महाशक्ति की लोकयात्रा

कण-कण में समाया आत्मवत् सर्वभूतेषु का भाव

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अपने बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए माताजी हमेशा प्रयत्नशील रहती थीं। गायत्री तपोभूमि व अखण्ड ज्योति संस्थान में रहने वाले, काम करने वाले और आने-जाने वाले सभी उनके बच्चे थे। वह सभी की अपनी सगी मां थीं। मां कौन होती है? इसके बारे में उनकी अपनी मौलिक दृष्टि थी। बातचीत में वे कहा करती थीं, ‘‘जन्म देने वाली जननी होती है, लेकिन जो संतान को संस्कार देती है, उसके जीवन को संवारने के लिए हर पल, हर क्षण प्रयत्नशील रहती है, वही मां है। अपने बच्चों को ऊंचा उठाने के लिए, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए, उनके आंतरिक विकास के लिए मां दिन-रात जुटी रहती है। उत्तम संस्कारों के बीजारोपण से ही मनुष्य का जीवन सही मायने में संवरता है। इसी से माता की मातृत्व साधना की सफलता प्रमाणित होती है।’’ वे कहती थीं, ‘‘बेटा, मैं तुम सब की जननी तो नहीं, पर तुममें से हर एक को अच्छे संस्कार देने वाली तुम्हारी सच्ची मां हूं।’’

अपने कथन के अनुरूप वह हर समय इसके लिए कोशिश करती रहती थीं। बात-व्यवहार में, उनके संपर्क के प्रत्येक आयाम में यह सत्य प्रकट होता था। उनके द्वारा कराए जाने वाले भोजन में इसकी सबसे अधिक सघनता रहती थी। परमपूज्य गुरुदेव इस बात को परिजनों से, कार्यकर्त्ताओं से जब-तब बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कह देते थे। वे कहते, ‘‘तुम लोग माताजी को साधारण न समझो। वे शक्तिस्वरूपा हैं, महाशक्ति हैं। अपने आध्यात्मिक ऐश्वर्य को छिपाकर बड़े ही सामान्य ढंग से रहा करती हैं। उन्हें पहचानना, उनको सही ढंग से समझ पाना आसान काम नहीं है। वे तुम लोगों के लिए जितना आसानी से कर देती हैं, उतना तो मैं भी नहीं कर सकता। पता नहीं, तुम इस सचाई को कितना समझ पाते हो? पर सत्य यही है कि उनके संपर्क मात्र से पूर्वजन्मों के कषाय-कल्मषों, कलुषित संस्कारों का नाश होता है। व्यक्तित्व में नए दिव्य संस्कारों के बीज रोपित होते हैं।’’

इस क्रम में परमपूज्य गुरुदेव और भी बहुत कुछ बताया करते थे। वे कहते, ‘‘माताजी का भोजन दिखने भर में सादा और साधारण है, लेकिन इसे तुम लोग कभी साधारण समझने की भूल मत करना। इसमें उनकी असाधारण प्राण ऊर्जा समाई रहती है। यह पेट को तृप्त करने के साथ आत्मा तक को तृप्त करने वाला तत्त्व है। तुम लोगों को अनुदान देने के, तुम सबको संस्कारवान बनाने के उनके तरीके बड़े अद्भुत हैं। वे कब, क्या और किस ढंग से करती हैं, इसे सही-सही वे ही जानती हैं, लेकिन यह बात सौ टका सच है कि उनके चौके का भोजन, उनके द्वारा किए जाने वो शक्ति संप्रेषण का, दिव्य संस्कारों के बीजारोपण का सबसे समर्थ माध्यम है। यह उनके द्वारा अपनाई जाने वाली बड़ी ही प्रिय विधि है।’’

माताजी के चौके में भोजन हजारों-लाखों ने किया होगा। उनके संपर्क में शायद इससे भी अधिक आए होंगे, पर इस उपर्युक्त सच को कम ही लोग समझ पाए होंगे। हां, बुद्धि से न समझ पाने के बावजूद इसकी भावानुभूति जरूर बहुतों ने पाई होगी। कभी-कभी तो यह अनुभूति इतनी प्रगाढ़ होती थी कि अनुभव करने वाला इसे बताए बिना न हर पाता था। इसके बखान से ही उसे संतुष्टि और संतृप्ति मिलती थी। ठा. हनुमंत सिंह हाड़ा की अनुभूति कथा ऐसी ही है। इसे उन्होंने ही गायत्री तपोभूमि के एक शिविर में अपने साथी शिविरार्थियों को सुनाया था। इस प्रसंग को बीते हुए आज चार दशक के लगभग होने जा रहे हैं, पर जिन्होंने उन दिनों इसे सुना, उन्हें आज भी ये बातें यथावत याद हैं।

ठा. हनुमंत सिंह राजस्थान के बाड़मेर के पास के रहने वाले थे। उनके पुरखे काफी बड़ी जागीर के स्वामी थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद जागीरें तो न रहीं, पर उनके ऐश्वर्य में कोई विशेष कमी न आई थी। ठाकुर साहब में गुण काफी थे, पर उनमें दोष भी कम न थे। ऐश्वर्य व विलासिताजन्य कई दुष्प्रवृत्तियां उनके व्यक्तित्व में बुरी तरह समा गई थीं। उनकी धर्मपत्नी, परिवार के सदस्य उनके इन दुर्गुणों, दुष्प्रवृत्तियों से बुरी तरह परेशान थे। पता नहीं किस तरह परिवार के लोगों को ‘अखण्ड ज्योति’ की एक प्रति हाथ लग गई। इसमें गायत्री तपोभूमि और यहां चलने वाले शिविरों के बारे में काफी कुछ छपा था। सारी बातें पढ़कर परिवार के सदस्यों एवं उनकी पत्नी ने सोचा कि ठाकुर साहब को वहां ले चला जाए। उन सब लोगों ने ठाकुर साहब से बात की। थोड़ी न-नुकुर के बाद वे तैयार हो गए।

निश्चित तिथि पर वे सभी मथुरा स्थित गायत्री तपोभूमि पहुंच गए। उन दिनों आने वाले ठहरते तो गायत्री तपोभूमि में थे, पर खाना अखण्ड ज्योति संस्थान में खाते थे। इसी नियम के अनुसार ठाकुर साहब भी अपने परिवार के साथ भोजन हेतु अखण्ड ज्योति संस्थान में गए। माताजी ने स्वयं अपने हाथों से परोसकर उन्हें भोजन कराया। मुर्गा-मांस-शराब के अभ्यस्त ठाकुर साहब हालांकि इस तरह के भोजन के आदी न थे, फिर भी न जाने क्यों उन्हें इस भोजन में कुछ अद्भुत स्वाद आया। भोजन करने के बाद वह फिर से तपोभूमि लौट आए। परिवार के सदस्यों के बहुत समझाने पर भी उन्होंने शिविर के किसी भी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया। हां खाना खाने के लिए अवश्य सबके साथ माताजी के यहां पहुंच जाते थे।

ठाकुर साहब के अनुसार, ‘‘पता नहीं क्या था उस भोजन में! पर कुछ अद्भुत जरूर था। दो-तीन दिन में ही मुझमें एक अद्भुत भाव परिवर्तन हो गया। हर समय आंखों के सामने माताजी की सौम्य मूर्ति उपस्थित रहती। पहले तो गलत विचार, गलत भावनाएं मन में आती ही नहीं थीं, पर यदि पुरानी आदतोंवश आ भी जातीं, तो मन में बड़ी गहरी शर्मिंदगी होती। ऐसा लगता कि माताजी सब कुछ देख रही हैं और मैं कैसी घटिया बातें सोच रहा हूं। घर वापस पहुंचने के बाद पुरानी बातों की ओर मन बिल्कुल भी न गया। परंतु मित्र वही थे, उनकी जोर-जबरदस्ती भी वही थी। इसी जोर-जबरदस्ती के कारण उनके साथ जाना पड़ा। बहुत मना करने के बावजूद भी उन्होंने मांस और शराब का सेवन करा ही दिया।

‘‘इसके बाद ही हालत खराब हो गई। उल्टी-दस्त का सिलसिला चल पड़ा। जैसे-तैसे घर पहुंचाया गया, लेकिन दिनोदिन बीमारी बढ़ती गई। दवा-डॉक्टर-इलाज सब बेअसर होने लगे।’’ ठाकुर साहब के अनुसार घर के सभी लोग घबरा गए, पर उन्हें खुद एकदम घबराहट न थी। उन्हें हमेशा लगता कि माताजी उनके सिराहने बैठे उनका सिर सहला रही हैं और कह रही हैं, ‘‘बेटा, इसे बीमारी नहीं, विरेचन समझ। इस बीमारी के द्वारा तेरे सारे पुराने कुसंस्कार धुल जाएंगे। अब तेरे अंदर वही रहेगा, जो मैंने भोजन के साथ तुझे दिया है। तू परेशान न होना, सब कुछ बड़ी जल्दी ठीक हो जाएगा।’’ सचमुच ऐसा ही हुआ। वह थोड़े दिनों में एकदम ठीक हो गए। ठीक होने के बाद उनका जीवनक्रम एकदम बदल गया। पुराने मित्रों का संग-साथ भी छूट गया।

फिर से शिविर में गायत्री तपोभूमि आना हुआ। उन्होंने अपनी कथा विस्तार से सबको सुनाई। उनका बदला हुआ जीवनक्रम, कहे गए सत्य को प्रमाणित कर रहा था। नियमित ब्राह्ममुहूर्त में गायत्री साधना, प्रातः हवन, उनके जीवन के अनिवार्य अंग बन गए थे। माताजी द्वारा दिए गए दिव्य संस्कारों ने उन्हें संपूर्ण रूप से बदल दिया था। अपनी अनुभूतियों को सुनाते हुए कहा करते थे, ‘‘श्रेष्ठ साधकों के लिए मार्गदर्शक परमपूज्य गुरुदेव हैं। वे अवतारी सत्ता हैं, परंतु हम जैसे निकृष्ट जनों के लिए, अनेक तरह की गंदगी से लिपटी हुई संतानों के लिए तो माताजी ही सब कुछ हैं। उनके बिना भला हम जैसों का कल्याण और कौन करेगा? गुरु-मार्गदर्शक हमेशा साधक की पात्रता देखता है, पर मां के लिए तो बच्चे हमेशा ही सत्पात्र होते हैं, भले ही वे मल-मूत्र से सने क्यों न हों। मां को उन्हें गोद में उठाने, संस्कारवान बनाने में तनिक-सी भी हिचकिचाहट नहीं होती। हालांकि इसके लिए उसे अपार प्राण ऊर्जा खरच करनी पड़ती है। अनेकों कष्ट सहन करने पड़ते हैं। माताजी प्रसन्न भाव से यह सब करती थीं। इसके लिए आवश्यक शक्ति वह अपने आराध्य की साधनासंगिनी होकर प्राप्त करती थीं।’’

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