महाशक्ति की लोकयात्रा

शांतिकुंज का समग्र सूत्र-संचालन

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सूत्र-संचालिका के रूप में माताजी यद्यपि अपने शांतिकुंज आगमन के समय से ही क्रियाशील थीं, लेकिन गुरुदेव के हिमालय से वापस लौटने के बाद उन्होंने फिर से अपने आप को परोक्ष भूमिका में समेट लिया था। ऐसा करने के पीछे किसी तरह के अयोग्यताजन्य कारण नहीं थे, बल्कि वे श्रेय व यश-कामना विहीन, अपने गुरु-मार्गदर्शक और आराध्य के प्रति पूर्णतया समर्पित साधिका का आदर्श प्रस्तुत करना चाहती थीं। वे स्वयं जीकर अपने बच्चों को बताना चाहती थीं, सिखाना चाहती थीं। कि शिष्यत्व क्या होता है? शिष्य कैसा होता है? साधना में समर्पण का क्या महत्त्व है? सर्वेश्वरी मां के अतिरिक्त भला और कौन अपने बच्चों के लिए ऐसा त्यागमय, कष्टमय एवं आदर्शपूर्ण जीवन जिएगा। अध्यात्म-साधकों के लिए माताजी की वह जीवनशैली कितनी ही आदर्शनिष्ठ क्यों न हो, पर मिशन को उनके कुशल नेतृत्व की आवश्यकता थी। गुरुदेव की हिमालय से वापसी इसी शर्त पर हुई थी कि वे पूर्ण एकांत में सतत उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगों में संलग्न रहेंगे।

इसी के चलते गुरुदेव समय-समय पर माताजी को अकेले शांतिकुंज ही नहीं संपूर्ण मिशन के सूत्र-संचालन के लिए प्रशिक्षित एवं प्रोत्साहित करते रहते थे। शक्तिपीठों में आदिशक्ति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए जब वह प्रवास पर गए, तब उनका यह आग्रह काफी बढ़ गया। प्रवास के दौरान, वह माताजी को प्रतिदिन एक पत्र लिखकर अपने कार्यों का ब्योरा भेजा करते थे। डाक व्यवस्था में गड़बड़ी के कारण पहले के पत्र पीछे और पीछे के पत्र पहले पहुंच सकते हैं, यह सोचकर वह प्रत्येक पत्र में पत्र संख्या लिखना नहीं भूलते थे। प्रतिदिन लिखे जाने वाले ये पत्र अभी भी शांतिकुंज में सुरक्षित हैं। इन सभी पत्रों में यदि किसी भी एक सारतत्त्व की खोज की जाए तो वह यही है कि गुरुदेव, माताजी को मिशन के प्रत्यक्ष सूत्र-संचालन हेतु तैयार कर रहे थे। इन पत्रों की भाषा और शैली से बार-बर यही सत्य ध्वनित होता है कि माताजी सूत्र-संचालन का कार्यभार अपने समर्थ हाथों में लें।

शक्तिपीठों का प्रवास कार्यक्रम समाप्त होने के कुछ ही समय बाद गुरुदेव पर असुरता ने हमला कर दिया। यह घटना सन् 1984 के प्रारंभ की है। आसुरी शक्तियों ने अपने नीच गुणों के अनुरूप एक व्यक्ति को माध्यम बनाकर गुरुदेव पर आक्रमण किया। उस समय शांतिकुंज में कल्प साधना सत्र चल रहे थे। शिविर में भागीदार होने आए सभी परिजन अपने साधनात्मक कार्यक्रमों में व्यस्त थे। उन दिनों गुरुदेव सभी के लिए प्रायः सभी समय सर्वसुलभ भी हुआ करते थे। इसी का लाभ उठाकर वह दुष्ट व्यक्ति ऊपर गया और उसने उन पर प्राणघातक हमला किया। हालांकि गुरुदेव के समर्थ प्रतिरोध के कारण उसे बहुत ज्यादा सफलता न मिली और वह डर का भाग निकला। एक तरह से करुणामूर्ति गुरुदेव ने स्वयं ही उस कायर और डरपोक को भाग जाने का अवसर दिया। लेकिन इस घटना से एक बात तो साफ हो गई कि माध्यम कोई भी हो किंतु आसुरी शक्तियों का इतना साहस तो बढ़ ही गया कि देव शक्तियों के केंद्र शांतिकुंज में घुसकर देव शक्तियों के महानायक गुरुदेव पर हमला करने की हिम्मत जुटा सकती हैं।

यह एक चुनौती थी, जिसे गुरुदेव ने प्रसन्न भाव से स्वीकार किया और वे असुरता को समर्थ ढंग से उत्तर देने के लिए सूक्ष्मीकरण साधना में चले गए। परिपूर्ण एकांत में चलने वाली इस साधना का मकसद विश्व-वसुधा पर छाते जा रहे आसुरी आतंक को निरस्त करना था। साथ ही तीसरे विश्वयुद्ध की उन भयावह संभावनाओं को समाप्त करना था, जिसकी भविष्यवाणी एक अरसे से दुनिया भर के सभी भविष्यवक्ता करते चले आ रहे थे। सन् 1984 की रामनवमी को इस तरह योजनाबद्ध रीति से गुरुदेव के एकांत में चले जाने के बाद मिशन के सूत्र-संचालन का सारा दायित्व माताजी पर आ गया। इस दायित्व के साथ एक अन्य गुरुतर दायित्व भी उन पर था। वह गुरुदेव द्वारा की जाने वाली अत्यंत दुष्कर एवं दुरूह सूक्ष्मीकरण साधना में वह उनकी समर्थ सहयोगिनी भी थीं। गुरुदेव इन दिनों जिस सूक्ष्मीकरण साधना को कर रहे थे वह योग और तंत्र का मिला-जुला अत्यंत उच्चस्तरीय और गोपनीय प्रयोग था। इसकी दुरूहता और दुष्करता को इसी सत्य से समझा जा सकता है कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के बाद से सृष्टि के आध्यात्मिक इतिहास में किसी ने भी इसे करने की हिम्मत नहीं जुटाई थी। इसी से सोचा जा सकता है कि इसके महानुष्ठान को करने वाले और इस कार्य में उनका समर्थ सहयोगी बनने वाले में कितनी असाधारण आध्यात्मिक योग्यता और साधनात्मक समर्थता की आवश्यकता थी।

इस कार्य के लिए गुरुदेव की चौथी बार हिमालय यात्रा करनी पड़ी, लेकिन इस बार की यात्रा उन्होंने सूक्ष्म-शरीर से की। इस दौरान माताजी ने अपनी समर्थ साधना शक्ति से गुरुदेव के स्थूल शरीर की आसुरी प्रकोपों से रक्षा की। इस हिमालय यात्रा में गुरुदेव को उनके द्वारा की जाने वाले अलौकिक साधना का विधि-विधान बताया गया। विश्वहित में इसके अत्यंत प्रभावकारी परिणाम बताने के साथ साधना के लिए आवश्यक सावधानियां भी गिनाई गईं। यह भी कहा गया कि साधना काल में आसुरी शक्तियां तरह-तरह से उपद्रव मचाने में, हर तरह के विघ्न पहुंचाने में कोई कसर नहीं उठा रखेंगी। इन विघ्नों और उपद्रवों के अलावा स्वयं की सूक्ष्म चेतना को पांच समर्थ स्वरूप प्रदान करने की इस प्रक्रिया में अस्तित्व में इतने तरह के शक्ति-विस्फोट होंगे कि कभी भी स्थूल देह छूटने का खतरा बना रहेगा। ऐसी स्थिति में स्थूल देह की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए किसी समर्थ शक्ति का स्थूल रूप से दिव्य संरक्षण जरूरी है। यह कार्य केवल और केवल माताजी कर सकती हैं। शक्तिस्वरूपा माताजी परम समर्थ और सभी के लिए, यहां तक कि हम सब हिमालयवासी ऋषिगणों के लिए भी परमवंदनीया हैं। उन्हीं के संरक्षण में यह साधना सफल हो सकती है।

मार्गदर्शक सत्ता एवं हिमालयवासी ऋषि सत्ताओं के सम्मिलित निर्देशन के अनुरूप परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्मीकरण साधना का कार्यक्रम बनाया। परमवंदनीया माताजी पर  दोहरी जिम्मेदारी आ पड़ी। रात्रि में गुरुदेव की साधना में समर्थ सहयोग करते हुए, पूरे दिन उन्हें मिशन के सभी काम-काज की देखभाल करनी थी, सभी तरह की व्यवस्था के लिए मार्गदर्शन देना था। छोटे-बड़े सभी लोगों की प्रत्येक बात को ध्यान से सुनकर निर्णय देना था। छोटे-बड़े सभी लोगों की प्रत्येक बात को ध्यान से सुनकर निर्णय देना था। क्षेत्र में कार्यरत कार्यकर्त्ताओं की समस्याओं के हल निकालने थे। इन सारे कामों के साथ कष्ट और पीड़ा में पड़े अपने उन बच्चों का भी ध्यान रखना था, जो अपनी प्यारी मां के अलावा और कुछ जानते ही नहीं। जब-तब किसी भी छोटी-मोटी आफत-मुसीबत आने पर मां-मां चिल्लाने लगते हैं। उन्हें उनकी भी देखभाल करनी थी, जो गुरुदेव से भांति-भांति की आशाएं लगाए रहे हैं। इन नादानों को तो यह पता भी नहीं था कि गुरुदेव इस समय गहन साधना में हैं। इस समय उनकी एकाग्रता में व्यवधान डालना किसी भी तरह से ठीक नहीं है।

परम समर्थ और परमवंदनीया माताजी ने एक साथ ये सारी जिम्मेदारियां निभाई और बड़ी खूबसूरती से निभाई। सदा एकांत में रहने वाली माताजी को जब लोगों ने 1984 में पहली बार टोलियों की विदाई के समय प्रवचन मंच पर बोलते हुए सुना तो वे हतप्रभ रह गए। अविरल प्रवाहित हो रही वाणी एवं अद्भुत व भावपूर्ण शब्द संयोजन से अभिव्यक्त होती उनकी आध्यात्मिक शक्तिधारा ने सभी को विस्मय-विमुग्ध तथा उल्लास से सराबोर कर दिया। सभी के मन परमवंदनीया माताजी की जय-ध्वनि करते हुए नाच उठे। इसी समय एक  दूसरी सचाई और भी उजागर हुई क्षेत्र से आने वाले कार्यकर्त्ता जब माताजी से इस दौरान मिले तो अंतर्यामी मां ने खुलकर उन्हें अपनी योगशक्ति का परिचय दिया। पहले वे सदा अपने को गोपन रखती थीं। किसी के द्वारा कोई समस्या बताने पर वे प्रायः यह कहती थीं कि बेटा! तुम गुरुदेव से मिल लो। उन्हें अपनी सारी बातें बता दो, मैं भी उनसे तुम्हारी बात कह दूंगी।

लेकिन इस बार तो सभी को स्थिति एकदम बदली हुई लगी। मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने अनुभव किया कि उनकी अपनी मां ने सारा सूत्र-संचालन अपने हाथों में ले लिया है और मां जब सूत्र संचालिका होती है तो वह कोई प्रशासिका एवं व्यवस्थापिका नहीं होती। वह तो व्यवस्था और प्रशासन के माध्यम से भी दोनों हाथों से अपने मातृत्व को, अपने वात्सल्य को लुटाती है। परमवंदनीया माताजी तो मिशन की व्यवस्था एवं प्रशासन की सामान्य लौकिक शक्तियों के साथ अपनी उच्चस्तरीय आध्यात्मिक शक्तियों को लुटाने लगी थीं। सभी पर उनके आशीष बरसने लगे थे। सर्वेश्वरी अपनी समस्त संतानों पर अतिशय कृपालु हो उठी थीं। समस्त सूत्र-संचालन में उनका मातृभाव छा गया था। वे अपने आंचल से आशीषों की वृष्टि कर रही थीं।

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