महाशक्ति की लोकयात्रा

भाव-विह्वल, वियोग का महातप करने वाली मां

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अब तक जो कुछ भी तपश्चर्या व योग-साधना की गई थी, वह सब अपने प्रभु के आदेश व उन्हीं के सान्निध्य में हुई थी। बीच में जो वियोग के पल आए थे, वे सीमित थे। विश्वास था कि प्रभु गए हैं, तो आएंगे भी। उनके आने की अवधि प्रायः निश्चित थी। अपने आराध्य के सान्निध्य में अथवा उनके लौट आने की आशा में सहा गया महाकष्ट भी वंदनीया माताजी के लिए आनंददायी था। महाकंटकों को भी उन्होंने सुकोमल पुष्पों की भांति समझा था। असह्य वेदना भी परमपूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में घुलकर उनके लिए आह्लादकारी बनती गई थी। पिछले जीवन की लंबी अवधि में उन्होंने बहुत कुछ सहा था। जीवन में कई तरह के संकटों को सहते हुए उन्होंने कठोर तप-साधनाएं की थीं। उनकी सहनशक्ति इतनी अगाध और असीम थी कि गुरुदेव उन्हें ‘सर्वसहा’ कहने लगे थे। वह कहा करते थे कि माताजी सर्वकष्ट सहिष्णु हैं। वे सब कष्टों-संकटों को बड़ी आसानी से हंसते-हंसते सह जाती हैं। उन सर्वसहा को भी भौतिक वियोग का यह महातप असह्य लगा रहा था।

इस असह्य को भी वह हंसकर सह रही थीं। उन्हें स्वयं को संभालने के साथ, अपनी अगणित शिष्य-संतानों को संभालना था। प्रेममूर्ति गुरुदेव के न रहने का  दुःख सभी को था। सबके मन भीगे हुए और भारी थे। इनमें से कई तो ऐसे थे, जिनकी आंखों से महीनों आंसुओं की झड़ियां लगी रहीं। उनकी भावुकता इन्हें हर पल भिगोती थी। इन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब कैसे जिएं? आज इन बातों में हो सकता है, किसी को विचित्रता या अतिशयोक्ति लगे, पर जिन्होंने गुरुदेव को देखा है, उन्हें छुआ है, उनके प्रेम को पिया है, उनके सान्निध्य में दो-चार घड़ी बिताई हैं, उन सभी को इन बातों में सच और केवल सच के अलावा अन्य किसी तत्त्व की प्रतीति न होगी। जब सामान्यजनों की यह स्थिति थी, तो भावमयी माताजी की विह्वलता व विकलता की कल्पना करना सामान्यजन-मन के लिए पूरी तरह से अकल्पनीय है। अपनी इस असीम वेदना को सहती हुई वे उन दिनों भी नियमित प्रणाम में बैठ रही थीं। उनके मिलने-जुलने का क्रम भी पहले की ही तरह निश्चित व नियमित था। अपने बच्चों के लिए उनका प्यार-दुलार व उन पर आशीषों की अजस्र वर्षा अब पहले से भी ज्यादा बढ़ गई थी।

लगातार विस्तार करते मिशन की अगणित जिम्मेदारियों को निभाते हुए विश्व जननी, विश्वकल्याण के लिए अहर्निश तप कर रही थीं। बीच-बीच में वह अपने भावुक और नादान बच्चों को भी धीरज देती थीं। उन्हें दुलराती व पुचकारती थीं। पिता के न होने पर मां का अपनी संतानों के प्रति प्रेम और भी ज्यादा सघन और सजल हो गया था। इन्हें प्यार करते हुए वह जब-तब अपना उदाहरण देते हुए यह भी समझाती थीं कि देखो सहा कैसे जाता है? सहिष्णुता क्या होती है और यह जीवन के लिए कितनी आवश्यक है। वे बताती कि उच्चस्तरीय जीवन के उद्देश्यों के लिए कष्ट सहने का दूसरा नाम ही तपश्चर्या है। जो सहिष्णु है, वही तपस्वी हो सकता है। जो सच्चा तपस्वी है, सहिष्णुता अपने आप ही उसका स्वभाव बन जाएगी। इन दिनों कभी-कभी तो वह यह भी कहती थीं, जिसने सहन करने की कला सीख ली, समझो उसने जीवन जीना सीख लिया। उनकी इन बातों में उनके निजी जीवन की अनुभूति घुली थी।

अपनी अनुभूति का अमृत पिलाने के लिए माताजी कभी-कभी उन कार्यकर्त्ताओं को अपने पास थोड़े समय के लिए बुला लेती थीं, जो इन दिनों बड़े विकल और बेचैन थे। ऐसे ही एक कार्यकर्त्ता को उन्होंने गुरुदेव के न रहने के दो महीने बाद अपने पास बुलाया। यह इन दो महीनों में ठीक से सो न पाया था। उसके जीवन के दैनिक काम-काज बिखर गए थे। गुरुदेव का अभाव उसके लिए असह्य था। अब क्या होगा? कौन करेगा उसकी जिंदगी की सार-संभाल, जैसे प्रश्न-कंटक उसे बुरी तरह से चुभ रहे थे। विकल वेदना से भरे इन दिनों में उसने एक रात अर्द्धनिद्रा में स्वप्न में देखा कि वह लेटा हुआ है और वंदनीया माताजी अपनी गोद में उसका सिर रखे हैं। वह अपने हाथों को बड़े ही प्रेमपूर्ण ढंग से उसके सिर पर सहलाते हुए कह रही हैं—परेशान न हो, मौका मिलने पर मैं तुझे अपने पास बुलाऊंगी। स्वप्न के ये पल इतने ही थे, परन्तु ये न जाने कैसे जादू भरे थे कि स्वप्न देखने वाले को दो महीनों में शायद पहली बार ठीक से नींद आई। स्वप्न बीतने पर भी उसकी अनुभूति यथावत् रही।

एक दिन दोपहर को वंदनीया माताजी ने सचमुच उसे अपने पास बुला लिया। इस बुलावे पर उसे तब अचरज हुआ, जब उन्होंने स्वप्न की भाषा यथावत् कह सुनाई। अपनी बातों के क्रम में वह कहने लगीं, बेटा! अपने बच्चों को दिलासा देने के लिए मां उनके पास नहीं जाएगी, तो और भला कौन जाएगा? फिर बोलीं, प्रेम बहुत बड़ी चीज है, लेकिन उससे भी बड़ी एक और चीज है—कर्त्तव्य। जिससे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी गहरी श्रद्धा है, उसके आदेश को मानकर, उससे हुए वियोग की पीड़ा को सहते हुए यदि हम उसके द्वारा बताए गए कर्त्तव्य का सतत पालन करते हैं, तो यह महातप है। ऐसा महातपस्वी किसी भी पीड़ा, कष्ट, परेशानी, दुनिया के लोगों की दुनियादारी भरी बातों से किसी भी तरह विचलित नहीं होता। क्षुद्र बुद्धि के उलाहने उसे जरा भी डिगा नहीं पाते। माताजी की इन बातों में उनके महातप की व्याख्या थी।

इन बातों के क्रम में उन्होंने बताया, गुरुदेव सामान्य व्यक्ति की तरह मरे नहीं हैं। उन्हें अपने विशेष काम के लिए शरीर छोड़कर जाना पड़ा है। वह अभी भी परमवीर महानायक की भांति अपने मोरचे पर कुशलता से डटे हैं। विनाशकारी आसुरी शक्तियों को वह कड़ी टक्कर दे रहे हैं। हम सबको पवित्र जीवन जीते हुए, उनके प्रति परिपूर्ण श्रद्धा व समर्पण रखते हुए अपने कर्त्तव्य को निभाना है। यही हम लोगों की तपस्या है। उनकी इन बातों को सुनते हुए, सुनने वाले की आंखों के सामने वह दृश्य प्रत्यक्ष हो गया, जब वंदनीया माताजी ने परमपूज्य गुरुदेव के पार्थिव शरीर को अंतिम प्रणाम करते हुए अपने महातप का संकल्प लिया था। बड़े ही भावपूर्ण क्षण थे ये। माताजी के कमरे के बगल वाले हॉल में गुरुदेव के पार्थिव शरीर को उठाने की तैयारी हो रही थी। एक पल पहले बिलख रहीं माताजी के मुखमंडल पर यकायक दृढ़ता की अनोखी दीप्ति छा गई। वह धीमे कदमों से उठीं। उन्होंने गुरुदेव के माथे पर तिलक लगाया और चरणों में प्रणाम करते हुए धीमे, किंतु दृढ़ शब्दों में कहा, ‘‘हे प्रभु! मैं अपनी अंतिम सांस तक सभी कुछ सहकर आपके काम को करती रहूंगी। आपके आदेश का पालन करूंगी।’’

माताजी की बातों में आज भी वही दृढ़ता थी। उनकी वाणी ने सुनने वालों को सचेत किया। वह अपनी भावनाओं से उबरा। माताजी उसे समझा रही थीं, भक्ति कोरी भावुकता नहीं है। यह रोते-बिलखते रहकर अकर्मण्य बनकर पड़े रहने का नाम नहीं है। भक्ति अपने भगवान् के आदेश पर तिल-तिल गलते हुए, क्षण-क्षण जलते हुए, सब कुछ सहते हुए पर मिटने का नाम है। ऐसी भक्ति सर्वसमर्थ भगवान् को भी विवश और विकल बना देती है। इस भक्ति से बड़ा और कोई महातप नहीं। इससे अपरिमित एवं अपार शक्ति स्फुरित होती है। भक्तिमयी मां अपनी संतान के समक्ष स्वयं के आदर्श को प्रस्तुत कर रही थीं। सर्वेश्वरी का यह कथन उन्हीं के अनुरूप था। इससे महाशक्ति की महिमा प्रकट हो रही थी।

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