महाशक्ति की लोकयात्रा

सिद्धिदात्री मां की प्रगाढ़ होती साधना

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परमपूज्य गुरुदेव के हिमालय प्रस्थान के बाद माताजी के संपूर्ण जीवन में तप की सघनता छा गई। इस तप की ऊर्जा के स्पंदनों से शांतिकुंज का कण-कण अलौकिक दिव्यता से उद्भासित हो गया। भगवान महाशिव की भांति गुरुदेव हिमालय की गहनताओं में अपनी आत्मचेतना के कैलाश शिखर पर तपोलीन थे। शांतिकुंज की दिव्य भूमि में भगवती आदिशक्ति की भांति माताजी अपनी अंशभूता शक्तियों के साथ साधनालीन थीं। धन्य हैं वे लोग, जिन्होंने उन दिनों कुछ क्षणों के लिए ही सही, शांतिकुंज में आकर अथवा रहकर माताजी को निहारा, उनके साथ कुछ पल अथवा दिन बिताए। बड़भागी वे भी हैं, जो अपनी भावनाओं की गहराइयों में इन पलों में उस अलौकिकता का साक्षात्कार कर रहे हैं।

सचमुच ही वह सब अलौकिक था, आज के दिनों में तो लगभग अकल्पनीय। तब शांतिकुंज के आस-पास कहीं भी मनुष्यों की भीड़ और वाहनों, मोटरगाड़ियों का जमघट नहीं दिखाई देता था। सब ओर एक गहरी आध्यात्मिक शांति पसरी रहती थी। शांतिकुंज के अंदर भी आज जैसे भवनों का विस्तार और कार्यकर्त्ताओं की भारी संख्या जैसी कोई चीज न थी। बस मुश्किल से तीन कार्यकर्त्ता थे। शारदा एवं रुक्मिणी नाम की दो महिलाएं भोजन आदि में सहयोग देने के लिए थीं। इस शुरुआती दौर में माताजी के साथ रहने वाली छह बालिकाएं भी थीं। जिनकी संख्या बाद में बढ़कर बारह हो गई थी। इनकी पवित्रता, सरलता और गायत्री साधना के प्रति इनके समर्पित भाव को देखकर ऐसा लगता था जैसे माताजी ने स्वयं अपनी प्राणशक्ति को विभाजित कर ये कौमारी स्वरूप बना रखे हैं। इन बालिकाओं के पठन-पाठन, खान-पान, सार-संभाल आदि की सारी व्यवस्था वे स्वयं करती थीं। ये बालिकाएं उनके निर्देशन में अपने दैनिक काम-काज के अलावा अखण्ड दीप की सिद्ध ज्योति के सान्निध्य में साधना करती थीं।

तीन-चार कमरों वाला यह शांतिकुंज एक नजर में ही प्राचीन ऋषियों का तपोवन लगता था, मन को सहज ही भाने वाली हरियाली, हरे-भरे कुंजों की छाया, कुछ थोड़े से ही सही, पर फलदार और छायादार पेड़ सब मिलकर यहां के वातावरण में बड़े ही निर्मल सौंदर्य की सृष्टि करते थे। शोर जैसी कोई चीज यहां थी ही नहीं। आवाजों के नाम पर या तो कभी माताजी के सान्निध्य में रहने वाली बालिकाओं की हल्की-सी मृदु-मंद हंसी बिखर जाती, अथवा फिर जब-तब गाय रंभा देती, लेकिन ये सब भी वातावरण की शांति में मधुरता ही घोलते थे। तब दिन में भी सुनाई देने वाली मां गंगा के प्रवाह की कल-कल ध्वनि आश्रम के वातावरण को स्वर्गीय संगीत से मधुमय बनाती थी। आगंतुक प्रायः नहीं थे। यदा-कदा महीनों में कोई एक-आध व्यक्ति आ जाए, तो बहुत। आश्रम में माताजी व यहां के थोड़े-से निवासियों के लिए रोजमर्रा की चीजों जैसे सब्जी-तरकारी आदि की व्यवस्था कार्यकर्त्ता हरिद्वार शहर अथवा ज्वालापुर जाकर करते थे। यह जाना भी प्रायः पैदल ही होता था। हां कभी-कभी थोड़ी-बहुत दूर के लिए बस सुलभ हो जाती थी।

माताजी की दिनचर्या में तप-साधना के अलावा अपने परिजनों के पत्रों के उत्तर देना, अखण्ड ज्योति पत्रिका के संपादन की व्यवस्था करना, सभी के भोजन का समुचित रूप से इंतजाम करना शामिल था। इन सभी कामों के साथ वे अपने साथ रहने वाली बालिकाओं के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था भी जुटाती थीं, जिससे कि उनको अपने घर का अथवा माता-पिता का अभाव न खले। इस व्यवस्था में उन्हें कुछ-कुछ नई विशेष चीजें अपने हाथों से बनाकर खिलाना आदि शामिल था। इन सब दैनिक कार्यों में माताजी पर्याप्त व्यस्त रहती थीं। उनकी इस व्यस्तता को देखकर आस-पास रहने वाले यह समझ ही न पाते थे कि वे साधना कब करती हैं! करती हैं भी कि नहीं और यदि करती हैं तो क्या करती हैं! हालांकि अंतःकरण को कुरेदने वाले इन सवालों की भ्रांति में पड़ने वाले लोग भी उनकी आध्यात्मिक शक्ति व सिद्धियों से अवगत थे। फिर भी अपनी ऊहापोह भरी भ्रांति में वे सत्य को समझने में असमर्थ थे।

एक दिन ऐसे ही एक परिजन ने, जो अभी भी जीवित हैं, परंतु जिन्हें अपना नाम उजागर करने में संकोच है, बड़ी ही हिचकिचाहट के साथ माताजी से पूछ लिया, ‘‘माताजी, आप तो स्वयं सिद्धिदात्री हैं, फिर आपको साधना करने की आवश्यकता क्या है?’’ इस सवाल के बाद थोड़ा डरते-डरते उन्होंने यह भी पूछा कि आप अपनी साधना कब करती हैं, कुछ पता ही नहीं चलता। अंतर्यामी माताजी उसकी इन बातों पर पहले तो मुस्कराईं, फिर हल्के-से हंस दीं। फिर थोड़ा-सा रुककर बोलीं, क्या करेगा यह सब जानकर। पर उसे बड़ा मायूस और उदास देखकर वह समझाने लगीं, देख बेटा! तू इन चीजों को अभी ठीक से समझ नहीं सकता। तेरी आंखें अभी बड़ी कमजोर हैं, वे हमारी साधना को देख नहीं सकतीं। फिर भी तू जिद करता है, तो चल थोड़ा-बहुत बताए देती हूं।

देख, ये लड़कियां और मैं मिलकर साधना करती हैं। इन लड़कियों की साधना स्थूल है और मेरी सूक्ष्म। मैं जो कुछ भी करती हूं वह सूक्ष्मशरीर से, सूक्ष्मलोक में करती हूं। साधारण लोगों को दिखाई न देने और समझ में न आने पर भी इस तरह से ब्रह्मांड में बिखरे-फैले शक्ति प्रवाहों में से अनंत शक्ति का अर्जन होता है। यह सूक्ष्मशरीर की ऐसी साधना है, जिसकी चर्चा साधना की किसी किताब में नहीं है। लेकिन इस तरह से किए जाने वाले शक्ति अर्जन की सार्थकता तभी है, जब उसके अवतरण के लिए उचित आधार-भूमि हो। इस आधार-भूमि का निर्माण इन लड़कियों द्वारा मेरी देख-रेख में किए जा रहे गायत्री पुरश्चरणों की श्रृंखला से हो रहा है, तेरी समझ में ये सब बातें कितनी आएंगी, पता नहीं! पर इतना जान ले कि यहां इन दिनों अद्भुत हो रहा है। इस पवित्र भूमि की पात्रता का विस्तार करके इसे आध्यात्मिक ऊर्जा का भंडारगृह बनाया जा रहा है। इसका उपयोग आगे चलकर होगा।

अपनी बातों को समझाती हुई माताजी थोड़ा रुकीं, फिर कहने लगीं, तूने एक बात और पूछी थी, माताजी आपको साधना की आवश्यकता क्या है? तो बेटा, साधना मेरे लिए आवश्यकता नहीं, मेरा स्वभाव है। इसकी आवश्यकता मुझे नहीं तुम सब बच्चों को है। अब बच्चे तो बच्चे ठहरे, जाने-अनजाने उनसे न जाने कितने पाप-ताप हो जाते हैं और जब उनके परिणाम सामने आते हैं तो कहते हैं, माताजी बचाओ। अब बच्चे कैसे भी हों, धूल-मिट्टी, मल-मूत्र से सने हों या साफ-सुथरे हों, मेरे लिए तो बच्चे ही हैं। मैं उनकी मां हूं। वे जैसे भी हैं, मुझे बहुत प्यारे हैं। अपने इन बच्चों को आफत-मुसीबत से बचाने के लिए मुझे बहुत कुछ करना पड़ता है। गलती बच्चे करते हैं, प्रायश्चित उनकी मां होने के कारण मुझे करना पड़ता है। इसी के चलते निरंतर साधना करती रहनी पड़ती है।

सुनने वाले की आंखें माताजी की बातों को सुनकर भर आईं। वह उनके वात्सल्य के अनंत विस्तार को देखकर हतप्रभ था। माताजी अपने भावों में डूबी कहे जा रही थीं, बेटा, मैं तो इस जमीन का, यहां के आस-पास की बहुतेरी जमीन का कायापलट करने में लगी हुई हूं। जहां तक मेरे संकल्प का विस्तार है, यह जमीन आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षय कोष बन जाएगी। आगे चलकर यहां विस्तार होगा। यहां से बहुत बड़े-बड़े काम होंगे। उस समय देखने वाले लोक हैरान होंगे कि ये शांतिकुंज के सारे काम अपने आप कैसे हो जाते हैं। शांतिकुंज जो काम अपने हाथ में लेता है, वह बस अपने आप होता चला जाता है। दरअसल यह अपने आप नहीं, उस आध्यात्मिक ऊर्जा के एक अंश से होगा, जिसे मैं आज जमा कर रही हूं। यहां जो लोग आएंगे और भावभरी श्रद्धा के साथ यहां रहकर साधना करेंगे, अनायास उनके प्राण प्रत्यावर्तित हो जाएंगे। आगे के दिनों में यहां आने वाले श्रद्धावान साधक अपने प्रत्यावर्तित प्राणों को अनुभव करेंगे। अपनी साधना की रहस्य कथा के इन कुछ अंशों को उजागर करते हुए माताजी अचानक उठ खड़ी हुईं। शायद उन्हें अपने भविष्यत् कार्यों को गति देनी थी।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118