महाशक्ति की लोकयात्रा

संतानों पर प्यार व आशीष लुटाने वाली मां

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माताजी के आशीषों की वर्षा परमपूज्य गुरुदेव के एकांत साधना में चले जाने के बाद अतिशय सघन हो गई थी। सन् 1984 की रामनवमी से गुरुदेव का सर्वसामान्य से मिलना बंद हो गया था। इस विशिष्ट साधना काल में उन्होंने प्रायः दो ही लोगों को अपने आस-पास रहने व निरंतर मिलने-जुलने की अनुमति दी थी। इनमें से प्रथम स्वयं वंदनीया माताजी थीं, जो उनसे सर्वथा अभिन्न थीं, जिनके प्राण गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना में घुल रहे थे। जो साधना करते समय गुरुदेव के स्थूल शरीर को अपनी दिव्य शक्तियों से सुरक्षित व संरक्षित करती थीं। दूसरे व्यक्ति के रूप में डॉ. प्रणव पंड्या थे। जो उन दिनों गुरुदेव के प्रधान सेवक, निजी सचिव व उनके लेखन कार्य में एकमात्र सहयोगी का धर्म निभाते थे। इन गुरुतर सेवाधर्म में प्रतिपल उनके मन-प्राण तल्लीन रहते थे। ‘सब ते सेवक धरम कठोरा’—कहे जाने वाले सेवाधर्म के उनके हृदय में छलकने वाली भक्ति संवेदना ने एकदम आसान कर दिया था। सूक्ष्मीकरण साधना के समय वह प्रायः दिन के सारे समय गुरुदेव के पास ही रहा करते थे।

दिन को इस समय वंदनीया माताजी अपने बच्चों को प्यार-दुलार बांटती थीं। उन पर अपने आशीष बरसाती थीं। गुरुदेव के एकांत में चले जाने के कारण शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में रहने वाले कार्यकर्त्ता ही नहीं देश भर में रहने वाले गायत्री परिजन मन मसोस कर रह गए थे। गुरुदेव से मिलना नहीं होता, इस बात का दुःख सभी को था। शुरुआत के दिनों में एक गहन अवसाद ने सबको घेर लिया था, लेकिन माताजी के प्यार भरे आशीषों ने सबकी हंसी फिर से लोटा दी। प्रायः हमेशा अपने को परोक्ष में रखने वाली सर्वेश्वरी मां इन दिनों अपनी संतानों के दुःख को हरने, उन्हें सुखों से सराबोर करने में लगी हुई थीं। इस समय की अनेक घटनाएं व संस्मरण शांतिकुंज व युग निर्माण मिशन के इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों पर टँकी हैं। आज भी जिनका स्मरण कर मन मां के प्यार से विगलित हो उठता है। हृदय उनके प्रति श्रद्धा से विभोर हो जाता है।

उन दिनों माताजी से मिलाने वालों व उनसे मिलने वालों को आज भी वे यादें भाव-विह्वल करती रहती हैं। ऐसी ही कुछ यादें इस समय भावनाओं की स्याही में भीगने के लिए आतुर हैं। इनमें से एक याद उन परिजन की है, जो इस समय राजस्थान प्रदेश के बारां जनपद में वरिष्ठ चिकित्साधिकारी हैं। गुरुदेव के सूक्ष्मीकरण में जाने के बाद ये अपने परिवार के साथ शांतिकुंज आए। इनके मन के किसी कोने में टीस थी कि इस बार गुरुदेव से मिलना नहीं हो पाएगा। अपने मन की ऊहा-पोह को लिए जब वह माताजी के पास पहुंचे तो उन्हें पहली हैरानी तो यही हुई कि माताजी ने उन्हें उनका नाम लेकर पुकारते हुए कहा—फूलसिंह, बेटा! कब आया तू? फिर पत्नी-बच्चों में से एक-एक का नाम लेते हुए उन्होंने सभी का हाल पूछा। यात्रा कैसी रही, यह पूछा। डॉ. फूलसिंह यादव को माताजी की इन बातों से हैरानी इस बात की हुई कि वे पहले कभी उनसे घनिष्ठता से मिले ही नहीं हैं। पहले के समय में तो उनका गुरुदेव से ही मिलना होता रहा है। आज माताजी की बातों ने उन्हें चकित कर दिया।

वे कुछ और ज्यादा सोच पाते कि माताजी बोल पड़ीं, क्या सोच रहा है? मां को अपने बच्चों की पहचान थोड़े ही करानी पड़ती है और हां गुरुजी नहीं मिलते तो क्या हुआ मुझे तेरे प्रमोशन का ध्यान है। तू किसी बात की फिकर न कर। मैं तेरा प्रमोशन कराऊंगी। अंतर्यामी मां की बातों को सुनकर डॉ. फूलसिंह की आंखें भर आईं। वह प्रणाम करे नीचे उतरे और यही सोचते रहे, माताजी अपनी पहचान न कराएं तो भला उन्हें कौन पहचान सकता है। गुरुजी कृपालु हैं, पर माताजी तो उनसे हजार गुना ज्यादा कृपालु हैं। यह ठीक है कि दया के सागर गुरुदेव मांगने पर कभी निराश नहीं करते, परंतु माताजी तो बिना मांगे ही सब कुछ दे डालती हैं और देकर भी यही सोचती हैं कि बच्चे को कुछ कम दिया। मां की कृपा और प्यार का कोई अंत नहीं। आज भी डॉ. फूलसिंह के मन को माताजी की यादें भिगोती हैं और वे केवल इतना कह पाते हैं कि जो मां शक्तिपीठ में प्रतिष्ठित हैं, वही मां अपने बच्चों पर कृपा करने के लिए अवतरित हुई थीं।

ऐसी यादें एक नहीं असंख्य और अनंत हैं। माताजी से परिजनों को मिलाने वाले शिवप्रसाद मिश्रा आदि कार्यकर्त्तागण रोज ही उन्हें आशीषों की वर्षा करते हुए देखते थे। मिलने वाले परिजन के बिना कहे माताजी उसकी समस्या कह डालतीं और उसके सार्थक समाधान का विश्वास दिलातीं। दुःसाध्य–असाध्य बीमारियां, घर-परिवार की जटिल उलझनें, सालों से लम्बित पड़े मुकदमे, बेटी की शादी और भी ऐसी न जाने कितने तरह की समस्याएं माताजी अपनी तपःशक्ति से पल में हल कर देतीं। उनके पास लोग रोते हुए आते और हंसते हुए जाते। यह प्रभाव क्षणिक नहीं दीर्घकालीन होता। जब ये लोग अपने घर पहुंचते तो उन्हें अपनी परिस्थितियां बदली हुई लगतीं। इस बदलाव की सूचना वे चिट्ठियों से देते और कभी-कभी तो खुशी में स्वयं ही भागे हुए चले आते। आकर कहते, माताजी आपकी कृपा से सब कुछ एकदम ठीक हो गया। उत्तर में वह कहतीं, हां बेटा, सो तो ठीक है, पर तू अपनी एक बात में सुधार कर ले। मां अपने बच्चों पर कृपा नहीं करती, उन्हें प्यार करती है। वह जो कुछ भी करती है, बच्चों के प्रति प्यार से विवश होकर करती है।

प्रेममयी मां के इस प्यार का कोई अंत नहीं था। चाहे शांतिकुंज-ब्रह्मवर्चस में रहने वाले लोग हों या फिर बाहर से आने वाले, सब पर उनका प्यार निरंतर बरसता रहता था। अपने बच्चों को उनकी पसंदीदा चीजें बनाकर खिलाना उनका बड़ा ही मनपसंद कार्य था। वे किसी के भी बिना बताए यह बराबर ध्यान रखती थीं कि किसको बेसन का हलुआ पसंद है, किसे गाजर का हलुआ अच्छा लगता है। तिल के लड्डू, करेले की सब्जी, चने की दाल और भी ऐसी न जाने कितनी तरह की चीजों का वह प्रत्येक की पसंद के अनुसार ध्यान रखती थीं। बिना किसी पूर्व सूचना के वह जब-तब कोई चीज स्वयं बना लेतीं या फिर साथ में रहने वाली लड़कियों से बनवा लेतीं। आगंतुक परिजन जब उनसे मिलने के लिए आते, तो वे उन्हें अपने सामने बिठाकर बड़े ही प्यार से खिलातीं। खाने वालों को हैरानी भी होती कि माताजी को कैसे पता कि मुझे यह चीज सबसे ज्यादा पसंद है और मैं आज आने वाला हूं, पर यह हैरानी ज्यादा देर तक नहीं टिकती, क्योंकि लगातार के अनुभवों ने उन्हें विश्वास दिला दिया था कि उनकी मां अंतर्यामी होने के साथ योग की दिव्य विभूतियों से संपन्न हैं।

सारे दिन संतानों पर प्यार और आशीष लुटाने के बाद माताजी शाम होते-होते गुरुदेव के पास ऊपर चली जातीं। वहां वह उनके साथ सूक्ष्मीकरण के उच्चस्तरीय प्रयोगों में भागीदार होतीं। गुरुदेव के द्वारा संपन्न की जाने वाली विश्वकुण्डलिनी के जागरण व पांच वीरभद्रों के निर्माण जैसी क्रियाएं माताजी की दिव्य शक्तियों के संरक्षण में चल रही थीं। इस साधना के उपरांत बाहर निकलने पर गुरुदेव ने इस विशिष्ट समय की चर्चा करते हुए एक बात-चीत में कहा था, ‘‘तुम्हीं लोगों को माताजी के आशीष नहीं मिलते, उनके आशीष हमें भी मिलते हैं।’’ फिर वह हंसते हुए बोले, ‘‘माताजी, मां के पेट से, माताजी होकर ही पैदा हुई हैं। वह एक साथ सभी की मां हैं।’’ कुछ देर ठहर कर अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, यह शरीर अब तक उन्हीं की देख-भाल के बल पर टिका हुआ है। मेरे जीवन के सारे जटिल प्रयोग उनके मातृत्व के संरक्षण के बल पर ही संभव हुए हैं। सूक्ष्मीकरण की सफलता भी उन्हीं के दिव्य संरक्षण का नतीजा है। साधनाकाल में वे अगर अपनी दिव्य शक्तियों से सतत मेरी रखवाली न कर रही होतीं, तो कौन जाने यह शरीर रहता भी या नहीं। गुरुदेव की इस सूक्ष्मीकरण साधना के बाद बीतते वर्षों के साथ अनेकों घटनाचक्र तेजी से बदले और वह समय भी आया जब शिव-महाशक्ति में समाने की तैयारी करने लगे।

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