महाशक्ति की लोकयात्रा

बाल्यकाल के लीला प्रसंग

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स्वजनों के साथ बीत रहे बचपन के इन पलों में बड़ी ही मिठास थी। यदा-कदा इनके अनूठेपन के झरोखे से अलौकिकता झांक उठती। भगवती अपनी मां के साथ सभी भाई-बहनों की लाड़ली थी। रंग-रूप सामान्य होते हुए भी उसमें एक दैवी मोहिनी थी। अड़ोस-पड़ोस के लोग, रिश्ते-नातेदार, सगे-संबंधी सभी इन दैवी सम्मोहन में अनायास बंध जाते थे। वह सभी की प्रिय ‘लाली’ थी। ब्रज क्षेत्र में यह शब्द बहुत प्यारी, लाड़ली, छोटी बालिकाओं के लिए प्रयुक्त होता है। कथा-किंबदंती तो यह भी है कि इस शब्द को सबसे पहले बरसाने में राधा रानी को पुकारने के लिए प्रयोग किया गया। वृषभानुनंदिनी अपने माता-पिता एवं भाई श्रीदामा के साथ सारे बरसाने की ‘लाली’ थी। परम पुरुष की आह्लादिनी शक्ति को सभी प्यार से ‘लाली’ कहकर बुलाते थे।

भगवती को भी यही संबोधन मिला था। जन्मदात्री माता रामप्यारी, पिता जसवंतराव, दोनों भाई दीनदयाल व सुनहरीलाल एवं बड़ी बहन ओमवती सभी उन्हें ‘लाली’ ही कहते थे। पड़ोसियों की जीभ पर भी यही संबोधन लिख गया था। लाली सभी की अपनी थी। सभी का प्यार उस पर बरबस बरसता था। बचपन में जैसे अन्य बच्चे शरारती, चंचल और नटखट होते हैं, वैसा कुछ भी उनमें नहीं था। भोलापन और मासूमियत लिए बड़ी ही गजब की शांत प्रवृत्ति थी। नन्हें कदमों से जब उन्होंने चलना सीखा और वाणी से बोल मुखरित हुए, तो उन्होंने अपनी माता को अम्मा और पिता को दादा कहना सीख लिया। नन्हे कदमों से धीमे-धीमे चलती हुई अपनी इस प्यारी ‘लाली’ को जसवंतराव प्रेम विभोर हो गोद में उठा लेते थे। अपनी लाड़ली की हर इच्छा को वह अपना सौभाग्य मानकर पूरा करते। वह उन्हें अपनी दिव्य अनुभूतियों का साकार रूप लगती।

काल के रथ पर सवार भगवती का बचपन अपने चतुर्दिक वातावरण में जीवन के मधुर संगीत की सृष्टि करता हुआ आगे बढ़ रहा था। तभी इस मधुरता में अनायास विषाद का रव गूंज उठा। जन्मदात्री माता अपनी प्यारी ‘लाली’ को केवल चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर परलोक जा बसीं। बीमारी इस दैव की क्रूरता का माध्यम बनी। भगवती के बाल नेत्रों में आंसू छलक उठे। नन्हे से दिल में भावनाओं का ज्वार तड़प उठा। मातृ विछोह के पल उनके लिए बड़े ही दारुण थे। चार वर्ष की छोटी-सी बच्ची के लिए तो मां ही सब कुछ होती है। वही मां न रहे तो.......? लेकिन सच-तो-सच था। अपनी माता की याद में उन दिनों वह काफी रोई, पर इस करुण दशा में भी उनकी आंतरिक चेतना जाग्रत, सक्रिय और सचेतन बनी रही। बड़ी बहन एवं भाइयों को इस पर बड़ा आश्चर्य होता था कि छोटी-सी ‘लाली’ कभी-कभी उन्हें ही समझाने लगती।

कभी-कभी वह गुमसुम-सी चुपचाप पालथी मारकर बैठ जाती। उन्हें इस भावमग्न दशा में बैठे देखकर घर के सदस्यों को अचरज होता। वे सब उनकी अंतर्दशा से अपरिचित थे। उनमें से कोई सोच नहीं पाता था कि यह छोटी-सी बच्ची आखिर इस तरह क्यों एकांत में शांत होकर बैठी है। एक दिन बड़े भाई दीनदयाल ने उन्हें इस तरह बैठे देखकर पूछ लिया, ‘‘लाली, तू इस तरह चुपचाप शांत क्यों बैठी है, बच्चों के साथ खेलती-कूदती क्यों नहीं? तुझे देखकर तो ऐसा लगता है कि तेरे सिर पर सारी दुनिया का भार है?’’ प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बड़े ही शांत नेत्रों से बड़े भाई की ओर देखा, फिर बड़े ही गंभीर स्वरों में बोलीं, ‘‘हां, सो तो है। सारी दुनिया का भार मुझ पर नहीं, तो और किस पर होगा!’’ उनकी ये बातें दीनदयाल को कुछ भी समझ में न आईं, पर उनके शब्दों में यह सत्य तो निहित ही था कि वह बचपन से ही अपने भावी दायित्वों के प्रति जागरूक थीं।

इन्हीं वर्षों में दीनदयाल की शादी हो चुकी थी। उनकी पत्नी यानि कि बालिका भगवती की बड़ी भाभी बड़े ही स्नेहशील स्वभाव वाली प्रेमपूर्ण हृदय की महिला थी। उन्होंने अपनी इस ननद की बड़े ही यत्न से सार-संभाल की। बार-बार उनका मन कहता था कि उनकी यह छोटी-सी ननद कोई देवी है। उसकी पारदर्शी आंखों में उन्हें पारलौकिक व अलौकिक प्रभा छलकती हुई लगती। जब-तब उनकी यह ननद कुछ ऐसी बातें कह देती थी, जिससे उनका यह विश्वास और भी ज्यादा मजबूत हो जाता। ऐसे ही एक बार के घटनाक्रम में उनके पिता जी उन्हें लिवाने के लिए आने वाले थे। पंद्रह-बीस दिन पहले इस आशय की चिट्ठी भी आई थी, जिसमें उनके आने की सुनिश्चित तिथि लिखी थी, पर उस तिथि को वह नहीं आ सके। कोई खबर भी नहीं पहुंची।

इससे उनकी चिंता बढ़ गई। उन्होंने किसी से कुछ कहा तो नहीं, पर उदास रहने लगीं। घर के कामों, जिम्मेदारियों को निभाते हुए वह हर पल-हर क्षण बेचैन रहती। मन की घबराहट चेहरे पर भी नजर आ जाती। एक दिन भगवती ने उनसे धीरे से पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है भाभी, आजकल आप इतनी परेशान क्यों हो?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, लाली ऐसी कोई बात नहीं।’’ भगवती ने हल्के से मुस्कराते हुए कहा, ‘‘बात तो है भाभी, कहो तो बता दूं।’’ फिर धीरे से गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘आप इसलिए परेशान हो न, क्योंकि आपके पिता नहीं आए, लेकिन आप अब ज्यादा परेशान न हो, वे इसलिए नहीं आ सके क्योंकि उन्हें काफी तेज बुखार आ गया था। चिट्ठी उन्होंने लिखी थी, पर वह समय से पहुंच नहीं सकी। पर आज वह चलने की तैयारी कर रहे हैं। कल यहां पहुंच जाएंगे। जहां तक चिट्ठी की बात है, वह आज ही आपको मिल जाएगी।’’

अपनी इस छोटी-सी ननद की बातों को सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने तो घर में किसी को भी अपने मन की बातें नहीं बताई थीं। यह आश्चर्य तब और बढ़ गया, जब सचमुच ही दिन में डाकिया आकर चिट्ठी पहुंचा गया। चिट्ठी में वही सब बातें लिखी थीं, जो उनकी लाली ने उन्हें बताई थीं। दूसरे दिन उनके पिताजी उन्हें लेने के लिए आ गए। पिताजी ने घर-परिवार के, अपने स्वास्थ्य के जो समाचार बताए, वे सब वही थे, जो उनकी यह प्यारी-सी ननद पहले ही बता चुकी थी। उन्हें भी अपने श्वसुर की तरह इस बात पर पक्का विश्वास हो गया कि उनकी ननद में सचमुच ही कोई दैवी शक्ति है। उनके हृदय में अपनी इस ननद के लिए प्यार तो पहले से ही था, अब सम्मान और श्रद्धा का भाव भी जाग उठा।

भगवती के मन में अपनी भाभी के लिए विशेष लगाव था। अपनी अवस्था के अनुरूप वह उन्हें घर के छोटे-छोटे कामों में मदद करती। कभी-कभी भाभी और बड़ी बहन के साथ गुड़िया-गुड्डे के खेल खेलती। यह उनका प्रिय खेल था। गुड़िया-गुड्डे तैयार करने, उन्हें सजाने-संवारने की जिम्मेदारी भारी की थी। इसके लिए वह हमेशा रंग-बिरंगे कपड़े संजोती रहती थी, ताकि वह अपनी लाली के गुड़िया-गुड्डे को ढंग से सजा-संवार सके। जब-तब गुड्डा बीमार हो जाता, फिर वैद्य जी बुलाए जाते। जड़ी-बूटियां घिसी और पीसी जातीं। जिन्हें खाकर और पथ्य-परहेज करके गुड्डा महाशय स्वस्थ हो जाते। इसी के साथ बालिका भगवती की हंसी फिर खिलखिला उठती। गुड़िया-गुड्डे का यह खेल उनके बचपन का सच्चा सहचर था। इसमें घर के सभी लोगों को किसी-न-किसी रूप में उनका सहभागी बनना पड़ता था। कभी गुड़िया की शादी, तो कभी गुड्डे की बीमारी, तो कभी उनके लिए नए घर-मकान का इंतजाम, इस तरह के अनेकों काम और इंतजाम थे, जो उनके बचपन को क्रीड़ामय एवं उल्लासमय बनाए रखते थे। महाशक्ति की इन लीलाओं में उनकी दिव्य क्रीड़ा भी यदा-कदा उजागर होती रहती थी। खेल-खेल में ही अनेकों दिव्य भाव उमगते-पनपते और सृष्टि के आंगन में बिखर जाते। क्रीड़ामयी शांत भाव से उन्हें देखती रहती।

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