महाशक्ति की लोकयात्रा

विनम्र निवेदन

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‘महाशक्ति की लोक यात्रा’ परमवंदनीया माता जी के दिव्य जीवन की अमृत कथा। परात्पर प्रभु जब ‘संभवामि युगे-युगे’ के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए मानव कल्याण हेतु धराधाम में अवतरित होते हैं, तब उनके साथ उनकी लीला शक्ति का भी नारी रूप में प्रायः इस लोक में अवतरण होता है। इतिहास-पुराण के अनेकों पृष्ठ भगवत्कथा के ऐसे दिव्य प्रसंगों से भरे पड़े हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के साथ माता सीता आईं। लीला पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण के साथ माता रुक्मिणी का आगमन हुआ भगवान बुद्ध के साथ यशोधरा का, चैतन्य महाप्रभु के साथ देवी विष्णुप्रिया का इस लोक में आविर्भाव हुआ। भगवान् श्रीरामकृष्ण देव के साथ माता शारदा ने अवतार लेकर उनके ईश्वरीय कार्य में सहायता की। ये सभी महान नारियां एक ही महाशक्ति की विभिन्न कलाओं के रूप में अवतरित हुईं और भगवान् की अवतार लीला में उनकी सहायक बनीं।

वर्तमान युग में उसी महाशक्ति ने माता भगवती के रूप में अपनी समस्त कलाओं के साथ, संपूर्ण रूप में इस धरालोक पर अवतार लिया। अपनी इस लोकयात्रा में महाशक्ति ने अपने आराध्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव के ईश्वरीय कार्य में सहायता करने के साथ हम सबके सामने अनेकों जीवनदर्शन प्रस्तुत किए। आदर्श गृहिणी, आदर्श माता, आदर्श तपस्विनी, आदर्श गुरु का स्वरूप हम सबके समक्ष प्रकट किया। यही नहीं उन्होंने अपने पवित्र और साधना संपन्न जीवन के द्वारा भारतीय नारी की गरिमा को भव्य अभिव्यक्ति दी। उन्होंने इस श्रुति वाक्य को अपनी जीवन साधना से सत्य सिद्ध किया कि नारी अबला नहीं शक्तिस्वरूपा है। वह आश्रित नहीं आश्रयदाता है।

इन पंक्तियों के लेखकों को कई दशकों तक उनके निकटतम रहने का सौभाग्य मिला है। सालों-साल एक छत के नीचे उनके साथ हंसना-बोलना, खाना-पीना, उसके वात्सल्य का सतत पयपान करते हुए जीना, यहां तक कि उसके महाप्रयाण के क्षण तक उनके पास रहना, उन्हीं की कृपा से संभव हुआ है। उनके साथ गुजरा हर पल अभी भी स्मृतियों में सुरक्षित और संरक्षित है। इस अमूल्य निधि को अब तो दिन में कई-कई बार खोलकर देखने की आदत-सी पड़ गई है। उनकी याद करने से गहन साधना से प्राप्त होने वाला आत्मबल और अजस्र शांति मिलती है। मैंने उनके जीवन को सदा से ही बहुआयामी देखा है। वह अति सरल –सहज एवं अति रहस्यपूर्ण थीं। लोक में रहते हुए भी वह पूर्णतया अलौकिक थीं। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उनके जीवन की सम्पूर्ण व्याख्या पूर्णतया असंभव है।

ब्रह्मवर्चस द्वारा संपादित इस पुस्तक में जो कुछ लिखा गया है वह दृश्य सत्यों का भावपूर्ण संकलन है। हालांकि ये दृश्य-सत्य ऐसे झरोखों की तरह हैं जिनसे अदृश्य बरबस झांकना–झलकता और प्रकट होता है। यदि भक्तिपूर्ण रीति से, श्रद्धा भाव से इसे पढ़ा जाएगा, तो पढ़ने वाले की मानसिक चेतना परामानसिक अनुभूतियों के क्षीर सागर में तैरने लगेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। साधना पथ के जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक मार्गदर्शिका है। परमवंदनीया माताजी की कृपा प्राप्ति के इच्छुक जनों के लिए इस पुस्तक को पढ़ना जैसे सुवर्ण पथ पर चलना है। स्थूल देह में न रहने पर भी असंख्य जन आज भी वंदनीया माताजी की पराचेतना की अनुभूति प्राप्त करते हैं। सत्य यही है कि वे आज भी हैं, यहीं हैं, हमारे एकदम आस-पास हैं। मेरा तो यह विश्वास है कि इन क्षणों में इस पुस्तक को थामे हुए जनों के हृदयों में उठ रहे भाव स्पंदनों को वह महसूस कर रही हैं।

उन्हें पुकारने के लिए इस पुस्तक का पठन और श्रवण एक श्रेष्ठ साधना है। इसमें उनकी लोकयात्रा के अनेकों ऐसे प्रसंग है, दो उन भावमयी की भावात्मक अनुभूति में समर्थ हैं। योग विज्ञान के विद्यार्थी उनके इन प्रसंगों को पढ़ने व मनन करने से समझ सकेंगे कि सच्ची योग साधना क्या होती है! जो भक्त हैं, उनके लिए महाशक्ति की लोकयात्रा का पठन और चिन्तन जीवन-सुधा की तरह है। जिसे जितनी तरह से और जितनी बार पिया जाए, उतनी ही आत्मचेतना को नवस्फूर्ति प्राप्त होती है। वे इस लोक में हम सबके लिए ही आई थीं। हमारी अंतर्चेतना को जगाने, इसे ऊपर उठाने, हम सबके जीवन के कष्ट-कठिनाईयों से छुटकारा दिलाने के लिए वह अपनी समूची लोकयात्रा में प्रयत्नशील रहीं। आज जब वह अपने दिव्यधाम में हैं, तो भी उन्हें सदा हमारा ही ध्यान रहता है।

ऐसी वात्सल्यमयी मां को भक्तिपूर्ण प्रणाम करते हुए मेरी यही प्रार्थना है-

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वर्तिहारिणि
त्रैलोक्यवासिनाड्ये लोकानां वरदा भव।। -देवी सप्तशती 11/35


‘‘विश्व की पीड़ा को दूर करने वाली मां! हम तुम्हारे चरणों में पड़े हुए हैं। हम प्रसन्न होओ। त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरी ! सब लोगों को वरदान दो।’’ महाशक्तिमयी माताजी से इस प्रार्थना के साथ यह पावन प्रयास अब आपके हाथों में सौंपा जा रहा है। आप सभी पर उनके कल्याणमय आशीषों की सतत वर्षा होती रहे।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या

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