महाशक्ति की लोकयात्रा

युगशक्ति की प्राणप्रतिष्ठा गायत्री तपोभूमि में

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गायत्री तपोभूमि निर्माण की मूल प्रेरणा माताजी के अंतःकरण में अंकुरित हुई। उन्होंने एक दिन प्रातः ध्यान की भावदशा में देखा कि जगन्माता युगशक्ति गायत्री के रूप में एक मंदिर में विद्यमान हैं। असंख्य जन माता का पूजन-अर्चन कर रहे हैं और माता से प्रज्ञा, मेधा व सद्बुद्धि के साथ अपनी कष्ट-कठिनाइयों से मुक्ति का वरदान पा रहे हैं। जगदंबा के इस मंदिर की एक और अन्य खास बात माताजी ने अपने ध्यान में अनुभव की। उन्होंने देखा कि यह मंदिर सामान्य मंदिरों की तरह केवल पूजा-अर्चा का स्थान भर नहीं है। यहां से लोकहित की अनेकों गतिविधियों का संचालन हो रहा है। सद्ज्ञान की अगणित धाराएं यहां से ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ का संदेश प्रसारित करती हुई भुवन-व्याप्त हो रही हैं। यही से भगवान महाकाल अपनी युग-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का सूत्रपात कर रहे हैं। इस अद्भुत अनुभूति में डूबी हुई माताजी उस दिन साधना से थोड़ी देर में उठीं।

साधना से उठने पर अपने नित्य–नियम के अनुरूप उन्होंने घर और अखण्ड ज्योति कार्यालय के जरूरी काम निबटाए। इसके बार परिजनों के आए हुए पत्रों को पढ़ने और उनके उत्तर लिखने का क्रम आया। यह काम परमपूज्य गुरुदेव एवं माताजी मिलकर किया करते थे। इसी बीच कुछ बातें भी हो जातीं। उस दिन पत्रों को खोलते हुए माताजी ने अपनी अंतरानुभूति भी गुरुदेव के सामने खोली। माताजी की सारी बातें सुन लेने के बाद परमपूज्य गुरुदेव ने कहा, आज हमें भी साधना के क्षणों में अपने मार्गदर्शक का कुछ ऐसा ही संदेश मिला है। इस संदेश के अनुरूप हमें ऐसा केंद्र स्थापित करना है, जहां देश के विभिन्न भागों से अनेकों साधक आकर सच्ची अध्यात्म साधना कर सकें। उन्हें आध्यात्मिक तत्त्वदर्शन की वास्तविक अनुभूति हो सके। साथ ही उस महत् कार्य का प्रारंभ हो सके, जिसके लिए हम लोगों को भगवान ने धरती पर भेजा है।

माताजी और गुरुदेव की बातों का सारतत्त्व एक था। उन्होंने अपनी बातों के अंत में एक-दूसरे की ओर देखा और काम में लग गए, लेकिन उस दिन से गायत्री तपोभूमि के निर्माण का संकल्प सक्रिय हो गया। इसके लिए उपयुक्त जमीन देखी जाने लगी। घर में उस समय केवल 6 हजार रुपये की पूंजी थी, जिसके आधार पर भूमि खरीदने की बात सोची गई। उस समय मथुरा में किशोरी रमण कॉलेज के साथ जीर्ण अवस्था में एक गायत्री मंदिर था। टीले पर स्थित होने के कारण इसे गायत्री टीला भी कहते थे। इसे लेने की बात जानकारों ने सुझाई, पर बात कुछ जमी नहीं। एक तो वह टीला था, उस पर नीचे से कटाव भी बहुत पड़ रहा था। टीले पर ऊपर जाकर जमीन भी बहुत थोड़ी थी। इन्हें सब कारणों से इस जमीन को छोड़ना पड़ा।

जमीन खरीदने के लिए मंडी रामदास में भी कई जगह प्रयत्न किए गए, पर कहीं ढंग से बात बनी नहीं। महीनों किए गए इन प्रयत्नों के बेकार जाने पर माताजी ने साधना के क्षणों में उपयुक्त भूमि को तलाशने के प्रयत्न शुरू किए। एक-दो दिन के प्रयास में ही उन्हें एक भूमि पर प्रकाश पुंज-सा उठता दिखा। इसके आध्यात्मिक स्पंदनों को उन्होंने अपनी अंतर्चेतना में अनुभव किया। एक दिन गुरुदेव के साथ घूमने जाते समय उन्होंने यह भूमि प्रत्यक्ष में देखी। यह स्थान मथुरा से लगभग एक किलोमीटर दूर मथुरा-वृंदावन मार्ग पर था। उस समय यहां एक कुआं, एक हॉल और एक बरामदा बना था। यह जगह सड़क के बिल्कुल पास थी। उन क्षणों में गुरुदेव से इसकी चर्चा करने पर वह कहीं गहरे में लीन हो गए। कुछ पलों के बाद अपनी इस तल्लीनता से उबरने पर उन्होंने कहा, ‘‘आप एकदम ठीक कहती हैं। यह जगह पहले कभी महर्षि दुर्वासा की तपोभूमि रही है। अभी भी यहां उनकी तपस्या के प्रभाव शेष हैं। यह जमीन सब तरह से अपने कार्य के लिए उपयुक्त रहेगी।’’ कभी बाल्यकाल में वे यहां आए भी थे।

इसको खरीदने के लिए बातचीत चलाई गई। जिसकी जमीन थी, वह व्यक्ति भी आसानी से तैयार हो गया। थोड़े ही दिनों में सारी सरकारी औपचारिकताएं पूरी करते हुए जमीन की रजिस्ट्री हो गई। इस तरह भूमि का मसला हल हो गया, परंतु इसी के साथ एक नई समस्या खड़ी हो गई। जमीन खरीदने के बाद अब पास में बिल्कुल भी पैसे न बचे थे और उस पर कुछ बनवाकर उसे उपयोग में लाने के लिए पैसों की सख्त जरूरत थी। किसी के सामने याचना करना, अपनी आवश्यकताओं को जग-जाहिर करना, तपोमूर्ति गुरुदेव के तप के नियमों के विरुद्ध था। यद्यपि उस समय भी उनको जानने-पहचानने वाले, उनके प्रति आस्था, निष्ठा एवं भक्ति रखने वाले कम नहीं थे। बस उनके एक इशारे भर की देर थी और कदमों में धन की ढेरी लग जाती, पर यह बात उनके तपोनिष्ठ जीवन की मर्यादा के विरुद्ध थी। हालांकि धन की जरूरत तो थी ही।

इस जरूरत को माताजी भी अनुभव कर रही थीं। उन्होंने कुछ सोचा और एक पल की देर लगाए बिना अपने सारे जेवर और पास का रुपया गुरुदेव के चरणों में रख दिया। बिना कहे, बिना कोई हल्का-सा भी संकेत किए, बिना तनिक-सा भी जताए माताजी ने मौन भाव से अपना सब कुछ दे डाला। गुरुदेव ने उन्हें एक बार हल्के से टोका भी, आप ऐसा क्यों करती हैं? कहीं-न-कहीं से धन की कोई व्यवस्था हो ही जाएगी। गुरुदेव की इस बात पर माताजी कुछ बोली नहीं, बस उनकी आंखें भर आईं। उन्हें इस तरह देखकर गुरुदेव भी कुछ बोल न सके। बस चुपचाप उनकी निधि स्वीकार कर ली। गायत्री तपोभूमि के निर्माण एवं गायत्री परिवार के संगठन के लिए उनका यह अपूर्व अनुदान था।

सामान्यतया नारियों का अपने आभूषणों के प्रति अतिरिक्त मोह देखा जाता है। आयु के किसी भी मोड़ पर उनका यह मोह प्रायः कम होने के बजाय बढ़ता ही है। पहले अपने लिए, फिर अपने लिए नहीं तो अपनी किसी बेटी या बहू के लिए वे आभूषणों को बनवाती, गढ़वाती रहती हैं। यह सिलसिला कहीं भी, किसी भी समय थमता नहीं, परंतु माताजी ने नारी प्रकृति की इस सामान्य कमजोरी के उलटे यह अद्भुत कार्य कर दिखाया, वह भी बड़ी ही सहजता से। वे ऐसा इसलिए कर सकीं, क्योंकि उन्होंने इस सत्य को गहराई से जान लिया था कि वास्तविक शृंगार शरीर का नहीं, व्यक्तित्व का होता है और व्यक्तित्व का शृंगार सुवर्ण के रत्नजटित आभूषण नहीं, तप और विद्या है। इन्हीं दोनों के सतत अर्जन से व्यक्तित्व अलंकृत होता है और यह अलंकरण भी ऐसा होता है कि जिसे देखकर भूतल के सामान्य नर-नारी ही नहीं, ऊर्ध्वलोकों के देव-देवी, ऋषि-महर्षि, सिद्धजन भी चमत्कृत रह जाते हैं। इस सत्य को पहचानने वाली माताजी ने उस दिन केवल अपने आभूषण ही नहीं दिए, बल्कि बहुमूल्य वस्त्रों का भी परित्याग कर दिया और आंतरिक ही नहीं, बाह्य तपस्या के भी सभी आयामों के परिपालन के लिए संकल्पित हो गईं।

उन क्षणों में ऐसा लगा, जैसे माता सीता ने वनवासी प्रभु राम के साथ चलने के लिए तपस्विनी वेश धारण कर लिया हो। जिन आंखों ने यह दृश्य निहारा, वे धन्य हो गईं और जो अपने भाव जगत् में अभी इन क्षणों में इस दिव्य दृश्य का साक्षात् कर रहे हैं, उन पर भी माता भगवती और प्रभु श्रीराम की अद्भुत कृपा है। तपोनिरत युगल का संकल्प मूर्त होने लगा। गायत्री तपोभूमि अपना आकार पाने लगी। इसके ऊर्जाकेंद्र के रूप में युगशक्ति माता गायत्री का ठीक वैसा ही मंदिर बना, जैसा कि माताजी ने अपनी ध्यानस्थ स्थिति में अनुभव किया था। युगशक्ति की प्राण प्रतिष्ठा से पूर्व माताजी अपने आराध्य के साथ विशेष साधना में संलग्न रहीं। इस शुभ घड़ी में 2400 तीर्थों की रज एवं 2400 पवित्र स्थानों का जल यहां लाया गया। इसके अतिरिक्त और भी कुछ ऐसी दिव्य क्रियाएं गोपनीय स्तर पर संपन्न की गईं, ताकि माता की चेतना इस महामंदिर में सद्य जाग्रत रहे और इस स्थान का अमोघ प्रभाव सभी को दीर्घकाल तक अनुभव होता रहे।

मंदिर निर्माण के साथ अन्य गतिविधियों के संचालन की व्यवस्था यहां की गई। पवित्र यज्ञशाला में दिव्य अग्नि स्थापित हुई। साधना सत्रों के साथ अनेकों तरह की योजनाएं यहां से संचालित होने लगीं। दूर-दूर से लोगों के आने का सिलसिला चल पड़ा। जो भी यहां आते थे, उन सबका एक साथ सामूहिक परिचय एक ही था, वे सभी माताजी के बच्चे थे। उन सबके मन अपनी मां के लिए हुलसते थे। उन सभी के प्राणों में अपनी मां के लिए पुकार थी। मां के प्यार का, दुलार का, उनके वात्सल्य का चुंबक उन्हें यहां खींच लाता था। माता भी अपने बच्चों को संस्कार देने के लिए प्रयत्नशील थीं। उनका सतत प्रयास यही था कि उनके बच्चों की चेतना उत्तरोत्तर निर्मल, पवित्र एवं परिष्कृत हो। इसके लिए जो भी आवश्यक होता, वह निरंतर किया करतीं।

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