प्रत्यावर्तित हो रहे प्राणों से माताजी और गुरुदेव के बीच भाव-संदेशों का आदान-प्रदान होता रहता था। शुभ्र-धवल हिमशिखरों वाले हिमालय की गहनताओं में तपोलीन गुरुदेव और हरिद्वार की दिव्य साधना स्थली शांतिकुंज में साधनालीन माताजी एक-दूसरे की परिस्थिति एवं भावदशा को अपने हृदय की गहराइयों में सतत अनुभव करते थे। दोनों के कर्त्तव्य कठोर थे, दोनों की साधना दुर्धर्ष थी। माताजी, गायत्री परिवार के अपने बच्चों को प्यार-दुलार देने, उनकी कष्ट-कठिनाइयों में भागीदार होने के साथ शांतिकुंज के भविष्यत् के लिए आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षय कोष जुटाने में जुटी थीं। गुरुदेव इन दिनों उन आसुरी शक्तियों को प्रचंड टक्कर देने में जुटे थे, जो पड़ोसी देश की कुटिल गतिविधियों का बाना पहनकर अपने देश पर चढ़ आई थीं।
सन् 1971 की सर्दियों की शुरुआत देश पर काफी भारी पड़ रही थी। फौजें सरहदों पर अलग-अलग मोरचों में दुश्मन से जूझ रही थीं। पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे अमानवीय अत्याचारों के कारण पलायन कर भारत भागे आ रहे शरणार्थियों की समुचित सहायता करने के लिए देश के बहादुर सिपाही प्रतिबद्ध थे। समूचे राष्ट्र के लिए यह बड़ा कठिन दौर था। समस्याओं के इस जटिल चक्रव्यूह के अनेक चक्र थे। राष्ट्र के कर्णधारों को कूटनीतिक मोरचे पर घेरने की कोशिश हो रही थी। आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली कहा जाने वाला देश उन दिनों दुश्मन को हर तरह से सहायता पहुंचाने में जुटा था। यहां तक कि उसका सर्वशक्तिमान समझा जाने वाला सातवां बेड़ा भी बढ़ा चला आ रहा था। छोटे-बड़े जो भी उस समय युद्ध की खबरों को सुनते थे, आपस में यही पूछते और सोचते थे, अब क्या होगा?
अचानक घटनाचक्रों में कुछ ऐसे चमत्कारी परिवर्तन हुए कि बाजी एकदम पलट गई। नया इतिहास नहीं, नया भूगोल भी रचा गया। दुनिया के इतिहास में शायद पहली बार तिरानवे हजार हथियारबंद सेना ने अपने जनरल के साथ घुटने टेककर आत्मसमर्पण किया। विश्व के नक्शे में नई लकीरें खिंची, भूगोल में एक नए देश के मानचित्र ने आकार लिया। भारत ने विजय दिवस मनाया और बांग्लादेश ने अपना जन्मदिवस। देश के कर्णधारों से लेकर सामान्य नागरिक तक ने अनुभव किया कि यह तो सब कुछ चमत्कार जैसा हो गया। कैसे लौटा सातवां बेड़ा? कैसे किया दुश्मन की इतनी बड़ी फौज ने आत्मसमर्पण? इन सवालों का जवाब सामान्य बुद्धि खोजने में असमर्थ थी। बस सभी ने यही कहा कि यह तो भारत की आध्यात्मिक दिव्य शक्तियों का चमत्कार है।
जिन दिनों यह सब हुआ, उन्हीं दिनों एक परिजन डॉ. अमल कुमार दत्ता जो अब शांतिकुंज के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं और ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में रहते हैं, माताजी से मिलने आए। मिलने पर उन्होंने माताजी से कहा, ‘‘माताजी! आपने सुना, भारत ने युद्ध जीत लिया।’’ उत्तर में माताजी बड़े धीरे से बोलीं, ‘‘हां बेटा, सुन भी लिया और देख भी लिया।’’ परिजन को थोड़ा अचरज हुआ कि यह सुनना तो ठीक है, पर देखने का क्या मतलब है? उन्होंने माताजी से सारी बात का खुलासा करने की जिद की। उनकी इस जिद पर वह कहने लगीं, ‘‘अभी जो यह लड़ाई हुई, वह दो तरह से लड़ी गई। एक तो अपनी फौजों ने मोरचे पर जांबाजी दिखाई। फौजों की इस बहादुरी की जितनी सराहना की जाए, कम है। लेकिन इस लड़ाई में हिमालय की ऋषि सत्ताओं ने भी जबरदस्त और प्रचंड रूप से हिस्सा लिया। इसमें गुरुदेव की मुख्य भूमिका रही। उन्होंने अपनी तपःशक्ति से दुश्मन की षड्यंत्रकारी योजनाओं को तार-तार करके रख दिया। मैंने यह सब प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा।’’
उन दिनों के अनेक संस्मरणों में एक संस्मरण और है, जिसे बाद में माताजी ने स्वयं अपने मुख से बताया। इस संस्मरण से ममतामयी मां का वात्सल्य प्रकट होता है। उन्होंने बातचीत के क्रम में अपनी यादों को कुरेदते हुए कहा, ‘‘जब गुरुजी 1971 में हिमालय गए थे, तब उम्मीद यही थी कि अब वे शायद न लौटें। बांग्लादेश वाली लड़ाई के बाद उनकी योजना भी कुछ ऐसी ही थी। पर इधर सारे लोग परेशान थे। गुरुजी कब लौटेंगे? जो भी चिट्ठी लिखता, वह यही सवाल करता, गुरुजी कब वापस लौटेंगे, हम सब से कब मिलेंगे? बच्चों की इस विकलता ने मुझे बड़ा बेचैन और विकल कर दिया। अपने कष्ट की तो मुझे कभी चिंता नहीं होती है, फिर वह चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, पर अपने बालकों के कष्ट मुझसे सहे नहीं जाते। उन्हें दुःखी-परेशान होते मैं नहीं देख सकती। आखिर मां हूं न। बच्चों की इस परेशानी के कारण मेरी बेचैनी इतनी बढ़ गई कि गुरुजी से प्रार्थना करते हुए मेरी चीख निकल गई। इस चीख के कारण कुछ लोगों ने समझ लिया कि माताजी बीमार हैं। हालांकि गुरुजी ने सही बात समझी और वे वापस आ गए। उन्होंने मेरी प्रार्थना को स्वीकार करके अपनी योजना परिवर्तित कर ली।’’
वापस आने के बाद गुरुदेव सबसे पहले सुदूर वास करने वाले प्रवासी परिजनों की पुकार का उत्तर देने के लिए अफ्रीका गए। सन् 1972 में गुरुदेव ने अपनी यह यात्रा पानी वाले जहाज से संपन्न की। उनका यह प्रवास ऊपरी तौर पर साधारण रहने पर भी आंतरिक रूप से कई असाधारण अनुभूतियों से भरा रहा। वहां से लौटने पर उन्होंने सन् 1973 में पांच दिवसीय प्राण प्रत्यावर्तन सत्र आयोजित किए। शांतिकुंज में आयोजित होने वाले यह सबसे पहले साधना सत्र थे। इसमें देशभर के परिजनों ने भाग लिया और अपने प्राणों के प्रत्यावर्तन की अनुभूति प्राप्त की। इन परिजनों में से अनेक आज शांतिकुंज और ब्रह्मवर्चस में वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं, जो शांतिकुंज में आकर नहीं भी रह सके, वे भी अपने-अपने क्षेत्र में जी-जाल से मिशन की गतिविधियों में जुटे हैं।
प्राणों का यह प्रत्यावर्तन सब तरह से अनूठा था। इसमें पांच दिनों के एकांतवास में साधकगण गुरुदेव द्वारा बताई गई कई तरह की सरल, किंतु प्रभावकारी साधनाएं करते थे। इन साधनाओं का उद्देश्य साधकों के प्राणों को उच्चस्तरीय आध्यात्मिक तत्त्वों के लिए ग्रहणशील बनाना था, ताकि वे गुरुदेव के महाप्राण के किसी लघु अंश को ग्रहणशील बनाना था, ताकि वे गुरुदेव के महाप्राण के किसी लघु अंश को ग्रहण व धारण करने में समर्थ हो सकें। साधना की इस अवधि में प्रत्येक साधक को गुरुदेव के संग-सुपास व चर्चा-परामर्श का भरपूर मौका मिलता था। इस साधना में साधकों को भोजन व औषधि कल्प के माध्यम से माताजी की प्राण-सुधा पीने की मिलती थी। वे अपने बच्चों को इन्हीं माध्यमों से अपने तप का महत्त्वपूर्ण अंश देकर अनुग्रहीत करती थीं।
इन प्रत्यावर्तन शिविरों से लेकर लगभग एक दशक की अवधि तक शांतिकुंज में अनेक तरह के साधना सत्रों का आयोजन-संचालन हुआ। इनमें भागीदारी करने वाले देशभर के हजारों साधकों ने परमपूज्य गुरुदेव के साथ माताजी की तपःशक्ति और योग विभूतियों का साक्षात्कार किया। ये सभी सर्वसिद्धिदात्री मां द्वारा किए गए विविध-विध अनुदानों से लाभान्वित हुए। यह अवधि शांतिकुंज के स्वर्णिम कालों में से एक थी। इसी अवधि 1978 में माताजी को सहयोग देने के लिए शैल दीदी एवं डॉ. प्रणव पंड्या का आगमन हुआ। अध्यात्म के वैज्ञानिक आयाम को प्रतिष्ठित करने के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना हुई। इसी के साथ आदिशक्ति जगदंबा को युगशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए परमपूज्य गुरुदेव ने एक नया अभियान छेड़ा। यह इस सत्य का उद्घोष था कि युगनिर्माण मिशन की सूत्र-संचालिका आदिशक्ति स्वयं हैं। इस अभियान को गति देने के लिए गुरुदेव ने स्वयं देशभर की यात्राएं कीं। पहले चरण में संपूर्ण देश के चुने हुए पवित्र तीर्थ स्थानों पर चौबीस शक्तिपीठ स्थापित हुए। बाद में इनकी संख्या बढ़ती गई। गुरुदेव के इस प्रवासकाल में माताजी ने मिशन और शांतिकुंज की सूत्र संचालिका होने का दायित्व संभाला।