महाशक्ति की लोकयात्रा

दिव्य ज्योति के अवतरण की वेला

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दिव्य ज्योति के जन्म की शुभ घड़ी समीप आने लगी थी। मातृतत्त्व मानवीय रूप और साकार ले रहा था। आदिशक्ति के युगशक्ति के रूप में अवतरण का संकल्प सूक्ष्म जगत् में मुखरित हो चला था। सांवरिया बोहरे समुदाय (आगरा) के पं. जसवंतराव शर्मा के परिवार में इसके स्पंदन तीव्रगति से संघनित होने लगे थे। घर के वातावरण में दिव्यता की कुछ अलग-सी तरंगें हर क्षण तरंगित होती रहतीं। एक अलौकिक महक मकान के कोने, चौबारे व आंगन में रह-रहकर सघन हो उठती। परिवार के सभी सदस्यों के मन, अंतःकरण में उल्लास उमगता रहता। एक अनजानी खुशी हर एक को घेरे थी।

पिछले कुछ महीनों से होने वाले इन परिवर्तनों को सबसे पहले जसवंतराव ने महसूस किया। जसवंतराव बड़े ही सीधे-सरल स्वभाव वाले आध्यात्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। उनकी सहधर्मिणी रामप्यारी शर्मा पति के अनुरूप जीवनयापन करने वाली भक्तिमती महिला थीं। उनकी कोमलता व सेवापरायणता की घर-परिवार के लोग, स्वजन-संबंधी और कुटुंबी बड़ाई करते नहीं अघाते थे। आस-पड़ोस की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं बात-बात में उनका उदाहरण दिया करती थीं। जब-तब वे आपस की चर्चाओं में कहा करतीं, ‘‘देखो, जसवंतराव की बहू को, घर-परिवार और बच्चों को कितनी अच्छी तरह से संभालती है और फिर पूजा-पाठ और जप-तप भी कितना करती है।’’प्रशंसा के इन स्वरों में यथार्थ की सार्थकता थी।

इस ब्राह्मण दंपत्ति के पुण्य चरित्र और तपपरायणता को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो ये प्राचीनकाल के ‘सुतपा और पृश्नि’ हैं। माता भगवती की उपासना-आराधना दोनों को ही परमप्रिय थी। जसवंतराव नित्य-नियम से देवी सप्तशती का संपूर्ण पाठ किया करते थे। उनका घर-आंगन प्रतिदिन जगन्माता के महिमागान से मुखरित होता था। सप्तशती के संपूर्ण पाठ के साथ गायत्री मंत्र एवं नवार्ण मंत्र पर उनकी गहन आस्था थी। ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चै’ का जप करते हुए वह भावलीन हो जाते थे। देवी सप्तशती के पाठ के समय प्रायः रोज ही उनकी आंखों से भावबिंदु झरने लगते। यदा-कदा रामप्यारी अपने पति से उनके इन भावाश्रुओं के बारे में पूछ लेती। प्रश्न के उत्तर में वह गद्गद हो कहते, जब मैं पाठ करता हूं, तब मुझे लगता है कि मां छोटी बालिका के रूप में मेरे पास बैठी है। मंत्र जप करते समय भी ऐसा ही लगता है। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि छोटी बालिका के रूप में ‘मां’ मेरी गोद में आकर बैठ गई है।

पति की इन बातों को सुनकर रामप्यारी भावमग्न हो जाती। उन्हें इस तरह चुप बैठा हुआ देखकर जसवंतराव पूछ बैठते, ‘‘तुम चुप क्यों हो गईं?’’ एक-दो बार पूछने पर वह धीरे से कहतीं, ‘‘आजकल मुझे भी बड़े विचित्र सपने आने लगते हैं। अभी एक-दो दिन पहले ही मैंने अपना देखा कि मैं हिमालय पर हूं। श्वेत-शुभ्र हिम शिखर बड़े ही भव्य लग रहे थे। तभी उन हिम शिखरों पर एक देवी प्रकट हुई। सचमुच ही देवी थी वो। धीरे-धीरे वो छोटी-सी लड़की बनकर मेरा हाथ पकड़कर बोली, ‘मां, मैं तुम्हारे घर आने वाली हूं।’ एक सपना तो मैंने आज ही देखा, सपने में छोटी-छोटी आठ लड़कियां एक बड़ी प्यारी-सी लड़की को अपने साथ लेकर मेरे पास आई हैं और मुझसे कह रही हैं, हम सब इसको तुम्हें देने आई हैं। आज से तुम ही इसकी मां हो, साथ ही हमारी मां भी हो, क्योंकि हम सब तो इसी की अंश हैं।’’

पत्नी की इन बातों को सुनकर जसवंतराव कुछ पलों के लिए अंतर्लीन हो गए। उन्हें पत्नी के गर्भवती होने की बात पता थी, परंतु ये स्वप्न उन्हें गर्भ की दिव्यता के सूचक लग रहे थे। घर के वातावरण में भी आध्यात्मिक बदलाव के चिह्नों को वे काफी दिनों से अनुभव कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि उनके जीवन में कोई दिव्य घटना घटित होने वाली है। उन्हें इस तरह सोच में डूबा हुआ देख रामप्यारी बोलीं, तुम चुप क्यों हो? कुछ कहते क्यों नहीं? पत्नी के इन प्रश्नों से उनके चिंतन की कड़ियां झंकार के साथ बिखर गईं। वह अपने भावों से उबरते हुए रामप्यारी से बोले, ‘‘मुझे लगता है, इस बार माता भगवती जगदंबिका स्वयं हम पर, तुम पर, अपने पूरे परिवार पर कृपा करने के लिए अवतीर्ण हो रही हैं।’’

जसवंतराव की इन बातों को सुनकर रामप्यारी भाव-विह्वल हो गईं। उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने मन-ही-मन आदिमाता जगदंबा को प्रणाम किया और उठ खड़ी हुईं। अभी उन्हें घर के काफी काम करने थे, लेकिन आज वह घर के काम को करते हुए महसूस कर रही थीं कि उनके भीतर एक अद्भुत आनंद-धारा मंदगति से बह रही है। इससे उनका रोम-रोम, अस्तित्व का अणु-अणु भीग रहा है। काम करते हुए बीच-बीच में उन्होंने अपने दोनों बेटों दीनदयाल एवं सुनहरी लाल और बेटी ओमवती को भरपूर प्यार किया। शायद वह अपने भीतर उमड़ती-उफनती आनंद-सरिता के प्रवाह को अपने बच्चों में भी उड़ेलना चाहती थीं।

रात को सोते समय दिव्य भावानुभूतियों ने उन्हें फिर घेर लिया। उन्हें लगा कि दिव्य लोकों के देवगण, देवियां, सूक्ष्मशरीरधारी ऋषि और सिद्धजन उनके गर्भ पर पुष्पवृष्टि कर रहे हैं। अब यह किसी एक दिन की बात नहीं, नित्य का क्रम हो गया था। गर्भ की अवधि ज्यों–ज्यों पूर्णता की ओर बढ़ रही थी, ये भावानुभूतियां भी उत्तरोत्तर सघन होती जा रही थीं। उनके प्राणों में पुलक बढ़ती जा रही थी। उनकी निर्मल अंतर्चेतना और अधिक उज्ज्वल दीप्ति से प्रकाशित होती जा रही थी।

कालचक्र की बढ़ती गति के साथ वह दिव्य मुहूर्त आ गया, जिसे देवों और ऋषियों ने निश्चित किया था, जिसकी प्रतीक्षा जसवंतराव एवं रामप्यारी को ही नहीं, संपूर्ण विश्व मानवता को थी। आश्विन कृष्ण तृतीया संवत् 1982, 20 सितंबर 1926 ई. की प्रातः 8 बजे के लगभग दिव्य ज्योति ने जन्म ले लिया। पं. जसवंतराव शर्मा उस समय देवी के नवार्ण मंत्र का जप कर रहे थे। उनके ध्यान में माता की छवि प्रत्यक्ष थी। उनके हृदय की गहराइयों में उपस्थित आदिमाता उन्हें आशीष दें रही थी। तभी उनके कानों में किसी वृद्ध महिला के ये शब्द सुनाई पड़े कि लेडी लायल अस्पताल में ठीक आठ बजे कन्या जन्मी है, लेकिन आश्चर्य, अस्पताल के इस समाचार के साथ उनके हृदय में कुछ और भी गूंज उठा।

उन्होंने बड़ी ही स्पष्ट रीति से अपने हृदय में श्री देव्यथर्वशीर्षम् की यह मंत्र ध्वनि सुनी, ‘अहमानन्दान्दौ अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्माणी वेदितव्ये । अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।’ ‘‘मैं आनंद और आनंदरूपा हूं। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूं। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूं। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूं। यह सारा दृश्य जगत् मैं ही हूं।’’ इस स्पष्ट मंत्र ध्वनि को अपनी अंतर्चेतना में सुनकर जसवंतराव को यह साफ हो गया कि आदिमाता ने आगमन के साथ ही उन्हें अपना परिचय दे दिया है। वह आदिमाता को प्रणाम करके पूजा के आसन से उठे और कपड़े बदलकर लेड़ी लायल अस्पताल की ओर चल पड़े। उन्हें अपने ज्योतिष ज्ञान की भी सार्थकता सिद्ध करनी थी।

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