महाशक्ति की लोकयात्रा

मातृत्व का आंचल बढ़ता ही चला गया

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मातृत्व के विस्तार की सजल संवेदना की छुअन से आने-जाने वाले बरबस अभिभूत हो जाते थे। अखण्ड ज्योति संस्थान में आकर उन्हें हमेशा ऐसा लगता, जैसे वे अपनी सगी मां के पास आए हैं। इनमें से कइयों को माताजी अपनी सगी मां से कहीं बढ़कर लगतीं। वे अनुभव करते कि सगी मां तो फिर भी कभी थकान, परेशानी अथवा कार्यव्यस्तता वश अपने बच्चों को नजर-अंदाज कर देती हैं, लेकिन माताजी का प्यार कभी कम नहीं पड़ता। सगी मां बच्चों के बड़े हो जाने पर उन पर उतना ध्यान नहीं देती, पर माताजी के लिए बच्चे सिर्फ बच्चे हैं, वे छोटे हों या बड़े। वे जैसे अपने बच्चों की सार-संभाल के लिए ही अवतरित हुई हैं।

घर-परिवार के दायित्व और कार्यालय के काम-काज की व्यस्तताएं कितनी भी क्यों न होतीं, परंतु माताजी के मातृत्व का आंचल कभी भी छोटा न पड़ता। दिनोदिन उसका विस्तार व्यापक होता जा रहा था। इन्हीं दिनों उन्होंने ओमप्रकाश एवं दया के जीवन को संवारा। सतीश (मृत्युंजय शर्मा) एवं शैलो (शैलबाला) भी बड़े हो रहे थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई की देखभाल भी उन्हें ही करनी पड़ती थी। बच्चों में जैसा कि अक्सर होता है, उनमें चंचलता, नटखटपन की बहुलता होती है। उनके इन बच्चों में भी यही बात थी, लेकिन बच्चों को मारने-पीटने पर माताजी का विश्वास बिल्कुल भी न था। उनका मानना था कि बच्चों को बिना थके प्यार से समझाते रहना चाहिए। जिस दिन उन्हें औचित्य समझ में आ जाता है, वे शरारत करना छोड़ देते हैं।

हालांकि यह स्थिति कहने में जितनी आसान और साधारण लगती है, करने में उतनी ही जटिल और परेशानी पैदा करने वाली है। इसमें बड़े धैर्य एवं ममता की जरूरत पड़ती है और कभी-कभी कठिन पलों से भी गुजरना पड़ता है। माताजी के मातृत्व को भी ऐसे पलों का सामना करना पड़ा। वह मार्च 1951 का समय था। ओमप्रकाश की इंटर की परीक्षाएं चल रही थीं। अंग्रेजी का दूसरा पेपर सेकिंड मीटिंग में था। वह अपने कमरे में बैठे पढ़ रहे थे। लगभग सुबह के 7.30 बजे होंगे। अब्दुल लतीफ ट्रेडिल मशीन चला रहा था। माताजी के संबंधियों में से एक ‘चंदा’ कंपोज कर रहे थे। इतने में सतीश ऊपर से आए और उनने अपना हाथ अचानक मशीन के दांतों में डाल दिया।

भैय्या!!! चंदा काफी जोर से चिल्लाए। ओमप्रकाश भागे-भागे आए। उन्होंने देखा, सतीश चुप हैं। उठाकर गोद में ले लिया और सिर पर हाथ फेरा। उनको ऐसा लगा कि शायद चोट सिर में लगी है। तभी चंदा ने लगभग सुबकते हुए कहा, भैय्या! हाथ!! हाथ देखने पर पता चला कि हथेली आधी पलट गई है, उंगलियां लटक रही हैं। इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर उन्होंने ताईजी और माताजी को आवाज दी। दोनों भागी-भागी आईं। इतनी देर में ओमप्रकाश का नेकर और बनियान दोनों खून से तर हो चुके थे। मथुरा के सिविल सर्जन एस.के. मुखर्जी को दिखाया गया, उन्होंने सलाह दी, आगरा ले जाओ। मुखर्जी साहब ने आशंका भी व्यक्त की कि कहीं हाथ न काटना पड़ जाए।

परमपूज्य गुरुदेव इसी बीच आ गए। उनके साथ रघुनाथ अग्रवाल, श्यामलाल और कंपाउंडर जगदीश के भाई लक्ष्मण भी थे। दवा-पट्टी की जा चुकी थी, इंजेक्शन भी लग गया था, लेकिन सतीश को बेहोशी आ गई थी। सभी सोच-विचार में थे, क्या किया जाए? तभी माताजी ने डॉ. मुखर्जी से कहा, डॉ. साहब, आप भगवान पर भरोसा रखकर यहीं जो कुछ कर सकते हों, कीजिए। पूज्य गुरुदेव ने भी माताजी के इस कथन में हामीं भरी। ऑपरेशन किया गया। माताजी धैर्य के साथ ऑपरेशन रूम के बाहर खड़ी रहीं। थोड़ी देर बात ऑपरेशन समाप्त हुआ। मरीज को वार्ड में ले जाया गया। काफी दिनों के बाद स्थिति में सुधार आया। इस घटना के चिह्न अभी भी मृत्युंजय शर्मा के हाथ पर हैं, परंतु माताजी का ममत्व बढ़ता गया। वह बड़े धीरज के साथ बच्चों के व्यक्तित्व को गढ़ती रहीं।

माताजी के ममत्व के इस दायरे में उन दिनों भी अगणित थे। उनके लिए जितने प्यारे सतीश और शैलो थे, उतना ही प्यारा अब्दुल लतीफ था। यह मुसलमान युवक अखण्ड ज्योति संस्थान में मशीन मैन था। पत्रिका की छपाई का काम-काज देखता था। अपने परिवार के सदस्यों के साथ माताजी इसके भी खाने की व्यवस्था किया करती थीं। बड़े नियम से वह बीच-बीच में चाय-नाश्ते के लिए पूछ लेतीं। उनका यह व्यवहार कभी-कभी आने वाले संबंधियों को अखर जाता। उनमें से कोई-कोई कभी-कभार कह देते, अब्दुल लतीफ की भोजन की व्यवस्था करना बुरा नहीं है, पर आपको कम-से-कम उसके बरतन तो अलग रखने चाहिए। संबंधियों की इस बात के उत्तर में वह कहतीं, आचार-विचार का मतलब छुआछूत नहीं होता। इसका मतलब यह है कि हम अपने विचारों और कार्यों में कितने पवित्र और निर्दोष हैं?

उनकी ये बातें किसी को समझ में नहीं आतीं। उनके द्वारा काफी-कुछ समझाने के बावजूद संबंधियों के आग्रह यथावत बने रहे। वे अपनी रूढ़िवादी-पुरातन मान्यताओं को उन पर थोपने की कोशिश जब-तब करते रहते। संबंधियों के इस बढ़ते आग्रह पर एक दिन उनके यहां काम करने वाली ‘ए जू’ ने भी उन्हें समझाया, आखिर आप सबकी बातें मान क्यों नहीं लेतीं? ठीक ही तो कहते हैं वे सब, जो कुछ भी हो, है तो वह मुसलमान ही। उसके लिए बरतन अलग करने में बुराई ही क्या है? ‘ए जू’ की इन बातों ने माताजी को व्यथित कर दिया। वे उठकर दूसरे कमरे में गईं, जहां अभी तक अब्दुल लतीफ के जूठे बरतन रखे थे। उन्होंने उन बरतनों को अपने हाथों से उठाया और बरतन मांजने वाली जगह पर ले आईं। ‘ए जू’ अभी कुछ और सोच-समझ पाती, इसके पले वह उसे संबोधित करते हुए बोलीं, ‘‘इतने दिन तुम मेरे पास रहीं, पर तुम मुझे समझ नहीं पाईं। अरे मैं सिर्फ मां हूं, हिंदू की भी मां, मुसलमान की भी मां। मेरे लिए जैसे ओमप्रकाश और सतीश हैं, वैसे ही यह अब्दुल लतीफ है।’’

उनकी इन बातों को सुनकर ‘ए जू’ हतप्रभ रह गई। उसे थोड़ी देर तक समझ ही न आया कि वह क्या बोले। जब तक वह कुछ बोलती, तब तक तो माताजी ने अब्दुल लतीफ के जूठे बरतन अपने हाथों से धो डाले। ‘ए जू’ को लगा जैसे वह कोई मानवी नहीं, देवी हों! थोड़े दिनों के बाद पता नहीं किस तरह इस बात का पता अब्दुल लतीफ को भी लगा। सब कुछ सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उसने आंसुओं से छलकती आंखों के साथ उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘मां, आप सचमुच मां हो। आपका दरजा फरिश्तों से भी ज्यादा बुलंद है। आप फातिमा बी की तरह मुकद्दस हो।’’ वह हाथ जोड़े ऐसी न कितनी बातें उनके सामने भाव-विह्वल स्वर में कहा रहा। जब वह वहां से चली गईं, तो उसने उस जगह की धूल अपने सिर-माथे पर लगाई और वहां लेटकर प्रणाम किया।

मातृत्व के इस अनंत विस्तार का परिचय किन्हीं विलक्षण क्षणों में वह स्वयं भी दे देती थीं। एक बार एक प्रखर गायत्री साधक रामजीवन अखण्ड ज्योति संस्थान आए। पिछले कुछ वर्षों से वह कई कठोर व्रतों का पालन करते हुए गायत्री अनुष्ठान कर रहे थे। अखण्ड ज्योति संस्थान आने पर उन्हें माताजी के द्वारा परोसे हुए भोजन को खाने का सौभाग्य मिला। भोजन करते समय माताजी की एक झलक पाकर वह अपनी किन्हीं अनुभूतियों में डूब गए। अचानक न जाने क्यों उनके मुख से निकला, मां तुम किस तरह मां हो? इस प्रश्न के उत्तर में माताजी बोलीं, ‘‘बेटा, मां इस या उस तरह की नहीं होती। मां सिर्फ मां होती है।’’ फिर वह धीरे से बोलीं, ‘‘मैं सचमुच की मां हूं। बेटा, गुरुदेव की पत्नी के रूप में मां नहीं, केवल सतीश और शैलो की मां नहीं, मैं सबकी मां हूं।’’ माताजी के इन वचनों को सुनकर गायत्री के प्रखर साधक रामसजीवन को लगा, जैसे कि आज वह गायत्री के तत्त्व और सत्य का साक्षात्कार कर रहे हैं। गायत्री माता ठीक उनके सामने खड़ी हैं। बाद में उन्हीं की सक्रिय प्रेरणा से तो गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ।

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