मातृसत्ता में राष्ट्रीय संवेदना की सघनता की अनुभूति पहले भी सभी को समय-समय पर होती रहती थी, परंतु श्रद्धांजलि समारोह के बाद से राष्ट्र के लिए उनके प्राणों की विकलता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। वे बार-बार सोचती रहतीं कि ऐसा कौन-सा अनुष्ठान संपन्न किया जाए, जिससे राष्ट्र के प्राणों को नवस्फूर्ति प्राप्त हो, देश की संस्कृति-संवेदना अपना व्यापक विस्तार कर सके। अपने निकटस्थ जनों से चर्चा में भी उन दिनों उनका यही चिंतन मुखरित होता था। मिशन के सारे काम-काल के ताने-बाने को सुलझाती-बुनती हुई माताजी इसी राष्ट्र चिंता में लीन रहती थीं। इन चिंतन और चर्चा में काफी समय बीता। शांतिकुंज के क्रिया-कलापों में कई नयी कड़ियां भी इसी दौरान जुड़ीं। परमवंदनीया माताजी की देख-रेख व उनके सूत्र-संचालन में पहले से सुचारु व्यवस्था और भी अधिक गतिशील हुई।
इसी समय उन्होंने हिमालय-यात्रा की योजना बनाई। यह योजना प्रायः यकायक ही बनी। माताजी हिमालय जाएंगी, यह सोचकर निकटस्थ जनों को थोड़ा भय भी हुआ। वे सोच रहे थे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि माताजी हिमालय में ही रहने का मन बना लें। कइयों को यह भी शंका हुई कि कहीं वह हिमालय के हिमशिखरों के बीच महासमाधि तो नहीं लेना चाहतीं, क्योंकि वैसे भी गुरुदेव के अभाव में उनका मन संसार में किसी भी तरह नहीं टिक पा रहा था। अंतर्यामी मां से अपने बच्चों के मन की यह ऊहा-पोह छुपी न रही। उन्होंने हंसते हुए कहा, यह ठीक है कि गुरुजी के बिना यह देख रखना मेरे लिए काफी, कठिन है, पर मुझे अपने बच्चे भी कम प्यारे नहीं हैं। मैं तुम लोगों के लिए अभी कुछ दिनों रहूंगी और यही शांतिकुंज में ही रहूंगी। जहां तक हिमालय जाने की बात है, तो वहां जाने का कारण कुछ और है। ये बातें तुम सबको मेरे वहां से लौटने पर पता चलेंगी।
सबको इस तरह अपनी वापसी के बारे में निश्चिंत कर वह हिमालय में गंगोत्री के लिए चल पड़ीं। उनके साथ शैलदीदी, डॉ. प्रणव पंड्या, चिन्मय एवं कुछ अन्य पारिवारिक सदस्य थे। दो-चार दूसरे सौभाग्यशाली जनों को भी उनके साथ इस यात्रा में जाने का सुयोग मिला। हिमशिखरों के मध्य पहुंचकर माताजी के भावों में एक अनोखा परिवर्तन झलकने लगा। उन्हें देखने वालों को ऐसा लगा जैसे कि कोई कन्या अपने पीहर आई है। जैसे कि वह अपने आप नहीं, पिता हिमवान के बुलावे पर यहां आई हैं। उनके दीप्त मुखमंडल पर आनंद की रेखाएं सघन हो गईं। कई स्थानों पर वह रुकीं और ध्यानस्थ हो गईं। गंगोत्री के पास भगीरथ शिला पर तो वह काफी देर ध्यानमग्न बैठी रहीं। यहां पर जब वह ध्यान से उठीं, तो उनके चेहरे पर कुछ विशेष पाने की प्रसन्नता की प्रदीप्ति थी। यहीं से उन्होंने अपनी यात्रा को विराम दिया और शांतिकुंज वापस लौट आईं।
वापस लौटने पर उन्होंने एक भव्य शपथ-समारोह में राष्ट्रव्यापी अश्वमेध महायज्ञों की घोषणा की। यह घोषणा करते समय उन्होंने बताया कि हिमालय ने उन्हें यही संदेश दिया है। हिमालय में निवास करने वाली दिव्य शक्तियों का यही आग्रह है कि राष्ट्र को समर्थ एवं सशक्त बनाने वाले अश्वमेध महायज्ञ का महानुष्ठान किया जाए। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि इन महायज्ञों में वह स्वयं जाएंगी। उनके आने की बात सुनकर परिजनों का उत्साह आकाश चूमने लगा। सभी अपने क्षेत्र में इस महायज्ञ को आयोजित करने के लिए उतावले थे, परंतु यह सौभाग्य कुछ विशेष स्थानों को ही मिला। माताजी ने अपनी देख-रेख में इस महायज्ञ का कर्मकांड तैयार करवाया। परिजनों को इसकी विस्तृत जानकारी देने के लिए अखण्ड ज्योति की संपादक-मंडली ने अखण्ड ज्योति का एक संपूर्ण विशेषांक (नवम्बर 1992) तैयार किया। क्षेत्रों में इन आयोजनों की व्यापक विधि-व्यवस्था की गई। ये सभी कार्य वंदनीया माताजी के निर्देशन में पूरे हुए।
इसी के साथ परमवंदनीया माताजी ने जयपुर के प्रथम अश्वमेध के लिए अपनी यात्रा प्रारंभ की। उनका यह क्रम भिलाई (म.प्र.), गुना (म.प्र.), भुवनेश्वर (उड़ीसा), लखनऊ (उ.प्र.) बड़ौदा (गुजरात), भोपाल (म.प्र.), नागपुर (महाराष्ट्र), ब्रह्मपुर (उड़ीसा), कोरबा (म.प्र.), पटना (बिहार), कुरुक्षेत्र (हरियाणा) एवं चित्रकूट (उ.प्र.) आदि स्थानों में होने वाले अश्वमेध महायज्ञों में जारी रहा। इन सभी स्थानों की यात्रा के लिए विभिन्न राज्य सरकारों ने उनके लिए सरकारी वायुयान की व्यवस्था की। उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान दिया। दिग्विजय सिंह, लालू प्रसाद यादव, बीजू पटनायक, चिमन भाई पटेल आदि कई राज्यों के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों ने उनके वात्सल्य से स्वयं को अनुग्रहीत अनुभव किया। मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मो. शफी कुरैशी, उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा एवं वर्तमान प्रधानमंत्री एवं उस समय प्रतिपक्ष के नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी आदि अनेकों विशिष्ट व्यक्तियों ने इन अश्वमेध कार्यक्रमों में उपस्थित होकर अनुभव किया कि माताजी का हृदय समूचे राष्ट्र के प्रति वात्सल्य से भरा हुआ है।
माताजी की अश्वमेध यात्रा की अनुभूतियां एवं यादें इतनी अधिक हैं कि उन पर अलग से कई खंडों में एक समूची ग्रंथावली प्रकाशित की जा सकती है। वह जहां भी गईं, वहां व्यस्त कार्यक्रमों एवं थोड़े समय के बावजूद सभी से मिलीं। अति विशिष्ट जनों से लेकर अति साधारण जन तक सभी उनसे मिलकर धन्य हुए। इस अति व्यस्तता में भी वे अपने भावुक बच्चों को नहीं भूलीं। उनके आग्रह-अनुरोध पर वे उनके घरों में गईं। समूचे देश में ऐसे कई घर हैं, जो उनकी चरण धूलि से तीर्थ स्थान बन गए। जहां पर वह बैठीं, उन स्थानों को कई लोगों ने अपनी उपासना स्थली बना लिया। ऐसे व्यक्तियों ने बाद के दिनों में अनेकों दिव्य अनुभूतियां पाईं। उनकी अंतर्चेतना में एक अलौकिक आलोक का अवतरण हुआ।
वह जहां भी गईं, वहां उन्होंने अनेकों अनुदान बिखेरे। कई स्थानों पर स्वयं उन्हें भी अनेकों यादों ने घेर लिया। ऐसा लगा जैसे कि वह पहले किसी अन्य रूप में यहां आई हैं। चित्रकूट में सभी ने इस सत्य को प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा। चित्रकूट अश्वमेध के समय वह शारीरिक रूप से काफी कुछ आशक्त थीं। इस शारीरिक अशक्तता के बावजूद वह उन सभी स्थानों पर गईं, जहां प्रभु श्रीराम, माता सीता एवं भाई लक्ष्मण के साथ गए थे। जहां उन्होंने अनेकों ऋषि-मुनियों का संग लाभ लिया था। माताजी इन सभी स्थानों पर आग्रहपूर्वक गईं। कामदगिरि, स्फटिक शिला, गुप्त गोदावरी आदि सभी स्थानों की यात्रा उन्होंने बड़े भाव भरे मन से की। इन जगहों को उन्होंने कुछ इस तरह से देखा, जैसे वह यहीं कहीं अपने राम को देख रही हों। स्फटिक शिला पर वह थोड़ी देर बैठीं भी। यहां बैठने पर बोलीं, ‘‘देखो तो सही समय बदलने के साथ कितना कुछ बदल गया है। त्रेता युग में कुछ और था, अब कुछ और है।’’
सुनने वाले कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। ज्यादा पूछने पर वह हल्के से मुस्करा भर दीं। अपने बच्चों को खुशियां देते, राष्ट्र के प्राणों में नवस्फूर्ति का संचार करते हुए उनकी यह यात्रा चल रही थी। उन्हें इस तरह यात्रा करते हुए देखकर विदेशों में बसे परिजनों के मन में यह लालसा सघन हो गई कि उनकी मां उनके पास भी आ जाएं। उनके घर भी विश्वजननी की चरण धूलि से तीर्थ-भूमि बन सके। अपने विदेशी बच्चों के इस आग्रह-अनुरोध को वह ठुकरा न सकीं। सभी के प्रबल प्रेम के कारण विश्वमाता ने विश्वयात्रा के लिए हामी भर दी। उनकी इस ‘हां’ से अगणित हृदय पुलकित-प्रफुल्लित हो उठे।