर ले लिया था। वह बच्चों की पीड़ा को अपने ऊपर लेकर प्रसन्न थीं। देह के असह्य कष्ट उनके अंतःकरण को किसी भी तरह से छू नहीं पा रहे थे।

बीमारी के इन दिनों में सभी अपने-अपने ढंग से सेवा करने में जुटे थे। रिश्ते–नातेदारों का आवागमन जारी था। शांतिकुंज, गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्त्ता, आदरणीय पं. लीलापत जी आदि गायत्री परिवार के परिजन आदिमाता से अपनी मां के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना कर रहे थे। ये बड़े ही विशिष्ट क्षण थे। इन क्षणों में माताजी के दौहित्र चिन्मय एवं उनकी छोटी सुपौत्री मृणालिनी को उनके विशेष सान्निध्य का मौका मिला। छोटी-मोटी सभी सेवाओं को करते हुए ये बच्चे देर रात तक उनके पास बैठे रहते थे। कभी-कभी उनसे पूछते भी, अम्मा जी, आप कब ठीक होंगी। उत्तर में वह हंस देतीं और अब क्या ठीक होना, अब तो चला-चली की वेला है। इस तरह की बातें सुनकर ये लोग उदास हो जाते, उन्हें समझ में नहीं आता कि वे क्या कहें और क्या करें? जिन्होंने अगणित लोगों को अपनी योगशक्ति से असाध्य और जटिल रोगों से मुक्त किया था, आज वही रोग शैय्या पर लेटी हुई थीं।

बातों के क्रम में एक रात्रि को चिन्मय ने माताजी से पूछा, अम्मा जी, आपने तो बहुत सारे लोगों के कष्टों को अपने ऊपर लिया है, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई आपका कष्ट अपने ऊपर ले ले। उत्तर में वह इस तरह मुस्कराने लगीं। थोड़ी देर रुककर वह धीरे से बोलीं, अपनी संतानों के कष्ट मां अपने ऊपर लेती है। माता के कष्ट को भला बच्चे क्यों अपने ऊपर लेने लगें और कोई ऐसा करना भी चाहे, तो क्या मैं उसे करने दूंगी। मेरे जीवित रहते मेरी संतानें कष्ट उठाएं, यह किसी भी तरह संभव नहीं हो सकता। असह्य एवं असीमित पीड़ा के इन क्षणों में उनका वात्सल्य पहले की तुलना में और भी बढ़ गया था। जो पास में थे, उन्हें तो वह दुलार करती ही थीं। जो पास में नहीं थे, उनके बारे में भी वह पूछताछ करती रहती थीं। उनका हाल-समाचार लेती रहती थीं। वात्सल्य का वितरण करती भावमयी मां ने अपनी इस बीमारी को एक विशिष्ट योग-साधना बना लिया था। इस साधना को करते हुए उनके प्राण अपने आराध्य में महामिलन के लिए महाप्रयाण करने की तैयारी में लगे थे।

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