महाशक्ति की लोकयात्रा

ध्यान की गहनता में दिखाई दिया अतीत

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शिव-पूजा के खेल में जो भावानुभूतियां हुई थीं, वे आयु के बढ़ने के साथ सघन और प्रगाढ़ होने लगीं। किशोरी भगवती के मन-प्राण व अंतःकरण में एक पुकार ने जन्म ले लिया। उनके प्राण अपने शिव को पुकारते रहते। रह-रहकर मन ध्यानस्थ चेतना में देखे गए दृश्यों को फिर-फिर निहारने लगता। कई तरह के सवाल अंतःकरण को कुरेदते रहते। वह सोचा करतीं कि यह महायोगी शिव कौन है, जिसे वह ध्यान में हमेशा देखती हैं? बार-बार ध्यान करते समय शिव के स्थान पर सुदर्शन व्यक्तित्व वाले इस महायोगी की छवि क्यों प्रकट हो जाती है? क्या सचमुच ही भगवान शिव ने धरती पर अवतार ले लिया है। ये और ऐसे ही अनेक सवाल उन दिनों उनकी अंतर्चेतना में अंकुरित हो रहे थे। इन सभी को उत्तर पाने के लिए उन्होंने ध्यान-साधना को और अधिक तीव्र करने का निश्चय किया।

इस निश्चय के साथ ही उनमें एक अजीब-सा भाव परिवर्तन हो गया। घर के प्रायः सभी सदस्यों ने इसे अनुभव किया। इन दिनों उनकी दिनचर्या बड़ी ही अस्त–व्यस्त हो गई, लेकिन इस बाह्य अस्त-व्यस्तता में एक आंतरिक सुव्यवस्था साकार हो रही थी। वह अपनी ध्यान-साधना में इतनी डूबी रहतीं कि उन्हें अपने उठने, नहाने, खाने की सुध-बुध ही न रहती। घर के सदस्य उनके इस आंतरिक परिवर्तन से अनजान थे। बड़ी भाभी जो मां की तरह उनकी साज-संभाल किया करती थीं, उन्हें समझाती रहतीं। बार-बार कहतीं, ‘‘लाली, तू तो ऐसी न थी। आजकल तुझे क्या हो गया है! कहां तो तू सवेरे-सवेरे जल्दी उठकर नहा-धोकर तैयार हो जाती थी, खेलने लगती थी, घर का काम-काज भी करा लेती थी, पर आजकल तो तुझे जैसे अपना ध्यान ही नहीं रह गया है।’’

भाभी की इन बातों को वह हंसकर टाल जाती थीं। जिस किसी तरह उन्हें बहला-समझा देतीं। वह जानती थी कि यदि वह बैठकर सुव्यवस्थित तरीके से दिन-रात ध्यान-साधना करेगी, तो सबके-सब परेशान हो जाएंगे और वह अपने परिवार के किसी भी सदस्य को परेशान नहीं करना चाहती थीं, इसीलिए उन्होंने यह अनूठा तरीका निकाला था। वह दिन-प्रतिदिन ध्यान-साधना की गहरी भावदशा में खोती जा रही थीं। अनेकों दिव्य अनुभूतियां प्रतिक्षण उन्हें घेरे रहती थीं। बाहरी तौर पर सब कुछ सामान्य होते हुए भी उनके आंतरिक जीवन में सभी कुछ असामान्य और अलौकिक हो गया था।

अपनी उन दिनों की बातों की चर्चा किसी विशेष प्रसंग में करते हुए उन्होंने अपनी एक शिष्य-संतान को कुछ खास बातें बताई थीं। साधना, तपस्या की बात करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘ये सब जितना गोपनीय रहे, उतना ही अच्छा। संसार को दिखाकर-जताकर भला क्या लाभ होगा? गुरुजी को लोकशिक्षण करना था, तुम सब को बताना था, सिखाना था, इसलिए उन्होंने अपने बारे में कुछ छोटी-मोटी बातें बता दीं। उनकी विशेष तपस्या के बारे में अभी भी किसी को कुछ नहीं पता। मेरे बारे में तो खैर कोई कुछ जानता ही नहीं है, जबकि असलियत यह है कि मेरी साधना ग्यारह-बारह साल की उम्र में शुरू हो गई थी। इसमें कहीं कोई दिखावा न था। बस सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते हर समय ध्यान किया करती थी। देह का तो जैसे कोई होश नहीं रह गया था। बड़ी विचित्र स्थिति थी उन दिनों।’’

अस्तित्व के कण-प्रतिकण में, अणु-परमाणु में जो अव्यक्त नाद है, वह उन्हें हर समय सुनाई देता रहता था। कभी तो भेरी बजती, कभी मृदंग, कभी वीणा, कभी शंख ध्वनि होती और कभी सब मिल-जुलकर वाद्यवृंद से अलौकिक संगीत उपजाते। उनके देह-मन में सर्वत्र अणु-परमाणुओं के विद्युतकणों का नृत्य और घूर्णन चलता रहता। लीलामयी अपने अंतःकरण में इन अणु-परमाणुओं के सतत वेधन, ध्वंस और नए-नए समुच्चयों से अनंत पदार्थों की सृष्टि, विकास और समाप्ति के सिलसिले से तदाकार होने लगी। उनकी चित् शक्ति की चैतन्यता में सब कुछ स्पष्ट होने लगा। इन्हीं दिनों उन्होंने अपने जन्म और जीवन के कई रहस्यों का साक्षात्कार किया।

ध्यान की गहनता में उन्होंने अपने साधनामय अतीत की झलकियां देखीं। गंगा की लहरों एवं मंदिर की घंटियों की गूंज के साथ जो दृश्य उभरे, पहले वे अस्पष्ट थे। बाद में धीरे-धीरे उन्होंने अपने को दक्षिणेश्वर मंदिर में रामकृष्ण परमहंस के साथ पाया। उन्हें ऐसा लगा, जैसे कि वे परमहंस देव के साथ, उनके भक्तों व शिष्यों के साथ घिरी हैं। सभी उन्हें मां-मां कहते हुए भक्तिपूर्वक प्रणाम-प्रणिपात कर रहे हैं। इस अद्भुत दृश्यावली में वह कितनी देर खोई रहीं, कुछ पता ही न चला।

तभी अचानक उनकी ध्यानस्थ चेतना में दृश्य परिवर्तन हुआ। गंगा की लहरों और मंदिर की घंटियों की गूंज अभी भी यथावत थी। बस अन्य दृश्य बदले।  ऐसा लगा जैसे वह बनारस में कहीं हैं। संत कबीर के ताने-बाने के साथ उनके जीवन का ताना बुना हुआ है। वह अक्खड़-फक्कड़ कबीर के साथ हैं। अनेकों सामान्यजन उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी झोपड़ी के पास सच्चे योगी, गरीब, अनपढ़ सब एक साथ संत कबीर से ज्ञान पाने के लिए आए हैं। ध्यान की गहनता में उभरते इन दृश्यों को वह निहारती रहीं। इस कालशून्यता में काल-बोध का कोई प्रश्न ही न था।

दृश्य परिवर्तन यहां भी थे। चित् शक्ति का लीला-विलास यहां भी सक्रिय था। ध्यान की इस भावभूमि में उन्हें प्रत्यक्ष हुआ कि जो कबीर थे, वही श्रीरामकृष्ण परमहंस रहे और वही अब वह महायोगी हैं, जो उन्हें वर्षों से दिखाई दे रहे हैं। इन्हीं के साथ उनके अपने भविष्य की डोर बंधी है। बीते दो जन्मों का सुपरिचित सान्निध्य उन्हें इस जीवन में भी मिलने वाला है। संत कबीर की लीला सहचरी ‘लोई’, श्रीरामकृष्ण परमहंस की लीला संगिनी रहीं ‘सारदा’ वही हैं। जिस आत्म-चेतना ने लोई के रूप में जन्म लिया, जिसने शारदा के रूप में जीवन जिया, उसी ने अब भगवती का नाम-रूप स्वीकार करके देह धारण की है।

कई वर्षों की तीव्र ध्यान-साधना के बाद उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल गए। उनकी जीवनचर्या का बाह्य रूप फिर से पूर्ववत् सुव्यवस्थित हो गया। घर के सभी सदस्यों को आश्वस्ति मिली। बस उन्हें पहले और अब में सिर्फ एक परिवर्तन नजर आया। अब उनकी लाली प्रातः जल्दी स्नान करके शिव-पूजा के साथ नियमित ध्यान करने लगी है। अपने आराध्य से मिलने की उनकी तीव्र उत्कंठा को कोई समझ न पाया। लगातार तीव्र होती जा रही उनकी आंतरिक पुकार से परिवार के सभी सदस्य अनजान थे, हालांकि इस बीच घटनाचक्र तेजी से बदल रहे थे। उन दिनों की प्रथा के अनुरूप जसवंतराव शर्मा को अपनी प्यारी बेटी के विवाह की चिंता होने लगी थी। किशोरी भगवती की अंतर्चेतना में उफनती अलौकिकता के ज्योति सागरों के बीच पुकार के सघन स्वर गूंज रहे थे। आराध्य के चरणों के प्रति उनका अनुराग नित्यप्रति बढ़ता जा रहा था। उनमें आध्यात्मिक प्रेम के बीज अंकुरित होने लगे थे।

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