महाशक्ति की लोकयात्रा

भावपरक विदाई लेकर शांतिकुंज आगमन

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शांतिकुंज के प्रारंभिक दिनों की शुरुआत के कुछ समय पहले ममतामयी माताजी के मातृत्व को बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा। परीक्षा के ये पल उफनती-उमड़ती, विकल-विह्वल भावनाओं से घिरे थे। मथुरा छोड़ते समय गुरुदेव ने विदाई समारोह का आयोजन किया था, ताकि परिजन उनके तीसरी बार हिमालय जाने से पूर्व मिल सकें। अपने मन की कह सकें और उनकी सुन सकें। यह हिमालय यात्रा पिछली सभी यात्राओं की तुलना में असाधारण थी। इसमें यह निश्चित नहीं था कि गुरुदेव वापस लौटेंगे अथवा अपनी मार्गदर्शक सत्ता की आज्ञानुसार वहीं उनके पास रहकर विश्वकल्याण के लिए तप करेंगे। जिन्हें सदा अपना अंग-अवयव माना, अपने प्राणों के अनुदान देकर जिन्हें पाला, उनसे विदाई गुरुदेव के लिए हृदय विदारक थी। अपने हृदय की इस व्यथा को वह पिछले साल-डेढ़ साल से अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में लिखकर परिजनों को अवगत भी कराते रहे थे।

भावमयी माताजी सब कुछ सहकर भी मौन थीं, जबकि उनके हृदय की व्यथा गुरुदेव से असंख्य एवं अनंत गुना गहरी थी। सबसे पहले तो वे मां थीं। जिनके दिल में उमड़ने वाली भावनाएं शायद समुद्र से गहरी और आकाश से भी ज्यादा व्यापक थीं। जिनका संपूर्ण अस्तित्व करुण कोमल संवेदनाओं का ही घनीभूत पुंज था, उन भावमयी जगदंबा को इन दिनों एक के बाद एक अनेक भावनात्मक आघात झेलने पड़ रहे थे। सबसे पहले तो उन्हें अपनी कोख से जायी लाड़ली बेटी शैलो (शैलबाला) की विदाई करनी थी। गायत्री जयंती (3 जून, 1971) को हुई यह शादी उनके लिए पुलकन और अश्रुओं से भरी थी। पुलकन इसलिए थी, क्योंकि वह अपनी बेटी के ससुराल के प्रत्येक सदस्य के गुणों के बारे में सुपरिचित एवं निश्चिंत थीं। उन्हें यह भी मालूम था कि उनके जामाता डॉ. प्रणव पंड्या एक सुयोग्य पात्र हैं। उनमें समस्त दैवी संभावनाएं विद्यमान हैं। उनके सान्निध्य में उनकी पुत्री सब तरह से सुखी रहेगी, अपने जीवन की पूर्णता प्राप्त करेगी, यह भी उन्हें भली प्रकार पता था, लेकिन साथ ही उन्हें यह भी मालूम था कि उनकी लाड़ली बेटी जब ससुराल से पहली बार विदा होकर मायके वापस लौटेगी, तब वह उसके स्वागत के लिए यहां  होंगी। वापस लौटने पर वह उसे छाती से लिपटाकर, हृदय में उमड़ते हुए अपने प्यार को उस पर उड़ेल न पाएंगी, क्योंकि तब वह गंगा की गोद और हिमालय की छाया में बनी दिव्य साधना स्थली शांतिकुंज में एकांत तप कर रही होंगी।

बात केवल बेटी से अलग होने तक सीमित न थी। विदा उन्हें बेटे और बहू से भी होना था। जिन पर कच्ची उम्र में अखण्ड ज्योति संस्थान का गुरुतर भार सौंपकर वे जा रही थीं। बेटे सतीश (मृत्युंजय शर्मा) को उस समय तक काम का कोई खास अनुभव नहीं हुआ था। बहू निर्मल भी अभी घर की सारी बातों पर प्रायः उन्हीं पर निर्भर थी। उनकी अम्मा जी (माताजी) ही उनके लिए सब कुछ थीं, परंतु मां को अपने इन बच्चों से अलग होना ही था। विदा तो उन्हें अपनी इस छोटी-सी सुपौत्री गुड़िया से भी लेनी थी, जो अभी मुश्किल से दो साल की हुई थी। जिसने हाल ही में जैसे-तैसे नन्हे कदमों से चलना सीखा था। जो बड़ी मुश्किल से अटक-अटककर उन्हें अम्माजी कह पाती थी। जिसके लिए उनकी गोद ही उसका सारा घर-संसार था। जिसे यदि वे थोड़ी देर के लिए भी अपने से अलग करतीं, तो वह बिलख उठती। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें आंसुओं का झरना बन जातीं। भावमयी माताजी को स्वयं बिलखते हुए इन सभी बिलखते हुए अपने बच्चों से अलग होना था।

जिंदगी की अगणित पीड़ाओं को बड़ी आसानी से हंसकर सहने वाली माताजी को उनकी विकल भावनाएं इन दिनों विह्वल किए हुए थीं। अपने साथ रहने वाले बच्चों के अलावा विश्व जननी के वे बच्चे भी थे, जो हर पल उन्हें माताजी-माताजी कहते हुए थकते न थे। सुख में, दुःख में, संकट में, विपन्नता में जिन्हें केवल अपनी मां को पुकारना आता था। जिन्हें इस भरे-पूरे संसार में केवल अपनी मां पर भरोसा था। उन सब बच्चों में ज्यादातर इस समय उन्हें विदाई देने आए हुए थे। उन सभी की आंखें भीगी और भरी थीं। इनमें उम्र का भेद भले ही हो, पर भावनाओं का कोई भेद न था। उनमें से शायद हर एक की भावनाएं व्याकुल होकर यही कह रही थीं कि पिता हमें छोड़कर महातप के लिए हिमालय जा रहे हैं, हम बच्चों के लिए तुम्हीं रुक जाओ मां। बोल कोई कुछ नहीं रहा था, पर सभी रो रहे थे, बिलख रहे थे। सब के मन-प्राण में महा-हाहाकार मचा हुआ था। अपनी असंख्य संतानों की इस हालत से जगदंबा विह्वल, व्याकुल और विकल थीं। अपनी प्राणप्रिय संतानों को इस तरह हिचकियों के हिचकोले खाते हुए देख कोई सामान्य मां भी शांत नहीं रह सकती, फिर वे तो भावमयी भगवती थीं। बच्चे ही उनके लिए उनका जीवन थे। वेदना की गहरी टीस को अपने में समेटे असंख्य हृदय अपनी मां को उनकी एकांत साधना के लिए विदा दे रहे थे। सभी को मालूम था कि वे हरिद्वार में रहेंगी। बहुत जरूरत पड़ने पर उनसे संपर्क हो सकता है, परंतु उस समय हरिद्वार में मथुरा जैसी सुगमता तो न थी।

विछोह के इस करुण उद्रेक में एक महाविछोह और भी था। विदाई की इस महाघड़ी में जब सभी विदा दे रहे थे, उन्हें भी अपने आराध्य को विदा देना था। यह ठीक था कि उनकी विदाई मथुरा में न होकर हरिद्वार में शांतिकुंज आकर होनी थी। गुरुदेव को सभी से विदा लेकर उनके साथ शांतिकुंज तक जाना था। यही हुआ। उमड़ते, छलकते, बिखरते और सर्वव्यापी बनते अश्रुओं के बीच गुरुदेव और माताजी की लाड़ली सुपुत्री शैलो अपने सौभाग्य सिंदूर डॉ. प्रणव पंड्या एवं ससुराल के सदस्यों के साथ विदा हुई। अपनी उमड़ती हुई व्याकुलता के महातूफान के बवंडर भरे चक्रवात के साथ एक-एक करके सारे परिजन भी विदा हुए। गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्त्ताओं को तो पं. लीलापत शर्मा के मार्गदर्शन में वहीं रहकर कर्त्तव्य साधना करनी थी। उनकी भावनाएं कितनी भी छटपटाई हों, पर मर्यादा प्रभु श्रीराम एवं माता भगवती के साथ चलने की इजाजत नहीं दे रही थीं। प्रभु का अनुशासन शिरोधार्य करके वे सब वहीं कर्म निरत हो गए।

गुरुदेव के साथ ममतामयी मां ने शांतिकुंज के लिए प्रस्थान किया। साथ में वर्षों की तप-साधना से सिद्ध अखण्ड दीपक को संभाले हुए दो-तीन कार्यकर्त्ता थे। यह यात्रा भी समाप्त हुई। शांतिकुंज में गुरुदेव कुछ दिन रहे भी, पर आखिर में माताजी को उन्हें तप के लिए हिमालय की ओर विदा करना ही था। घर-परिवार के सदस्य, स्वजन-परिजन, एक-एक करके नहीं, एक साथ सब छूटे और जिनके लिए, जिनके एक इंगित से सभी को बिना पल की देर लगाए सब कुछ छोड़ दिया, आज वही उनको छोड़कर सुदूर हिमालय की गहनताओं में तप करने के लिए जा रहे थे। यह विछोह बड़ा करुण था। विदाई के ये पल बड़े ही वेदनामय थे, पर इस करुण वेदना को हर हाल में सहना ही था। विश्वहित में अपने आराध्य की विदाई के इस महाविष को शांत भाव से पी जाने के अलावा और कोई चारा न था।

एक दिन प्रातः गुरुदेव हिमालय चले गए। जिस समय वह गए, उस समय माताजी को छोड़कर प्रायः अन्य सभी लोग सोए हुए थे। जगने पर माताजी ने सबको संभाला, दिलासा दी, सांत्वना दी। माताजी की आश्वस्ति पाकर सब अपने-अपने घर चले गए। केवल वही दो-तीन लोग बचे, जिन्हें विश्वजननी माताजी के साथ रहकर उनकी सेवा का सौभाग्य मिला था। उन्हीं के साथ माताजी अपने आराध्य का चिंतन करते हुए शांतिकुंज में अपने प्रारंभिक दिनों को गुजारने लगीं। उस समय का शांतिकुंज आज की तरह विस्तृत-व्यापक न था। बस यही दो-तीन कमरे बने थे, जहां आज अखण्ड दीप स्थापित है। पानी के लिए एक कुआं था। एक गाय थी, जिसके घी से परमपूज्य गुरुदेव की साधना से सिद्ध ज्योति दृश्य और अदृश्य को प्रकाशित करती थी। शांतिकुंज का समूचा वातावरण पुराणों में वर्णित प्राचीन तपस्वी ऋषियों के आश्रम की भांति था। तब यहां किसी का आना-जाना प्रायः नहीं ही होता था। बस मां की साधना ही यहां की समस्त गतिविधियों का केंद्र थी। उनकी इस साधना से ही समूचे गायत्री परिवार को प्राण व प्रकाश मिलता था।

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