पिता का ज्योतिष ज्ञान पुत्री को गोद में लेते ही सार्थक हो गया। उन्होंने कन्या के जन्म मुहूर्त पर मन-ही-मन विचार किया। होरा, लग्न, ग्रहों की युति और उनकी भावदशा के बारे में गणनाएं कीं और उनके चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं झिलमिला उठीं। ज्योतिष की गणनाएं एक के बाद एक उन्हीं तथ्यों की ओर संकेत कर रहीं थीं, जिनका अहसास उन्हें अपनी ध्यानस्थ चेतना में हुआ था। साधनाकाल में और ज्योतिष विद्या का गहन अवलोकन करते समय उन्हें बार-बार इस तथ्य की अनुभूति होती थी कि सन् 1926 ई. महान आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण का वर्ष है, परंतु कैसे और किस तरह? इन प्रश्नों के हल वे नहीं खोज पा रहे थे।
यद्यपि उनकी साधनात्मक एवं ज्योतिषीय अनुभूतियों का इतिहास साक्षी बन रहा था। इस वर्ष की वसंत पंचमी को विश्व की महानतम आध्यात्मिक घटना घट चुकी थी। परमपूज्य गुरुदेव (पंद्रह वर्षीय श्रीराम) ने अपने हिमालयवासी महागुरुदेव के मार्गदर्शन में अखंड साधना दीप प्रज्वलित किया था। उनकी चौबीस वर्षीय चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों की शृंखला इसी वर्ष प्रारंभ हुई थी। इसके अतिरिक्त श्रीअरविंद आश्रम पांडिचेरी में महायोगी अरविंद पूर्णयोग की विशेष सिद्धि को अवतरण करने की सफलता प्राप्त कर रहे थे। इस वर्ष के अंतिम महीनों में ही अतिमानसिक चेतना धरती पर अवतरित हुई थी और महायोगी अरविंद अतिमानसिक चेतना के अवतरण के लिए परिपूर्ण एकांत में चले गए थे।
जिस आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण के साक्षी आज जसवंतराव थे, वह उपर्युक्त दोनों ही घटनाओं से कहीं अधिक विशिष्ट थी, क्योंकि इसमें आध्यात्मिक महाशक्ति ने स्वयं ही स्थूल देह धारण करके अवतार लिया था। आदिमाता स्वयं ही अपनी लीलाभूमि में आविर्भूत हुई थी। नीलगगन में सूर्यदेव बड़े ही सुखद आश्चर्य से इस दृश्य को निहार रहे थे। उन्हें अपनी शत-सहस्र किरणों से सद्यः अवतरित जगदंबा के अर्चन-वंदन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा था। समूचे वातावरण में आज एक स्निग्ध शांति, शीतलता, और मधुर सुवास व्याप्त हो रही थी। धरती का यह छोटा-सा कोना तीर्थभूमि बन गया था। यहां एक ही पल में अनेक परिवर्तन घटित हो गए थे।
जसवंतराव की भावभूमि अपरिवर्तित थी। वह तो बस सुरभि-भरी कुसुम-कलिका की भांति कमनीय कांति को बिखेरती अपनी कन्या को गोद में लिए बस देखे जा रहे थे। यदि पड़ोस की महिला उन्हें न टोकती, तो वह न जाने कब तक यों ही खोये रहते। ऐसा क्या है इस लड़की में, जो तब से देखे जा रहे हैं? उसके इस तरह पूछने पर उनकी भाव-समाधि भंग हुई और वे बड़े ही हर्षित स्वर में बोले, यह लड़की बहुत ही भगवती है। यह हजारों-हजार लोगों को भरपेट खाना खिलाएगी, फिर थोड़ी देर में कुछ सोचते हुए कहने लगे, यह तो सभी के भाग्य को बनाने वाली भगवती है।
पड़ोस की महिला को उनकी ये गूढ़ बातें कुछ भी समझ में न आईं। वह तो बस लोक-प्रचलन के अनुसार इतना भर जानती थी कि लड़का होना अच्छा होता है और लड़की होना बुरा। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि जसवंतराव घर में लड़की होने पर इतना खुश क्यों हो रहे हैं। उनकी बातों से उसे केवल इतना समझ में आया कि उन्होंने अपनी पुत्री का नाम ‘भगवती’ रखा है। उसने कन्या को उनकी गोद से लेकर लेडी लायल अस्पताल के एक कक्ष में विश्राम कर रही मां के पास लिटा दिया। इस नाम के स्वर कन्या की मां के कानों में भी पड़े। उन्होंने बड़े ही लाड़ से अपनी बेटी की ओर निहारा। सदा हंसमुख, लीला-चंचल उस नन्ही-सी बालिका के सस्मित नेत्रों में जैसे कोई सम्मोहिनी शक्ति थी, जिसे देखकर वह बरबस सोचने लगीं, अहा! कितनी सुंदर आंखें हैं, मानो देवी के नेत्र हैं! मेरी यह बेटी सचमुच ही माता भगवती है। माता के ममत्व एवं पिता के स्नेहमय लालन में भगवती शशिकला की भांति दिनोदिन बढ़ने लगी। स्वजनों के साथ उसका बचपन बीतने लगा।