महाशक्ति की लोकयात्रा

महाशक्ति में समाने का शिव संकल्प

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सूक्ष्मीकरण साधना के बाद से ही परमपूज्य गुरुदेव शांतिकुंज सहित संपूर्ण युग निर्माण मिशन को सर्वथा नए आयाम में पहुंचाने में जुटे थे। इसके लिए उन्होंने अपने लेखन, साधना आदि नियमित कार्यों के साथ कार्यकर्त्ताओं को तरह-तरह से प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था। सारे दिन एक के बाद एक गोष्ठियां चलती रहतीं। इन गोष्ठियों में वह भविष्य में होने वाले कार्यों का खुलासा करते, नई योजनाएं बनाते व समझाते। यह भी बताते कि उनके न रहने पर मिशन का किस तरह से विस्तार होगा। यह कैसे व किस ढंग से चलेगा। सारे कामों को करते हुए वह इन दिनों नई-नई पुस्तकों के रूप में क्रांतिधर्मी साहित्य का भी सृजन कर रहे थे। इस भावस्पर्शी साहित्य का सृजन, उनके नियमित लेखन से अलग था। इन वर्षों में गुरुदेव की समस्त गतिविधियां तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो चली थीं। इस उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तीव्रता को देखकर भक्ति-संवेदना से स्पंदित हृदयों को सहज ही अनुमान लगने लगा था कि भगवान शिव अपनी लोक लीला का संवरण करते हुए महासमाधि में लीन होने की तैयारी कर रहे हैं।

शक्तिस्वरूपा माताजी गुरुदेव के शिव संकल्प से अवगत थीं। उन्हें भली प्रकार मालूम था कि सत्य के मूर्तिमान स्वरूप गुरुदेव के संकल्प व योजनाएं कभी मिथ्या नहीं हो सकतीं। वह स्वयं भी उनकी योजनाओं के प्रति पूर्णतया समर्पित थीं। फिर भी उन्हें इतना कठिन रम करते हुए देखकर उनका मातृहृदय विकल हो उठता था। एक दिन इसी तरह गुरुदेव सुबह का लेखन एवं उसके बाद कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठियां लेने के बाद दोपहर में फिर से लिखने बैठ गए। लगातार विभिन्न कार्यों के साथ लेखन करते हुए उनकी आंखें लाल हो गईं। शरीर के कष्ट तो सभी को होते हैं, फिर वह चाहे अवतारी सत्ता ही क्यों न हो! उस दिन अत्यधिक एवं लगातार लेखन करने के कारण गुरुदेव की आंखें एकदम लाल दिखने लगी थीं। इसके बावजूद वे देह-बोध से रहित, परमहंस महायोगी की तरह शाम तक यथावत् लेखन करते रहे। शाम को जब माताजी अपने दिन के सारे कामों को निबटाकर नीचे से ऊपर पहुंचीं, तो उन्होंने गुरुदेव की इस दशा को देखा तो वह विह्वल हो गईं।

भाव-बिन्दुओं से भरी हुई आंखों के साथ उन्होंने गुरुदेव के सारे कागज समेटकर एक साथ एक जगह रखे। उन्हें अपने हाथों से एक गिलास पानी पिलाया और उनसे पूछने लगीं, आप इतना ज्यादा श्रम क्यों करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव कुछ देर तो चुप रहे, फिर थोड़ा मुस्कराते हुए बोले, ‘‘दरअसल हम अपने जाने के पहले मिशन की गाड़ी को खूब जोर का धक्का लगा देना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि यह धक्का इतनी जोर से लगे कि मिशन सैकड़ों सालों तक आराम से चलता रहे। इसमें कोई बाधा-व्यतिरेक न आए। अपने लड़के केवल इसमें बैठकर स्टियरिंग सम्हाले रहें। उन्हें कुछ खास न करना पड़े। सब कुछ अपने ही आप इत्मीनान से होता चला जाए।’’ उन दिन की इस बात से माताजी को नहीं गुरुदेव के अन्य निकटस्थ जनों को यह स्पष्ट आभास हो गया कि उनके भावमय भगवान् अपनी लोकलीला को पूरी तरह से समेट लेने के लिए संकल्पित हैं।

इस सत्य से अवगत माताजी इन दिनों मिशन के सामान्य काम-काज के साथ अपने घर-परिवार की भी जिम्मेदारियां निबटाने के लिए प्रयत्नशील थीं। उनकी सुपौत्री गुड़िया (मंदाकिनी) बड़ी हो चुकी थी। उसके लिए वह सुयोग्य वर की तलाश कर रही थीं। गुड़िया (मंदाकिनी) एवं चीनू (चिन्मय) ये दोनों बच्चे अपने छुटपन से माताजी के साथ रहे थे। इन्होंने प्रायः अपना सारा बचपन माताजी की गोद में और गुरुदेव के आस-पास खेलकर बिताया था। गुड़िया उनके शांतिकुंज आगमन के कुछ ही समय बाद मथुरा से उनके पास आ गई थी और चीनू का आना शैल दीदी एवं डॉ. साहब के साथ ही हुआ था। उन्होंने स्वयं के साथ अपने शिशु को भी माताजी एवं गुरुदेव को सौंप दिया था। इन बच्चों की सारी परवरिश माताजी की वात्सल्य छाया में ही हुई। इन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने व संस्कारवान बनाने का दायित्व उन्होंने स्वयं निभाया। बड़े होने पर गुड़िया के लिए वर की तलाश भी उन्होंने की। डॉ. साहब ने स्नेहशील अभिभावक की भांति इस कार्य में माताजी का हाथ बंटाया। अंततः वर्ष 1989 की माघ पूर्णिमा (20 फरवरी) के दिन गुड़िया (मंदाकिनी) सादगीपूर्ण किंतु भावप्रवण वातावरण में माताजी के गले लगकर अपनी ससुराल के लिए विदा हुई।

इसके बाद वर्ष 1989 के शेष महीनों में गुरुदेव के कार्यों की तीव्रता यथावत् बनी रही। इस वर्ष के अंत तक प्रायः संपूर्ण क्रांतिधर्मी साहित्य प्रकाश में आ गया। इन दिनों वह बात-चीत के क्रम में यह जता दिया करते थे कि वह सूक्ष्मजगत् के परिशोधन के लिए अब पूरी तरह से सूक्ष्मलोक में डेरा जमाएंगे। ऐसे ही वर्ष 1989 के अंतिम महीनों में एक दिन वह अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे। लेटे हुए बात-चीत के क्रम में उन्होंने कहा, ‘‘जैसे लोग अपना कुर्ता उतारते हैं, वैसे ही मैं यह स्थूल शरीर उतारकर फेंक  दूंगा।’’ यह जिज्ञासा करने पर कि इसके बाद फिर वह कहां रहेंगे? उत्तर में उन्होंने कहा, ‘‘और कहां? सारा काम करते हुए मैं एक अंश से माताजी के भीतर रहूंगा।’’ उनकी इन रहस्यमयी बातों में एक रहस्यपूर्ण सत्य था।

सन् 1990 की वसंत पंचमी के अवसर पर परम पूज्य गुरुदेव ने एक पत्रक लिखा ‘वसंत पंचमी के अवसर पर महाकाल का संदेश’। इस पत्रक में उन्होंने अपनी भावी क्रियाकलापों को स्पष्ट किया था। अपनी इसी योजना के अनुरूप वह वसंत पंचमी के दिन ही प्रणाम के बाद से पुनः परिपूर्ण एकान्त में चले गए।  अब वह अधिक दिन स्थूल देह में नहीं रहेंगे, यह अहसास प्रायः सभी संवेदनशील हृदयों को हो चला था। सभी विकल किंतु विवश थे। भावमयी माताजी का समर्पण अडिग था। गुरुदेव के भौतिक जीवन के प्रति भी अविरल एवं असीम अनुराग के होते हुए भी वह उनके संकल्प के प्रति समर्पित थीं। अपने आराध्य की इच्छा ही उनकी अपनी इच्छा थी। अपनी असह्य आंतरिक विकलता को किसी तरह दबाए हुए वह दैनिक काम-काज में संलग्न रहती थीं।

अप्रैल महीने के अंतिम दिनों में उन्होंने शांतिकुंज की गोष्ठी में गुरुदेव द्वारा किए गए स्थूल देह त्याग के शिव संकल्प को संकेतों में, पर स्पष्ट रीति से समझाया। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि गुरुदेव ने उनसे यह भी कहा है, ‘‘मेरे देह त्याग देने के बाद तुम सौभाग्य-सिंदूर का त्याग न करना।’’ माताजी ने यह बताते हुए स्पष्ट किया कि गुरुदेव ने मुझसे यह कहा है कि तुम ठीक उसी तरह से अपने सौभाग्य-सिंदूर को धार किए रहना जैसा कि पिछली बार तुमने सारदामणि के रूप में किया था। उसी तरह लड़ों की देख-भाल करती रहना। कुछ ही सालों में ये लड़के सक्षम हो जाएंगे, तब तुम भी देह का झंझट उतार फेंकना। माताजी की इन बातों को सुनकर सुनने वालों के दिल बिलख उठे। बैठे हुए लोगों में से कोई कुछ बोला नहीं। बस एक गहरी चुप्पी छाई रही। बस मुश्किल से कोई-कोई इतना सोच पाया कि लगता है गुरुदेव ने माताजी से सौभाग्य सिंदूर न त्यागने के लिए इस कारण कहा है कि कहीं महालक्ष्मी के सौभाग्य चिह्न त्याग देने से समूचा विश्व सौभाग्यहीन न हो जाए।

वह दिन बीता और उनके बाद कई दिन बीते। अपने द्वारा निश्चित की गई तिथि एवं निर्धारित किए गए समय के अनुसार गायत्री जयंती 2 जून, 1990 को प्रातः 8 बजे के लगभग गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया। उनकी अंतर्चेतना महाशक्ति में लीन हो गई। माताजी उस समय उन्हीं के द्वारा किए गए आदेश के अनुसार प्रवचन मंच पर थीं। संपूर्ण सत्य से अवगत होते हुए भी उन्होंने दिन के सभी कार्य पूर्णतः संतुलित रहकर निर्धारित क्रम के अनुसार पूरे किए। शाम को सूर्य अस्त होने से पहले महायोगी गुरुदेव की तपःपूत देह उनके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में अग्नि को समर्पित हुई। देह के भस्म होने के साथ अग्नि का तेज और ताप, पूज्य गुरुदेव के परम तेज के साथ वंदनीया माताजी में समा गया। वह अविचल भाव से अपने प्रभु से हुए भौतिक वियोग को सहते हुए महातप के लिए प्रवृत्त हुईं।

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